गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र

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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:- कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्। अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।2/2।। इसका अर्थ है,"हे अर्जुन! इस विषम समय पर तुम्हें यह मोह कहाँ से प्राप्त हुआ।न यह श्रेष्ठ पुरुषों के लिए उचित हैन स्वर्ग को देने वाला है, और न ही यह कीर्ति प्रदान करने वाला है। प्रायः हम रोजमर्रा के जीवन में मोह के शिकार हो जाते हैं। कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन का मोहग्रस्त होना प्रथम दृष्टया तार्किक था। युद्ध क्षेत्र में अपने बंधु बांधवों को स्वयं के खेमे में और विरोधी खेमे में देखकर उनका मन विचलित हो गया और अपनी इस इस दुविधा की स्थिति को उन्होंने अपने आराध्य, मार्गदर्शक और मित्र भगवान श्री कृष्ण के सम्मुख प्रकट किया। अर्जुन का यह मोह संभावित भारी विनाश और अपने ही स्वजनों की हानि को लेकर था। इस तरह की दुविधा वाली परिस्थिति हम साधारण मनुष्यों के जीवन में भी दिखाई देती है, जब मनुष्य मोह और दुविधा का शिकार हो जाता है।उसे यह समझ में नहीं आता कि अब वह कौन सा कदम उठाए।ऐसे में वह कोई स्पष्ट और उचित निर्णय नहीं ले पाता है।

Full Novel

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 1

इस लेखमाला में मैंने गीता के श्लोकों व उनके अर्थों को केवल एक प्रेरणा के रूप में लिया है।यह तो उनकी व्याख्या है न विवेचना क्योंकि मुझमें मेरे आराध्य भगवान कृष्ण की वाणी पर टीका की सामर्थ्य बिल्कुल नहीं है।मैं बस उन्हें आज के संदर्भों से जोड़ने व स्वयं अपने उपयोग के लिए जीवन सूत्र ढूंढने व उनसे सीखने का एक मौलिक प्रयत्न मात्र कर रहा हूं।वही मातृभारती के आप सुधि पाठकों के समक्ष भी प्रस्तुत कर रहा हूं।आज प्रस्तुत है पहला जीवन सूत्र: ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 2

संघर्ष का नाम ही जिंदगी है।जीवन पथ पर वही आगे बढ़ते हैं जिनमें चलने का साहस हो।विजयश्री उन्हीं को करती है,जिन्होंने किसी कार्य का निश्चय किया हो और उसकी ओर पहला कदम बढ़ाया हो।बस साथ होना चाहिए मनोबल ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 3

जीवन सूत्र 3 भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम "शोक करना उचित नहीं है", इस वाक्यांश को तीसरे सूत्र के रूप में लेते हैं।कहा गया है कि ईंधन से जिस तरह अग्नि बढ़ती है,वैसे ही सोचने से चिंता बढ़ती है। न सोचने से चिंता उसी तरह नष्ट हो जाती है, जैसे ईंधन के बिना अग्नि। ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 4

जीवन सूत्र 4 आप और हम सब हर युग में रहेंगे भारतवर्ष का भावी इतिहास तय करने वाले निर्णायक के पूर्व ही अर्जुन को चिंता से ग्रस्त देखकर भगवान श्री कृष्ण ने समझाया कि मनुष्य का स्वभाव चिंता करने वाला नहीं होना चाहिए।आगे इसे स्पष्ट करते हुए श्री कृष्ण वीर अर्जुन से कहते हैं कि किन लोगों के लिए चिंता करना और किन लोगों को खो देने का भय? न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।2/12।। इसका अर्थ है,हे अर्जुन!(तू किनके लिए शोक करता है?)वास्तव में न तो ऐसा ही है ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 5

जीवन सूत्र 5: शरीर की अवस्था में बदलाव स्वीकार करें विवेक को बचपन से ही आध्यात्मिक ग्रंथों के अध्ययन रुचि है। आवासीय विद्यालय के आचार्य सत्यव्रत आधुनिक पद्धति की शिक्षा देने के साथ-साथ प्राचीन जीवन मूल्यों और परंपरागत नैतिक शिक्षा के उपदेशों को भी शामिल करते रहते हैं।वे बार-बार बच्चों से कहते हैं कि विद्या का उद्देश्य जीवन में धन,पद, यश,प्रतिष्ठा प्राप्त करना नहीं है।जीवन का व्यावहारिक ज्ञान पाने,श्रेष्ठ नागरिक गुणों का विकास और समाज उन्मुखी श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए शिक्षा आवश्यक है।सच्चा ज्ञान केवल किताबी कीड़ा नहीं बनाता बल्कि संकटकालीन परिस्थितियों में निर्णय लेने के लिए आवश्यक ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 6

जीवन सूत्र 6 सुख और दुख हैं अस्थायी श्री कृष्ण प्रेमालय में बने कृष्ण मंदिर में रोज शाम को पूजा और आरती के बाद संक्षिप्त धर्म चर्चा होती है। आचार्य सत्यव्रत की ज्ञान चर्चा में आम व्यक्ति भी अपनी जिज्ञासा लेकर उपस्थित होते हैं। आज की ज्ञान चर्चा में रामदीन भी उपस्थित है। रामदीन एक मिल में मजदूरी करता है। दिन भर कड़ी मेहनत करने के बाद भी उसे जो मजदूरी मिलती है, वह अपर्याप्त होती है।इससे वह अपने घर का खर्च चलाने और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ है।रामदीन आस्थावान है लेकिन कभी-कभी स्वयं को मिलने ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 7

शिकायत छोड़ें, सुख दुख समझें एक समान छात्रावास के बालक पृथ्वी को हर चीज से शिकायत रहती है।मानो उसने करने के लिए ही जन्म लिया है।छात्रावास में उसे कोई भी असुविधा हुई तो शिकायत।नल में पानी नहीं आ रहा,तो "कुछ समय में मिल जाएगा" की सूचना मिलने के बाद भी शिकायत। पढ़ने के समय भी उसका ध्यान इसीलिए विचलित रहता है।स्वयं की पढ़ाई पर ध्यान देने के बदले वह"और बच्चे क्या कर रहे हैं",इस पर अधिक ध्यान देता है। अभी ठंड के दिन हैं और उसकी शिकायत प्रकृति में पड़ रही कड़ाके की ठंड से लेकर उसके अनुसार सूर्यदेव ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 8

जीवन सूत्र 8: जीत सत्य की होती है पृथ्वी द्वारा उठाए गए प्रश्न और उसके समाधान को विवेक ने की ज्ञान चर्चा में ध्यानपूर्वक सुना था।वह विचार करने लगा कि दुनिया में जो भी घटित होता है, वह वही होता है जो उसे किसी निर्दिष्ट समय पर होना चाहिए। शायद घटनाएं अवश्यंभावी होती हैं और मनुष्य उन्हें एक सीमा तक बदलने की कोशिश कर सकता है। मनुष्य के हाथ में है तो उसकी सत्यनिष्ठा जो उसके परिश्रम के माध्यम से उसे एक बेहतर स्थिति के निर्माण में मदद करती है। विवेक ने अपने घर के पास रहने वाले एक ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 9

जीवन सूत्र 9 आत्मा में है जादुई शक्ति वास्तव में वह एक परम सत्ता ही अविनाशी तत्व है,जिसे लोग उपासना पद्धति के अनुसार अलग-अलग नामों से जानते हैं।मनुष्य को प्राप्त जीवन, उसके प्राण का अस्तित्व,मृत्यु के समय प्राणशक्ति का क्षीण होना,पुनर्जन्म की अवधारणा ये सब ऐसे सिद्धांत हैं,जिनसे ईश्वर के सर्वोपरि होने का पता लगता है। यह संसार भी और इसके दृश्यमान रूप भी ईश्वर की ही अभिव्यक्ति हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्। विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति।।2/17।। इसका अर्थ है,हे अर्जुन! तुम उसे अविनाशी जानो,जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है।इस ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 10

जीवन सूत्र 10 नाशवान शरीर की जरूरत से ज्यादा देखभाल न करें परमात्मा के एक अंश के रूप में में आत्मा तत्व की उपस्थिति इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि हम इसके माध्यम से उस परमात्मा से जुड़ सकते हैं और उसकी शक्तियों को स्वयं में अनुभूत कर मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं। आत्मा और शरीर की विशेषताओं में महत्वपूर्ण अंतर बताते हुए भगवान श्री कृष्ण,वीर अर्जुन से आगे कहते हैं:- अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः। अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।(2 18) इसका अर्थ है:- इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन, तू ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 11

जीवन सूत्र 11: अंतरात्मा सच का अनुगामी होता है भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन में चर्चा जारी है।यह संसार है और अगर कोई चीज नश्वर है तो वह है परमात्मा तत्व जो सभी मनुष्यों के शरीर में स्थित है।(श्लोक 18 से आगे की चर्चा)आत्म तत्व को और स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं:-य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।(2 19)।इसका अर्थ है:-जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है और जो इसको मरा समझता है वे दोनों ही नहीं जानते हैं, क्योंकि यह आत्मा न किसी को मारती है ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 12

जीवन सूत्र 12 आपके भीतर ही है चेतना,ऊर्जा और दिव्य प्रकाश भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन में चर्चा जारी जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है और जो इसको मरा समझता है वे दोनों ही नहीं जानते हैं, क्योंकि यह आत्मा न किसी को मारती है और न मारी जाती है। आत्मा अपने स्वरूप में परमात्मा की ओर अभिमुख है क्योंकि वह परमात्मा का ही अंश है।आत्मा एक ऊर्जा है।शक्ति है। आत्मा की विशेषताओं पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए भगवान कृष्ण ने गीता में अर्जुन से आगे कहा :- न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 13

जीवन सूत्र 13 कभी अप्रिय निर्णय भी हो जाते हैं अपरिहार्यइस लेखमाला में मैंने गीता के श्लोकों व उनके को केवल एक प्रेरणा के रूप में लिया है।यह न तो उनकी व्याख्या है न विवेचना क्योंकि मुझमें मेरे आराध्य भगवान कृष्ण की वाणी पर टीका की सामर्थ्य बिल्कुल नहीं है।मैं बस उन्हें आज के संदर्भों से जोड़ने व स्वयं अपने उपयोग के लिए जीवन सूत्र ढूंढने व उनसे सीखने का एक मौलिक प्रयत्न मात्र कर रहा हूं।वही मातृभारती के आप सुधि पाठकों के समक्ष भी प्रस्तुत कर रहा हूं।आज प्रस्तुत है 13 वां जीवन सूत्र:कभी अप्रिय निर्णय भी हो ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 14

जीवन सूत्र 14 सुंदरता के बदले आंतरिक प्रसन्नता और सक्रियता है जरूरी इस लेखमाला में मैंने गीता के श्लोकों उनके अर्थों को केवल एक प्रेरणा के रूप में लिया है।यह न तो उनकी व्याख्या है न विवेचना क्योंकि मुझमें मेरे आराध्य भगवान कृष्ण की वाणी पर टीका की सामर्थ्य बिल्कुल नहीं है।मैं बस उन्हें आज के संदर्भों से जोड़ने व स्वयं अपने उपयोग के लिए जीवन सूत्र ढूंढने व उनसे सीखने का एक मौलिक प्रयत्न मात्र कर रहा हूं।वही मातृभारती के आप सुधि पाठकों के समक्ष भी प्रस्तुत कर रहा हूं।आज प्रस्तुत है 14 वां जीवन सूत्र: सुंदरता के ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 15 और 16

जीवन सूत्र 15 और 16 :आपके पास ही है अक्षय शक्ति वाली आत्मा, आत्मशक्ति का लोकहित में हो विस्तार में भगवान श्रीकृष्ण ने जिज्ञासु अर्जुन से कहा है:- नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।(2/23)। इसका अर्थ है, भगवान कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन,इस आत्माको शस्त्र काट नहीं सकते,आग जला नहीं सकती,जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकता। दूसरे अध्याय के इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से आत्मा की प्रकृति को स्पष्ट किया है। सभी लोगों के भीतर प्रकाशित यह आत्मा अपनी प्रकृति में विलक्षण है।जल में रहकर ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 17 और 18

जीवन सूत्र 17,18 : (17) इस जन्म की पूर्णता के बाद एक और नई यात्रा,(18)कुछ भी स्थायी न मानें जग में भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन की चर्चा जारी है। आत्मा की शक्तियां दिव्य हैं और यह हमारी देह में साक्षात ईश्वरत्व का निवास है। आत्मा की अन्य विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से आगे कहते हैं: - (17)इस जन्म की पूर्णता के बाद एक और नई यात्रा जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।(2/27)। इसका अर्थ है:- हे अर्जुन!जिस व्यक्ति ने जन्म लिया है,उसकी मृत्यु निश्चित है और मरने वाले ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 19

जीवन सूत्र 19:भीतर की आवाज की अनदेखी न करें इस लेखमाला में मैंने गीता के श्लोकों व उनके अर्थों केवल एक प्रेरणा के रूप में लिया है।यह न तो उनकी व्याख्या है न विवेचना क्योंकि मुझमें मेरे आराध्य भगवान कृष्ण की वाणी पर टीका की सामर्थ्य बिल्कुल नहीं है।मैं बस उन्हें आज के संदर्भों से जोड़ने व स्वयं अपने उपयोग के लिए जीवन सूत्र ढूंढने व उनसे सीखने का एक मौलिक प्रयत्न मात्र कर रहा हूं।वही मातृभारती के आप सुधि पाठकों के समक्ष भी प्रस्तुत कर रहा हूं।आज प्रस्तुत है 19 वां जीवन सूत्र: 19- भीतर की आवाज की ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 20

जीवन सूत्र 20:कार्य सारे महत्वपूर्ण हैं, कोई छोटा या बड़ा नहीं गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:- स्वधर्ममपि न विकम्पितुमर्हसि। धर्म्याद्धि युद्धाछ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।2/31।। दूसरे अध्याय के श्लोक 11 से 30 में श्री कृष्ण ने अर्जुन को आत्मा की अमरता और किसी व्यक्ति के जीवनकाल के संपूर्ण होने के बाद इस लोक से प्रस्थान करने के समय प्रियजन के स्वाभाविक विछोह की अवस्था को लेकर दुखी नहीं होने का निर्देश दिया। उन्होंने आगे कहा कि अपने स्वधर्म को भी देखकर तुमको विचलित होना उचित नहीं है,क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्त्तव्य नहीं ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 21

19: जीवन सूत्र 21: वीरों के सामने ही आती हैं जीवन की चुनौतियां गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्। सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।(2/32। इसका अर्थ है-हे पार्थ ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकारके युद्धको भाग्यवान क्षत्रियलोग ही पाते हैं। इस श्लोक से हम जीवन में अनायास प्राप्त युद्ध को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। वास्तव में प्रत्यक्ष युद्ध भूमि तो नहीं लेकिन जीवन में युद्ध जैसी स्थितियां अनेक अवसरों पर निर्मित होती हैं।यह स्थितियां हमारे सामने आने वाली कठिनाइयों और अड़चनों के रूप में हो सकती हैं। ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 22

भाग 20 :जीवन सूत्र 21:चुनौतियों में जन सेवा धर्मयुद्ध के समान गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:- अथ धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि। ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।(2/33)। इसका अर्थ है:- भगवान कृष्ण कहते हैं, "हे अर्जुन!यदि तुम इस धर्मयुद्ध को स्वीकार नहीं करोगे,तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त करोगे।" सदियों पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में मोह और संशय से ग्रस्त अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए भगवान कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया था।महाभारत युग के कुछ चुने हुए श्रेष्ठ योद्धाओं में से एक होने के बाद भी अर्जुन के मन में ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 23

भाग 21: जीवन सूत्र 23:अपयश से बचने साहसी चुनते हैं वीरता गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:- अकीर्तिं भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्। संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।।2/34।। अर्थात (अगर तू इस धर्म युद्ध को नहीं करेगा तो……. )सब लोग तेरी निरंतर अपकीर्ति करेंगे, और माननीय पुरुषके लिए तो अपकीर्ति मरने से भी बढ़कर है । इस श्लोक से हम अपयश शब्द को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। वास्तव में एक मनुष्य के रूप में हमारा कर्तव्य अपने व्यक्तिगत जिम्मेदारियों के निर्वहन के साथ-साथ सार्वजनिक सेवा और मानव कल्याण के लिए समर्पित होने का भी है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 24

भाग 22: जीवन सूत्र 24 आत्म सम्मान की सीमा रेखा की रक्षा करें भगवान कृष्ण ने गीता में कहा - अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः। निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्।(2/36)। गीता के अध्याय 2 में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा,"तुम्हारे शत्रु तुम्हारे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए बहुत से न कहने योग्य वचनों को कहेंगे,फिर तुम्हारे लिए उससे अधिक दु:ख क्या होगा?" अर्जुन के मन में अपने परिजनों को लेकर उठी मोह और दुविधा की स्थिति का समाधान करते हुए श्री कृष्ण ने उन्हें प्रेरित किया कि वीर पुरुषों को इस निर्णायक अवसर पर अपने कदम पीछे हटा ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 25

भाग 23 :जीवन सूत्र 25 आगे बढ़ें तो होंगे सारे विकल्प उपलब्ध अर्जुन श्रीकृष्ण की इस बात से पूरी सहमत हैं कि अगर वे युद्ध से हटते हैं तो उन्हें "अर्जुन कायरता के कारण युद्ध से हट गया" ऐसे निंदा और अपमानजनक वचन भी सुनने को मिलेंगे। एक योद्धा के लिए इससे दुखद और क्या हो सकता है? गीता में भगवान श्री कृष्ण ने आगे कहा है- हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।(2.37)। शूरवीरोंके साथ युद्ध करने पर या तो तू युद्धमें मारा जाकर स्वर्गको प्राप्त होगा अथवा संग्राममें जीतकर पृथ्वीका राज्य भोगेगा।इस ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 26

भाग 24 जीवन सूत्र 26 किसी भी परिणाम हेतु निडरता से तैयार रहें भगवान श्री कृष्ण ने गीता में है:- सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।(2/38)। इसका अर्थ है-जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझकर उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा। इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा। भगवान कृष्ण की इस अमृतवाणी से हम जीवन पथ की किसी भी स्थिति को समान भाव से स्वीकार करने को एक सूत्र के रूप में लेते हैं।वास्तव में हमारे जीवन में निर्भीकता और साहस आने के लिए यह बहुत आवश्यक है ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 27

भाग 25: जीवन सूत्र 27: जीवन के हर क्षण का सदुपयोग करें गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:- प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।(2/4)। इसका अर्थ है,"(सम बुद्धि रूप कर्म योग के विषय में)हे अर्जुन,संसार में इस कर्म योग के आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं होता,धर्मयुक्त कर्म का विपरीत फल भी नहीं मिलता।इसका थोड़ा सा भी उद्यम जन्म-मरणरूप महान् भय से प्राणियों की रक्षा करता है। भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम समबुद्धि रूप कर्म या धर्म रूप कर्म की अवधारणा को एक सूत्र के रूप में लेते हैं।वास्तव में थोड़े कर्मों ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 28

भाग 26: जीवन सूत्र :28 एक निश्चयात्मक बुद्धि का करें अभ्यास गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:- व्यवसायात्मिका कुरुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।2/41।। इसका अर्थ है,हे कुरुनन्दन ! इस कर्मयोग में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही है, अज्ञानी पुरुषों की बुद्धियां(संकल्प,दृष्टिकोण) बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं, क्योंकि वे अस्थिर विचार वाले और विवेकहीन होते हैं। वास्तव में मनुष्य का मन दिन भर में हजारों विचारों के आने - जाने का केंद्र होता है। कभी उसके मन में एक विचार आता है तो कभी दूसरा,और आगे ऐसे अनेक विचार आते रहते हैं।वह इन विचारों और तर्कों के खंडन - ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 29

भाग 27 जीवन सूत्र 29 या माया मिलेगी या मिलेंगे राम गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: - तयापहृतचेतसाम्। व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।(2/44)। इसका अर्थ है:- हे अर्जुन,(भोग व ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए कई प्रकार की क्रियाओं का वर्णन करने वाली)उस वाणीसे जिनका अन्तःकरण हर लिया गया है अर्थात् जो भोगों की ओर आकर्षित हो गए हैं और ऐश्वर्य में जो अत्यन्त आसक्त हैं,उन मनुष्यों की परमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती। सांसारिक चीजों से अपनी प्रवृत्ति को हटाने और परमात्मा में स्थिर करने को ही निश्चयात्मिका बुद्धि कहा जाता है। मनुष्य का मन सुख सुविधाओं ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 30

भाग 28: जीवन सूत्र 30:खुद पर रखें भरोसा, ईश्वर होंगे साथ खड़े गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।(2/45)। इसका अर्थ है,वेद तीनों गुणों के कार्य रूप का ही वर्णन करनेवाले हैं; हे अर्जुन! तू तीनों गुणों से अर्थात इनसे संबंधित विषयों और उनकी प्राप्ति के साधनों में आसक्ति से रहित हो जा, निर्द्वन्द्व हो जा, परमात्मा में स्थित हो जा, योग(अप्राप्ति की प्राप्ति)क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा) की इच्छा भी मत रख और आत्मा से युक्त हो जाओ। वेद का लक्ष्य परमात्म तत्व से मेल कराने वाले हैं, लेकिन इसके ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 31

भाग 29 :जीवन सूत्र 31:ज्ञान से परं तत्व की ओर गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:- यावानर्थ उदपाने संप्लुतोदके। तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।(2/46)। इसका अर्थ है :-सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर,छोटे जलाशयमें मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है,उतना ही प्रयोजन ब्रह्म को तत्त्व से जानने वाले ब्राह्मण का, समस्त वेदों में रह जाता है। वास्तव में मनुष्य के जीवन में ज्ञान की खोज निरंतर चलते रहती है। सत्य को जानने की बेचैनी मनुष्य के अंदर तब से ही बढ़ जाती है जब वह होश संभालता है और चीजों को समझने लगता है। सत्य ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 31

भाग 30 जीवन सूत्र 32 फल मिले तो ठीक, न मिले तो सब कुछ नष्ट नहीं गीता में भगवान ने कहा है:- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।। इसका अर्थ है:-तेरा अधिकार कर्म करनेमें ही है, इससे प्राप्त होने वाले फल में कभी नहीं। अतः तू कर्मफल का कारण भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो। वास्तव में मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है। मनुष्य एक क्षण भी बिना कर्म के नहीं रह सकता। केवल शारीरिक उद्यम करना और कुछ न कुछ करते रहना ही कर्म नहीं है। मानसिक स्तर पर ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 32

भाग 31: जीवन सूत्र 33:पहले जो है उसे स्वीकारें, फिर आगे बढ़ें जीवन सूत्र 34: कर्मफल पर दृष्टि जमाए है लोभ जीवन सूत्र 33:पहले जो है उसे स्वीकारें, फिर आगे बढ़ें गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है:- योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय। सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।(2/48) अर्थात हे धनंजय(अर्जुन) ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में समभाव रखते हुए योग में स्थिर रहता हुआ कर्मोंको कर।समत्व को ही योग कहा जाता है। समत्व अर्थात कार्य करते चलें।इनका फल मिले, न मिले ;इन्हें समान भाव से लेना। मनुष्य अपने जीवन में इतना अधिक लक्ष्य केंद्रित हो जाता ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 33

भाग 32: जीवन सूत्र 35: योग:जीवन में जोड़ने की सकारात्मक विद्या भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:- जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2/50।। इसका अर्थ है,हे अर्जुन!समत्वबुद्धि वाला व्यक्ति जीवन में पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों को त्याग देता है(इनके द्वंद्वों से मुक्त हो जाता है)इसलिए तुम योग से युक्त हो जाओ। कर्मों में कुशलता ही योग है।। आधुनिक जीवन शैली की भागदौड़, चिंता और तनाव को दूर करने का सरल उपाय योग है। योग 'युज' धातु से बना है।जिसका अर्थ है जुड़ना,जोड़ना मेल करना। अगर हमारी बुद्धि सम हो जाए,तो जीवन की समस्याएं ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 34

भाग 33:जीवन सूत्र 36:आसक्ति छोड़ना यूं बन जाएगा सरल गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:-कर्मजं बुद्धियुक्ता हि त्यक्त्वा मनीषिणः।जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम॥2/51॥इसका अर्थ है,समबुद्धि वाले व्यक्ति कर्म के फलों की आसक्ति से स्वयं को मुक्त कर लेते हैं।यही आसक्ति मनुष्य को जन्म-मृत्यु के चक्र से बांध लेती है।इस भाव से कर्म करते हुए वे उस अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं,जो सभी दुखों से परे होती है। पिछले श्लोक में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को समबुद्धि से कर्म करने का निर्देश दिया। कर्म योग कठिन प्रतीत होने पर भी ऐसी औषधि के समान है जो लाभकारी है और ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 35

भाग 34 जीवन सूत्र 37 मन का मोह के दलदल से दूर रहना आवश्यक जीवन सूत्र 38:बुद्धि का स्थिर जाना ही योग है जीवन सूत्र 37 मन का मोह के दलदल से दूर रहना आवश्यक भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है: - यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति। तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।2/52।। इसका अर्थ है,हे अर्जुन!जिस समय तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को पार कर जाएगी,उसी समय तू सुने हुए और सुनने में आनेवाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा। भगवान कृष्ण ने इस श्लोक के लिए मोह हेतु दलदल रूपक ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 36

भाग 35 जीवन सूत्र 39 और 40 जीवन सूत्र 39: संतुष्टि से आती है स्थितप्रज्ञता जीवन सूत्र 40:स्थितप्रज्ञता को में उतारना असंभव नहीं जीवन सूत्र 39: संतुष्टि से आती है स्थितप्रज्ञता गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: - प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2/55।। इसका अर्थ है,हे पार्थ! जिस समय व्यक्ति मन में स्थित सभी कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है,उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। गीता के अध्याय 2 में भगवान श्रीकृष्ण ने स्थितप्रज्ञ मनुष्य के लक्षण बताए हैं।स्थितप्रज्ञ मनुष्य की अनेक विशेषताएं होती हैं।वहीं अपने ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 37

भाग 36 जीवन सूत्र 40,41जीवन सूत्र 40 प्रेम और कर्म में संतुलन है आवश्यकगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा -यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठित।।2/57।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन!जो सर्वत्र स्नेहरहित हुआ,उन शुभ या अशुभ वस्तुको प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है,उसकी बुद्धि स्थिर है।स्थितप्रज्ञ मनुष्य के अन्य लक्षणों पर प्रकाश डालते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जिस मनुष्य की बुद्धि स्थिर हो जाती है ,वह चहुंओर अतिरेक स्नेह की भावना से रहित हो जाता है। जिन वस्तुओं या अभीष्ट की प्राप्ति को वह शुभ मानता है, उनके मिलने ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 38

भाग 37:जीवन सूत्र 42-43 42 मुख्य कार्य में भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है: - विषया विनिवर्तन्ते देहिनः। रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।2/59।। इसका अर्थ है,इन्द्रियों को विषयों से दूर रखने वाले मनुष्य के विषय तो निवृत्त हो जाते हैं,पर उनमें आसक्ति निवृत्त नहीं होती है।इस स्थितप्रज्ञ मनुष्य की तो आसक्ति भी परमात्मतत्त्व का अनुभव होने से निवृत्त हो जाती है। पिछले श्लोक में श्रीकृष्ण ने विषयों की आसक्ति को त्यागने की बात की है। इस श्लोक में इसे और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि इंद्रियों को बलपूर्वक विषय से हटाने के बाद भी मनुष्य ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 39

भाग 38 :जीवन सूत्र भाग 38 :जीवन सूत्र 44:इंद्रियों को साधें, स्वयं को जीतेंभगवान श्री कृष्ण ने गीता में है,तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2/61।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन! साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे; क्योंकि जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ वशमें हैं,उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। हमारे दैनिक जीवन में आपाधापी की स्थिति है। कारण यह है कि हममें से अनेक लोगों के लक्ष्य आपस में टकराते हैं और एक अनार, सौ बीमार वाली स्थिति बन जाती है। इसका परिणाम यह होता है एक ही ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 40

जीवन सूत्र 45 क्रोध का कारण हैं अपेक्षाएं और इच्छाएंजीवन सूत्र 46 क्रोध पर विजय प्राप्त करना आवश्यकगीता में श्रीकृष्ण ने कहा है:-ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2/62।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन!विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उसमें आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से इन विषयों को प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न होती है।इच्छापूर्ति में बाधा या कठिनाई उपस्थित होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। इंद्रियों के विषयों में गहरा आकर्षण और सम्मोहन होता है।ये आवश्यक न होने पर भी मृगमरीचिका की तरह दिखाई देते हैं और हम प्यास ना लगने पर भी प्यास का अनुभव करने लगते ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 41

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।2/64।।इसका अर्थ है,अन्तःकरण को अपने वश में रखने वाला कर्मयोगी साधक और द्वेष से रहित अपने नियंत्रण में की हुई इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता हुआ, अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त हो जाता है। जब आसक्ति रहित होने की बात आती है,इंद्रियों को उनके विषयों से मुक्त करने की बात आती है तो मनुष्य पूरी तरह इनके निषेध पर बल देता है।इसका मतलब है हमारा इंद्रियों के विषयों के प्रति शून्य हो जाना।इंद्रियां जिन चीजों को ग्रहण करती हैं, उन्हें पूरी तरह रोक देना। वास्तव में व्यवहार में यह ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 42

भाग 41: जीवन सूत्र 48:हँसी और प्रसन्नता के टॉनिकगीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:-प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।प्रसन्नचेतसो ह्याशु पर्यवतिष्ठते।(2/65) इसका अर्थ है मनुष्य के अंतः करण में प्रसन्नता होने पर उसके समस्त दुखों का अभाव हो जाता है।उस प्रसन्न मन वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही अच्छी तरह से स्थिर हो जाती है। वास्तव में सुख और दुख मन की अनुभूतियां हैं। कभी-कभी मनुष्य सुख सुविधाओं में भी संतुष्टि भाव नहीं होने के कारण दुख का अनुभव करता है। कभी-कभी संसाधनों के अभाव में कष्ट पूर्वक जीवन जीने के बाद ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 43

भाग 42 :जीवन सूत्र 49: एकाग्रता से ही मिलती है सूझ गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: -नास्ति न चायुक्तस्य भावना।न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।2/66।इसका अर्थ है,जो अपने मन और इंद्रियों को नहीं जीत पाता है,उस व्यक्ति में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती है।ऐसे संयमरहित अयुक्त पुरुष में भावना और ध्यान की क्षमता नहीं होती।ऐसे भावना रहित पुरुष को शान्ति नहीं मिलती और अशान्त पुरुष को सुख नहीं मिलता है। गीता के इस श्लोक से हम कुछ शब्दों को लेते हैं।वे हैं- चित्त को वश में करने की आवश्यकता। अपने मन को वश में करना आसान काम नहीं है। ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 44

भाग 43 जीवन सूत्र 50 प्रलोभन और संकल्प के बीच युद्ध भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-इन्द्रियाणां चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।2/67।। इसका अर्थ है,अपने-अपने विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक ही इंद्रिय मन को अपना अनुगामी बना लेती है,इससे वह इंद्रिय जल- नौका को वायु की तरह मनुष्य की बुद्धि को हर लेता है। कितना आसान है मन और बुद्धि का अपने कर्तव्य मार्ग से हट जाना। मन भटका,इंद्रियों के उसके विषयों के पीछे भागने से। किसी एक ही इंद्रिय में ही यह सामर्थ्य है कि वह मन के उसकी ओर खिंचे चले आने ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 45

भाग 44: जीवन सूत्र 51:विवेक की खिड़की हमेशा खुली रखें 52: दिन और रात के वास्तविक अर्थ अलग हैं51:विवेक खिड़की हमेशा खुली रखेंगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2/68।।इसका अर्थ है, इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ सब प्रकार से इन्द्रियों के विषयों से निग्रह की हुई होती हैं,उसकी बुद्धि स्थिर होती है। पूर्व के श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने चर्चा की है कि अगर मनुष्य की एक भी इंद्रिय विषयों के पीछे दौड़े और मनुष्य ने इसे अपने साथ बनाए रखने के लिए,अपने नियंत्रण में रखने के लिए प्रयास नहीं किया,तो यह ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 46

भाग 45 जीवन सूत्र 53 दिन और रात के वास्तविक अर्थ गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:-या सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।2/69।।इसका अर्थ है,सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात है,उसमें संयमी मनुष्य जागता है,और जिसमें सब प्राणी जागते हैं तथा सांसारिक सुविधाओं,भोग और संग्रह में लगे रहते हैं,वह आत्म तत्त्व को जानने वाले मुनि की दृष्टि में रात है। निद्रा और जागरण के अपने-अपने अर्थ होते हैं।सामान्य रूप से मनुष्य दिन में अपने सारे कार्यों को संपन्न करता है और रात्रि में विश्राम करता है।दिन जागने के लिए है तो रात सोने ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 47

भाग 46 जीवन सूत्र 54 समुद्र की तरह सब कुछ समा लेने का गुणगीता में भगवान श्री कृष्ण ने है: -आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठंसमुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वेस शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।2/70।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन!जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में अनेक नदियों के जल उसे विचलित किए बिना ही समा जाते हैं,वैसे ही जिस पुरुष में कामनाओं के विषय भोग उसमें विकार उत्पन्न किए बिना समा जाते हैं, वह पुरुष परम शान्ति प्राप्त करता है, न कि भोगों की कामना करने वाला पुरुष। समुद्र का स्वभाव अनुकरणीय है।नाना प्रकार की नदियों का जल उसमें समा जाता है। ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 48

भाग 47 जीवन सूत्र 55: आनंद को कायम रखने के सूत्र भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है: कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति।।2/71।।एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।2/72।।इसका अर्थ है,जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके इच्छारहित,ममतारहित और अहंकाररहित होकर आचरण करता है,वह शांति को प्राप्त होता है।हे पार्थ! यह ब्राह्मी स्थिति है।इसको प्राप्त कर कभी कोई मोहित नहीं होता।इस स्थिति में अन्तकाल में भी ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो जाती है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने चिर शांति की अवधारणा बताई है।उनके द्वारा अध्याय 2 के श्लोकों में मृत्यु और आत्मा की अमरता, समबुद्धि और ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 49

भाग 48 जीवन सूत्र 56: अक्षय आनंद का स्रोत भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है: -विहाय कामान्यः निःस्पृहः।निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति।।2/71।।एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।2/72।।इसका अर्थ है,जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके इच्छारहित,ममतारहित और अहंकाररहित होकर आचरण करता है,वह शांति को प्राप्त होता है।हे पार्थ! यह ब्राह्मी स्थिति है।इसको प्राप्त कर कभी कोई मोहित नहीं होता।इस स्थिति में अन्तकाल में भी ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो जाती है। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने चिर शांति की अवधारणा बताई है।उनके द्वारा अध्याय 2 के श्लोकों में मृत्यु और आत्मा की अमरता, समबुद्धि और स्थितप्रज्ञ मनुष्य ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 50

भाग 49: जीवन सूत्र 57:जीवन के कर्मक्षेत्र में तो उतरना ही होगा भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।3/4।। इसका अर्थ है,मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता अर्थात योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के त्यागमात्र से सिद्धि अर्थात पूर्णता को ही प्राप्त होता है।भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम 'कर्मों का आरंभ' इन शब्दों को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। वास्तव में हम अपने जीवन में किसी बड़े अवसर की तलाश करते रहते हैं और एक नई शुरुआत के लिए किसी अच्छे समय ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 51

भाग 50: जीवन सूत्र 58:कर्मों की रेल में न लगने दें जड़ता की ब्रेकगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।(3-5)।इसका अर्थ है-निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है। वास्तव में कर्म का तात्पर्य केवल क्रिया या गति से नहीं है अर्थात मनुष्य जब कोई कार्य कर रहा है तब वह कर्म है और अगर वह एक स्थान पर बैठा है और कुछ नहीं कर रहा ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 52

भाग 51 जीवन सूत्र 59 और 60जीवन सूत्र 59:मन के दमन के बदले उसे मोड़े दूसरी दिशा मेंभगवान श्री ने गीता में कहा है:-कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।(3.6)।इसका अर्थ है:- जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इंद्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोक कर मन से उन इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दंभी कहा जाता है। प्रायः यह होता है कि मनुष्य कर्मेन्द्रियों को रोककर उन इन्द्रियों के विषय-भोगों का मन से चिन्तन करता रहता है। वह वास्तव में ढोंगी है। असल में वह सदाचरण का दिखावा करता है। अब यहां ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 53

कर्मों में ले आएं यज्ञ जैसा परोपकार भाव भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है: -(यज्ञ की महिमा आधारित)यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।3/9।।इसका अर्थ है,यज्ञ के लिए किए हुए कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्म में प्रवृत्त हुआ यह पुरुष कर्मों द्वारा बंधता है,इसलिए हे कौन्तेय तुम आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का अच्छी तरह से आचरण करो। भगवान श्री कृष्ण ने इन पंक्तियों में आसक्ति को त्यागकर कर्म को यज्ञ के उद्देश्य से ही करने का निर्देश दिया है। यज्ञ एक ऐसी अवधारणा है,जो मनुष्य को वैयक्तिकता से सामूहिकता की ओर ले जाती ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 54

जीवन हो यज्ञमयगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।3/10।।इसका अर्थ है,प्रजापिता ब्रह्मा ने के प्रारंभ में यज्ञ सहित प्रजा का निर्माण कर कहा- इस यज्ञ द्वारा तुम वृद्धि को प्राप्त हो और यह यज्ञ तुम्हारे लिये इच्छित कामनाओं को पूर्ण करने वाला (इष्टकामधुक्) हो। पिछले आलेख में अपने कर्मों में यज्ञ जैसा परोपकार भाव लाने की चर्चा की गई थी।पंच महायज्ञ के अंतर्गत हमने ब्रह्म यज्ञ,देवयज्ञ,पितृ यज्ञ,नृ यज्ञ और भूत बलि यज्ञ की बात की। वास्तव में अग्नि में समिधाएं अर्पित कर देवताओं को समर्पित किए जाने वाला यज्ञ ही एकमात्र यज्ञ नहीं ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 55

विचार सरिता बांटने पर ही प्राप्त करने का अधिकारगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।3/12।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन!यज्ञ द्वारा बढ़ाए देवतागण तुम्हें वांछित भोग प्रदान करेंगे। उनके द्वारा दिये हुये भोगों को जो पुरुष उनको दिए बिना ही भोगता है,वह निश्चय ही चोर है। पिछले श्लोकों में यज्ञ के स्वरूप और उसमें अंतर्निहित सामूहिकता, सहयोग और परोपकार भाव की चर्चा की गई। यज्ञ में अर्पित सामग्रियां शहद,घी, फल, जौ, तिल,अक्षत समिधा(प्रज्वलन हेतु लकड़ी) आदि हविष्य सामग्रियां स्वाहा अर्थात सही रीति से देवताओं तक पहुंचती हैं।ये शुद्ध, सात्विक और मूल्यवान पदार्थ ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 56

बांटकर खाने में अन्न की सार्थकतागीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।भुञ्जते ते त्वघं पापा ये अर्थ है,यज्ञ के बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो लोग केवल स्वयं के शरीर पोषण के लिए ही पकाते हैं,वे तो पापों को ही खाते हैं। यज्ञ में देवताओं को विधिपूर्वक भोग अर्पित कर और यज्ञ उपरांत प्राप्त प्रसाद को ग्रहण करना स्वयं में ही हमारी आराधना का ही एक स्वाभाविक क्रम है।अगर मनुष्य का भोजन केवल स्वयं के लिए हो,उसमें अगर मैं के सिवाय किसी दूसरे व्यक्ति को ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 57

विचार सरिता विराट यज्ञ में मनुष्य द्वारा आहुति भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:- अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः। पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।3/14।। इसका अर्थ है,सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं।अन्न वर्षासे होती है। वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञ कर्मोंसे उत्पन्न होता है। कर्मों को तू वेद से उत्पन्न जान और वेद को परं ब्रह्म से प्रकट हुआ जान, इसलिए वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ में सदा ही प्रतिष्ठित हैं। लौकिक जीवन में अन्न की बड़ी महिमा है। मनुष्य को भोजन चाहिए तो पशु पक्षियों को भी।वनस्पतियों को भी।लौकिक रूप से खाद्य पदार्थ अगर शरीर की पुष्टि और कार्यक्षम स्थिति ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 58

भाग 58 जीवन सूत्र 65 सृष्टि चक्र में मानव की महत्वपूर्ण भूमिकाभगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है- प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।3/16।।इसका अर्थ है,"हे पार्थ! जो मनुष्य इस लोक में परम्परा से जारी सृष्टि के चक्र के अनुसार आचरण नहीं करता,वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में लिप्त रहने वाला पापपूर्ण जीवन जीता मनुष्य संसार में व्यर्थ ही समय बिताता है।" पिछले 14 वें और 15 वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने सृष्टि के चक्र की चर्चा की।आज से हजारों वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण ने इस सृष्टि चक्र के माध्यम से पारिस्थितिकी और जलवायु चक्र का ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 59

भाग 58 सूत्र 66 आकर्षणों के प्रलोभन से बचें कैसे? गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है,यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।आत्मन्येव च कार्यं न विद्यते।।3/17।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन! जो मनुष्य आत्मा में ही रम जाने वाला, आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट है,उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता है। पिछले श्लोकों में यज्ञ के स्वरूप,यज्ञमय कर्मों और सृष्टि चक्र में मनुष्य की प्रभावी भूमिका पर चर्चा के बाद भगवान श्री कृष्ण इस श्लोक में मनुष्य के अंतर्मुखी होने के महत्व की ओर संकेत करते हैं।वास्तव में आत्मा में लीन हो जाना,आत्मा में ही संतुष्ट रहना और स्वयं ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 60

विचार सरिता सब कुछ अपने अनुसार नहीं होतागीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।न चास्य कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।3/18।।तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।3/19।।इसका अर्थ है,हे अर्जुन!उस (पूर्व श्लोक के आत्मा में ही रमण करने वाले) महापुरुष का इस संसार में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है,और न कर्म न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है।उसका सम्पूर्ण प्राणियों में किसी के साथ भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता है।अतः तू निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्म का अच्छी तरह आचरण कर,क्योंकि ऐसा मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। भगवान श्री कृष्ण ने एक ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 61

भाग 60 जीवन सूत्र 68 धरातल पर आधारित नेतृत्व स्थायीगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।स यत्प्रमाणं लोकस्तदनुवर्तते।।3/21।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन!श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसा ही अनुकरण करते हैं;वह पुरुष अपने कार्यों से जो कुछ स्थापित कर देता है,लोग भी उसका अनुसरण करते हैं। वास्तव में घर परिवार से लेकर शासन और समाज तक शीर्ष स्थान पर रहकर नेतृत्व करने वाले व्यक्ति के ऊपर एक बड़ी जिम्मेदारी होती है।वे जैसा करते हैं,अन्य लोग भी उनका अनुसरण करते हैं।ऐसे व्यक्ति अपने आचरण से लोगों के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। उनका ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 62

भाग 61 जीवन सूत्र 68 कर्मों से बंधे हैं भगवान भीगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-न मे पार्थास्ति त्रिषु लोकेषु किञ्चन।नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।(3/22)। इसका अर्थ है-हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है,तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ । भगवान कृष्ण भगवान विष्णु के अवतार हैं।वे मथुरा नरेश महाराज उग्रसेन के परिवार के हैं। प्रमुख सभासद वासुदेव जी के पुत्र हैं। द्वारिकाधीश हैं, तथापि आवश्यकतानुसार उन्होंने अपनी विभिन्न लीलाओं के माध्यम से यह बताने की कोशिश की,कि हर व्यक्ति को ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 63

भाग 62 जीवन सूत्र 70 बड़े आगे आकर करते हैं नेतृत्वयदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ अर्थ है:-हे पार्थ! अगर मैं सदैव सावधान होकर कर्तव्यकर्म न करूँ तो बड़ी हानि हो जाएगी; क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। भगवान कृष्ण के इन प्रेरक वचनों से हम 'मेरे ही मार्ग का अनुसरण' इन शब्दों को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। वास्तव में बड़े जैसा करते हैं छोटे उनका अनुसरण करते हैं, इसलिए बड़ों को एक आदर्श, प्रेरक, मार्गदर्शक व्यवहार करना ही होता है।धर्मयुद्ध में भगवान श्री कृष्ण अपनी भी ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 64

भाग 63 जीवन सूत्र 71,72 जीवन सूत्र 71 कर्म करते रहें नहीं तो करने होंगे समझौतेभगवान श्री कृष्ण ने में कहा है: -उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।3/24।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन!यदि मैं कर्म न करूँ,तो ये सारे मनुष्य नष्ट भ्रष्ट हो जाएंगे;और मैं वर्णसंकर का कर्ता तथा प्रजा को नष्ट करने वाला हो जाऊँगा।। पिछले श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं द्वारा कर्मों को निरंतर करते रहने की बात कही है।जीवन सूत्र 72 बड़े जो आचरण करते हैं,उसका अनुसरण छोटे करते हैंबड़े जो आचरण करते हैं,उसका अनुसरण छोटे करते हैं।भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं के ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 65

भाग 64 जीवन सूत्र 73 और 74जीवन सूत्र 73: सेवा के लिए आगे बढ़ने में उठाएं खतरेगीता में भगवान ने कहा है: -सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।3/25। इसका अर्थ है, हे भारत!कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म करते हैं वैसे ही विद्वान् पुरुष आसक्ति का त्यागकर लोकसंग्रह अर्थात जन कल्याण की इच्छा से कर्म करें। फल की तीव्र इच्छा से कार्य करने वाले व्यक्तियों में लक्ष्य प्राप्ति के लिए एक गहरा समर्पण होता है।श्री कृष्ण ने ऐसे व्यक्तियों को अज्ञानी कहा है।जिनके लक्ष्य केवल स्वार्थ केंद्रित,भोग के साधनों की प्राप्ति तथा आडंबर और यश लिप्सा तक सीमित हों,वे ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 66

जीवन सूत्र 75 ,76, 77 ,78 भाग 65 जीवन सूत्र 75 केवल उपदेश से दूसरों को ना सुधारेंगीता में श्रीकृष्ण ने कहा है: -न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन्।।3/26।।इसका अर्थ है,ज्ञानी पुरुष,कर्मों में आसक्त अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करे,स्वयं अपने कर्मों का अच्छी तरह आचरण कर,उनसे भी वैसा ही कराए। जो मनुष्य अभीष्ट फल और सिद्धि को ध्यान में रखकर कर्म करते हैं, उनकी उन कर्मों में आसक्ति हो जाती है।वास्तव में कर्मों को कर्तव्य और फल की इच्छा को त्याग कर किया जाना चाहिए।कर्मों को करने के लिए एक दिशा तो होनी चाहिए।जीवन सूत्र ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 67

जीवन सूत्र 79 & 80 भाग 66जीवन सूत्र 79: स्वयं के कर्ता होने का भ्रम न पालेंगीता में भगवान ने कहा है:-प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।(3.27)।इसका अर्थ है- वास्तव में संपूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं तो भी जिसका अंतःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूं' ऐसा मानता है। इस श्लोक से हम "कर्मों में कर्तापन के अभाव" इन शब्दों को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। कर्मों को लेकर आसक्ति से बंधने का एक प्रमुख कारण है कर्मों को लेकर स्वयं में कर्तापन का ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 68

भाग 67 जीवन सूत्र 81, 82, 83 81 मोह-माया के चक्रव्यूह से बाहर निकलने का मार्गगीता में भगवान श्रीकृष्ण कहा है: -तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।3/28।।इसका अर्थ है, हे महाबाहो ! गुण और कर्म के विभाग की वास्तविकता (तत्त्व)को जानने वाला ज्ञानी पुरुष यह जानकर कि "गुण ही गुणों में व्यवहार कर रहे हैं,"अभीष्ट कर्म में आसक्त नहीं होता। प्रकृति मूल रूप में सत्व,रजस्,रजस् तमस की साम्यावस्था है।बुद्धि संसार का पहला अविभाज्य तत्व है। इससे अहंकार (मैं पन) का चेतना के रूप में अगणित अहंकारों में विभाजन होता है।अहंकार से मन और ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 69

भाग 68 जीवन सूत्र 84 , 85जीवन सूत्र 84 :किसी को रोकने- टोकने के पहले रखें विकल्पगीता में भगवान ने कहा है:-प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।।3/29।। इसका अर्थ है,"प्रकृतिजन्य गुणोंसे अत्यन्त मोहित हुए अज्ञानी मनुष्य गुणों और कर्मों में आसक्त रहते हैं।उन पूर्णतया न जान पाने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जान लेने वाले ज्ञानी मनुष्य विचलित न करे।" इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण प्रकृति और माया के वशीभूत होकर कर्म करने वाले लोगों की स्थिति पर प्रकाश डालते हैं। अपनी समझ के अनुसार ऐसे लोग विशिष्ट फल और कामना के उद्देश्य से कर्मरत रहते हैं। उन्होंने विभिन्न ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 70

जीवन सूत्र 86,87,88 भाग 69जीवन सूत्र 86 :कर्तव्य पथ पर ईश्वर का अनुभव करें साथगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने है: -मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।3/30।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन! तू सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंको मेरे अर्पण करके,मुझ परमात्मा में अपना चित्त लगाए हुए कामना,ममता और दुख-रहित होकर युद्धरूपी कर्तव्य-कर्म को करो। आसन्न युद्ध में अपनी संपूर्ण शक्ति के साथ लगने के लिए भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कुछ मंत्र दिए हैं।अपने संपूर्ण कर्मों को ईश्वर को अर्पित कर देने का अर्थ है उन कर्मों को स्वयं कर्ता न मानते हुए ईश्वर की ओर से करने का भाव लाना। अर्थात ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 71

भाग 70 जीवन सूत्र 81,82 जीवन सूत्र 81:श्रद्धा का अर्थ अंधभक्ति नहीं भगवान श्री कृष्ण ने गीता कहा है: - ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः। श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः।।3/31।। इसका अर्थ है, हे अर्जुन!जो मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धा रखते हुए मेरे इस मत का सदा पालन करते हैं,वे कर्मों से(अर्थात कर्मों के बन्धन से)मुक्त हो जाते हैं। पूर्व के श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को जो मार्ग बताया है,उस पर श्रद्धा भक्ति पूर्वक चलने की आवश्यकता है।मनुष्य तार्किक होता है और अनेक तरह के तर्क-वितर्क में वह उलझा होता है। किसी व्यक्ति या ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 72

भाग 71 जीवन सूत्र 91 जीवन सूत्र 91: ज्ञान वह है जो उपयोगी है गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहा है, ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः।3/32। इसका अर्थ है,"हे अर्जुन!परन्तु जो मनुष्य मेरे इस मत में दोष-दृष्टि करते हुए इसका पालन नहीं करते, उन सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और मूर्ख मनुष्यों को नष्ट हुए ही समझो।" पूर्व के श्लोकों में बताया गया है कि भगवान के मत को मानने वाले अनुयायी अपने समस्त कर्म को उनको अर्पित करते हुए चलते हैं। एक ज्ञान अध्यात्मिक ज्ञान है, ईश्वर को जानने का प्रयत्न है तो दूसरा ज्ञान भौतिक ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 73

जीवन सूत्र 93,94,95:भाग 72जीवन सूत्र 93:अपनी प्रकृति को सकारात्मक मोड़ देंगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: -सदृशं चेष्टते प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।3/33।इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।3/34।।इसका अर्थ है: -भगवान कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन!सम्पूर्ण प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं। ज्ञानी महापुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा? प्रत्येक इन्द्रिय के विषय के प्रति मनुष्य के मन में रागद्वेष रहते हैं; मनुष्य को चाहिये कि वह उन दोनों के वश में न हो; क्योंकि वे आत्म कल्याण के मार्ग में मनुष्य के शत्रु हैं। भगवान ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 74

जीवन सूत्र 96, 97,98 भाग 73 जीवन सूत्र 96 अपने कार्य को विशिष्ट समझेंभगवान श्री कृष्ण ने गीता में है: -श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।3/35।।इसका अर्थ है - अच्छी तरह आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुणों की कमी वाला अपना धर्म श्रेष्ठ है।अपने धर्म में तो मरना भी श्रेयस्कर है और दूसरे का धर्म भयानक परिणाम को देने वाला है। अनेक बार हमें अपना दायित्व दूसरे की तुलना में अरुचिकर लगने लगता है। हम स्वयं के कार्य को कमतर आंकते हैं और दूसरे के कार्य को अपनाने की चेष्टा करते हैं।अर्जुन एक योद्धा थे ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 75

भाग 74 जीवन सूत्र 99 100 101 जीवन सूत्र 99:कामनाओं के पीछे भागना अर्थात अग्नि में जानबूझकर हाथ डालनाअर्जुन श्री कृष्ण से बाह्य प्रेरक व्यवहार के संबंध में प्रश्न किया-अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।3/36।।काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।3/37।।अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण !तब यह पुरुष बलपूर्वक बाध्य किए हुए के समान इच्छा न होने पर भी किसके द्वारा प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है?भगवान श्री कृष्ण ने कहा - रजोगुण में उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है।यह अत्यधिक खाने पर भी तृप्त नहीं होता है और महापापी है।इसे ही ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 76

भाग 75 जीवन सूत्र 102-103 जीवन सूत्र 102 :अज्ञानता की परतें हटाने हेतु आवश्यक है अभ्यासगीता में भगवान श्रीकृष्ण कहा है -धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च । यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।3/38।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन!जैसे धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढक जाता है। जैसे जेर से गर्भ ढका रहता है।उसी तरह उस काम के द्वारा यह ज्ञान भी ढका रहता है। इस श्लोक से हम ज्ञान और विवेक के बाहरी आवरण से ढके होने की संकल्पना को एक सूत्र के रूप में लेते हैं।ज्ञान की ज्योति से प्रत्येक मानव प्रकाशित हो सकता है।वहीं प्रत्येक व्यक्ति के अपने अनेक आवरण ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 77

जीवन सूत्र 104 105 106 भाग :76जीवन सूत्र 104: कामनाएं बनाती हैं हमें गुलामभगवान श्री कृष्ण ने गीता में है:-आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।(3.39)।इसका अर्थ है- हे कुंतीनंदन,इसअग्नि के समान कभी तृप्त न होनेवाले और विवेक रखने वाले मनुष्य के सदा शत्रु, इस काम के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है। काम अर्थात कामना अर्थात किसी अभीष्ट को व्यक्तिगत रूप से सिर्फ और सिर्फ स्वयं के लिए स्थाई रूप से प्राप्त कर लेने का भावबोध। यह मान लेना कि इसे प्राप्त करने पर हमें भारी सुख प्राप्त होगा।इसे लेकर इस सीमा तक प्राप्त करने की तीव्र ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 78

जीवन सूत्र 107-108 भाग 77जीवन सूत्र 107: मन और बुद्धि में हो तालमेलगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-इन्द्रियाणि बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।3/40।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन!इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इस काम के वास-स्थान कहे गए हैं।यह काम इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि के द्वारा ही ज्ञान को ढककर मनुष्य को मोहित करता है। भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम काम के निवास स्थान और उनकी उत्प्रेरक भूमिका के संकेत को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। वास्तव में मनुष्य की तीव्र कामनाएं इंद्रियां, मन और बुद्धि से संबंधित हैं। इन्हें कामनाओं का निवास स्थान भी कहा गया ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 79

जीवन सूत्र 109 110 111 भाग 78जीवन सूत्र 109: काम की उद्दंडता पर प्रहार आवश्यकगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने है -तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।3/41।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन! तू सबसे पहले इन्द्रियों को नियंत्रण में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करनेवाले महान् पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक नष्ट कर दो। पूर्व के श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने काम को मनुष्य की अज्ञानता और अविवेक का मूल कारण घोषित किया है,क्योंकि इस काम के कारण मनुष्य कई तरह की अवांछित इच्छाओं को पूरा करने के लिए तत्पर हो उठता है।इस काम के कारण ही उसके ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 80

जीवन सूत्र 112 113 भाग 79जीवन सूत्र 112: मन को वश में रखना आवश्यकगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा -एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।3/43।।इसका अर्थ है,हे महाबाहु !इस प्रकार बुद्धि से परे सूक्ष्म,शुद्ध,शक्तिशाली और श्रेष्ठ आत्मा के स्वरूप को जानकर और आत्म नियंत्रित बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके,तुम इस कठिनाई से जीते जा सकने वाले कामरूप शत्रु को मार डालो। गीता के तीसरे अध्याय के समापन श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने काम को नियंत्रित रखने और उसे परास्त करने के संबंध में आवश्यक निर्देश दिए हैं।पुराण ग्रंथों और साहित्य में काम ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 81

जीवन सूत्र 114 115 116 भाग 80भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है: -इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।विवस्वान् मनवे मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।4/1।।इसका अर्थ है,हे अर्जुन!मैंने इस अविनाशी योग को विवस्वान् (सूर्य)से कहा था।इसके बाद सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा।जीवन सूत्र 114 सूर्य की शक्ति को स्वयं में करें महसूस भगवान कृष्ण कहते हैं कि उन्होंने सबसे पहले इस योग को सूर्य देव से कहा था।यह हम सब जानते हैं कि सूर्य देव सृष्टि के प्रारंभ से ही विद्यमान है बल्कि यह कहना चाहिए कि सूर्य देव के साथ ही ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 82

जीवन सूत्र 117 योग के लिए निरंतर अभ्यास आवश्यकगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:- एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।स महता योगो नष्टः परन्तप।।4/2।। इसका अर्थ है,हे अर्जुन!इस प्रकार परम्परा से प्राप्त हुए इस योग को राजर्षियों ने जाना,किंतु हे परन्तप ! वह योग बहुत समय बीतने के बाद यहाँ इस लोक में नष्टप्राय हो गया। राजर्षि वे होते हैं जो राजकुल में जन्म लेते हैं लेकिन तत्वज्ञान प्राप्त करते हैं।ऋषि विश्वामित्र और राजा जनक को इसका श्रेष्ठ उदाहरण माना जा सकता है। विश्वामित्र जी ने तो अपने तप और तेज से इंद्रासन को भी हिला दिया था। राजा जनक ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 83

जीवन सूत्र 120 योग साधारण ज्ञान नहीं, एक रहस्य और साधनागीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है,स एवायं तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।4/3।।इसका अर्थ है,हे अर्जुन!तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए वही पुरातन योग आज मैंने तुझसे कहा है; क्योंकि यह बड़ा उत्तम रहस्य है। चौथे अध्याय के प्रारंभिक श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को योग विद्या के सृष्टि के प्रारंभ से होने की जानकारी दी जो, आगे बढ़ रही थी,लेकिन बीच में ही कहीं लुप्त हो गई थी। युद्ध प्रारंभ होने के पूर्व मन में संशय और भ्रम की ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 84

जीवन सूत्र 124 वर्तमान मानव देह हेतु अपने पूर्व जन्मों को दें धन्यवादभगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।4/4।।बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।4/5।। अर्जुन ने कहा -आपका जन्म तो अभी का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है;अतः आपने ही सृष्टि के प्रारंभ में सूर्यसे यह योग कहा था,इस बात को मैं कैसे समझूँ?श्री भगवान ने कहा-हे परन्तप अर्जुन! मेरे और तुम्हारे बहुत-से जन्म हो चुके हैं।उन सबको मैं जानता हूँ,पर तू नहीं जानता। पहले श्लोक में अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से यह ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 86

जीवन सूत्र 132 हर समय उपस्थित होने को तत्पर हैं ईश्वरभगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है -यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4/7।।परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।4/8।।इसका अर्थ है,हे भारत ! संसार में जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।साधुओं(सज्जनों) की रक्षा करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की भलीभाँति स्थापना करनेके लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ। पिछले श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से सृष्टि के प्रारंभ के समय ज्ञान के अस्तित्व ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 85

जीवन सूत्र 128 कल्पों के प्रारंभ में भी रहते हैं ईश्वर तत्वगीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:-अजोऽपि भूतानामीश्वरोऽपि सन्।प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।4/6।।इसका अर्थ है -मैं अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ। भगवान कृष्ण अर्जुन द्वारा उनके (भगवान कृष्ण के) कल्पों के प्रारंभ में भी उपस्थित रहने के संबंध में जिज्ञासा करने पर समाधान प्रस्तुत करते हैं। भगवान श्री कृष्ण को ईश्वर के रूप में अपने पूर्व जन्मों का ज्ञान है और अर्जुन को नहीं है। इस श्लोक में भगवान ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 87

जीवन सूत्र 136 ईश्वर को तत्व से जाने वाले का फिर जन्म नहीं होतागीता में भगवान श्री कृष्ण ने है-जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।4/9।।इसका अर्थ है,हे अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है,इस प्रकार जो पुरुष मुझे तत्त्व से जानता है,वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता;वह मुझे(ईश्वर को) ही प्राप्त होता है। गीता प्रेस के इस श्लोक के कूटपद के अनुसार ईश्वर को तत्व से जानने का अर्थ है- सर्वशक्तिमान सच्चिदानंदघन परमात्मा अविनाशी और सर्व भूतों के परम गति तथा परम आश्रय हैं।वे केवल धर्म की ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 88

जीवन सूत्र 140 आसक्ति क्रोध और डर ईश्वर प्राप्ति में बाधक गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है मन्मया मामुपाश्रिताः।बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।।4/10।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन,जिनके राग,भय और क्रोध समाप्त हो गए हैं,जो मुझ में ही तल्लीन हैं, जो मेरे ही आश्रित हैं,वे ज्ञान रूपी तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं। इस श्लोक में भगवान कृष्ण ने उन उपायों पर चर्चा की है,जिनसे कोई व्यक्ति ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।उन्होंने स्वयं कहा है कि अपनी आसक्ति,डर और क्रोध जैसी भावनाओं को दूर कर चुके अनेक साधक उन्हें अर्थात ईश्वर को प्राप्त ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 89

जीवन सूत्र 144 ज्ञान प्राप्ति में सहायक है ईश्वर के स्वरूप को जानने की चेष्टाकल गीता के दसवीं श्लोक ईश्वर के अभिमुख होने के लिए और उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए कुछ अर्हताओं की चर्चा की गई। श्री कृष्ण ने कहा कि जिनके राग,भय और क्रोध समाप्त हो गए हैं,जो मुझ में ही तल्लीन हैं, जो मेरे ही आश्रित हैं,वे ज्ञान रूपी तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।जीवन सूत्र 145 ईश्वर को प्राप्त करने संकल्प आवश्यक वास्तव में जो ईश्वर को प्राप्त करने के लिए अपनी कामनाओं, अतिरेक वस्तुओं और स्थिति को प्राप्त ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 90

जीवन सूत्र 149 जैसा सोचेंगे वैसा बनेंगेभगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।मम मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।4/11।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन!जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही कृपा करता हूँ; सभी मनुष्य सब प्रकार से,मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।जीवन सूत्र 150 ईश्वर के दरबार में नहीं है भेदभाव भगवान के दरबार में उनकी कृपा को लेकर कोई भेदभाव नहीं है। जिनके दृष्टि में भगवान एकमात्र सहारा हैं तो भगवान उसी तरह उनकी मदद करते हैं। मीरा के लिए "मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई" वाले कृष्ण हैं तो ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 91

जीवन सूत्र 154 आखिर श्रेयस्कर है ईश्वर का ही मार्गभगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-ये यथा मां तांस्तथैव भजाम्यहम्।मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।4/11।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन!जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही कृपा करता हूँ; सभी मनुष्य सब प्रकार से,मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।जीवन सूत्र 155 भगवान कृपा में नहीं करते भेदभाव ,मनुष्य ने बनाई है दीवारें भगवान के दरबार में उनकी कृपा को लेकर कोई भेदभाव नहीं है। जिनके दृष्टि में भगवान एकमात्र सहारा हैं तो भगवान उसी तरह उनकी मदद करते हैं। मीरा के लिए "मेरे तो गिरधर गोपाल ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 92

जीवन सूत्र 164 ईश्वर की प्राकृतिक न्याय व्यवस्था का करें आदरअध्याय 4 के ग्यारहवें श्लोक की पहली पंक्ति "जो जैसे भजते हैं,मैं उन पर वैसे ही कृपा करता हूँ",पर हमने पिछले आलेख में चर्चा की।दूसरी पंक्ति के अनुसार सभी मनुष्य सब प्रकार से,मेरे(ईश्वर के) ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। वास्तव में हम मनुष्य जाने- अनजाने एक प्राकृतिक न्याय व्यवस्था के अंतर्गत अपना- अपना कार्य कर रहे हैं। जीवन सूत्र 165 भक्तों को है ईश्वर को पुकारने का अधिकारकर्मक्षेत्र में जैसे परिस्थिति उत्पन्न होती है मनुष्य अपनी सूझबूझ अपने अनुभव और आवश्यकता होने पर ईश्वर को सहायता की पुकार ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 94

जीवन सूत्र 171 मनुष्य के गुणों के आधार पर उनके कर्म निर्धारितगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-चातुर्वर्ण्यं मया गुणकर्मविभागशः।तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4/13।।इसका अर्थ है,हे अर्जुन!मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों(ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र)की रचना की गई है।उस सृष्टि-रचना के प्रारंभ का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी(व्यय न होने वाले) को तू अकर्ता मान। भगवान श्री कृष्ण ने वर्ण व्यवस्था को गुण और कर्मों पर आधारित कहा है।स्पष्ट रूप से प्रारंभ में भारत की प्राचीन वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी। प्रारंभ में केवल एक ही वर्ण था।जीवन स्तोत्र 172 मूल रूप में एक ही ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 93

जीवन सूत्र 169 सांसारिक फल की प्राप्ति को लेकर की जाने वाली पूजा उत्तम नहीं गीता में भगवान श्री ने कहा है - काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।4/12।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन! संसार में कर्मों का फल चाहने वाले लोग देवताओं की पूजा किया करते हैं;क्योंकि इस मनुष्य लोक में कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि जल्दी मिल जाती है। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मों के फल की प्राप्ति के लिए देवताओं के पूजन और लोगों द्वारा इसके परिणामस्वरूप अभीष्ट सिद्धियों की प्राप्ति की चर्चा की है। वास्तव में संसार में ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 96

जीवन सूत्र 181 पूर्वजों के अच्छे कार्यों का करें स्मरणगीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है: -एवं ज्ञात्वा कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्।।4/15।।इसका अर्थ है,पूर्वकाल के मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक लोगों ने भी इस प्रकार समझकर कर्म किए हैं,अतः तू भी पूर्वजों के द्वारा हमेशा से किए जानेवाले कर्मों को उन्हीं का अनुसरण करते हुए कर।जीवन स्तोत्र 182 स्वयं के विशिष्ट कार्य करने का अहंकार छोड़ दें पूर्व के श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने मनुष्यों के लिए जिस अकर्तापन,आसक्ति के त्याग और कर्मों के फल में नहीं बंधने की बात कही है,इस सिद्धांत का ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 95

जीवन सूत्र 176 ईश्वर को कर्म नहीं बांधते, उनसे लें प्रेरणागीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है: -न कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।4/14।।इसका अर्थ है,हे अर्जुन!कर्म के फलों को प्राप्त करने और भोगने की मेरी इच्छा नहीं है।यही कारण है कि ये कर्म मुझे लिप्त नहीं करते। इस प्रकार मुझे जो(वास्तविक स्वरूप में)जानता है, वह भी कर्मों से नहीं बंधता है।जीवन सूत्र 177 आसक्ति और कर्तापन का त्याग कर्मों में तल्लीनता हेतु आवश्यक वास्तव में ईश्वर सभी तरह के द्वंद्वों से परे हैं।सभी तरह के कारण- कार्यों के स्रोत होने के कारण ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 97

जीवन सूत्र 186 निश्चित लक्ष्य के साथ किए जाने वाले कार्य ' कर्म 'गीता में भगवान श्री कृष्ण ने है -किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।4/16।।इसका अर्थ है,(हे अर्जुन!)कर्म क्या है और अकर्म क्या है,इस पर विचार कर निर्णय लेने में बुद्धिमान मनुष्य भी मोहित हो जाते हैं।अतः वह कर्म-तत्त्व मैं तुम्हें भलीभाँति कहूँगा,जिसको जानकर तू अशुभ(अर्थात इस संसार के कर्म बन्धन)से मुक्त हो जाएगा। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मों को संपन्न करने के समय आने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों पर चर्चा की है। जीवन सूत्र 187 बिना आसक्ति और फल की कामना के किए ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 98

जीवन सूत्र 191 नित्य कर्म शरीर ही नहीं आत्म शुद्धि हेतु भी आवश्यकगीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन कहा है:-कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।4/17।।इसका अर्थ है कि कर्म का स्वरूप जानना चाहिए और विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा अकर्म का भी स्वरूप जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति अत्यंत गूढ़ और गहन है। कर्म जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। ग्रंथों के अनुसार मुख्य रूप से कर्मों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-नित्य कर्म,नैमित्तिक कर्म और काम्य कर्म।प्रातः काल से लेकर दिनभर और फिर रात्रि व्यतीत होने के ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 99

जीवन सूत्र 196 कर्मों में सात्विकता लाकर उसे बनाएं अकर्म गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा -कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।4/18।इसका अर्थ है,जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है(कर्म में संलग्न होते हुए भी योगी भाव है)और जो अकर्म में कर्म देखता है,वह मनुष्यों में बुद्धिमान् है,योगी है और सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है। पिछले आलेख में हमने नित्य कर्म,नैमित्तिक कर्म और काम्य कर्म की चर्चा की। जीवन सूत्र 197 लक्ष्य का सर्वथा त्याग अनुचितवास्तव में कर्म करने के समय यह असंभव है कि बिना कोई लक्ष्य या उद्देश्य ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 100

जीवन सूत्र 201 कर्मों से निर्लिप्त रहने वाला कर्मबंधन से अलग ही रहता है गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहा है:-त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः।।4/20।।इसका अर्थ है,जो व्यक्ति कर्म और उसके फल की आसक्ति का त्याग करके संसार में किसी के आश्रय से रहित और सदा तृप्त(संतुष्ट) है,वह गहराई से कर्मों को करता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता है।जीवन सूत्र 202 जल में कमल के पत्ते की तरह रहें आसक्ति रहित कर्मों को करते हुए भी जल में कमल की भांति जल से अर्थात कर्मों के प्रभाव से निर्लिप्त रह पाना अत्यंत ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 101

जीवन सूत्र 206 कर्मयोगी होता है ईर्ष्या और द्वंद्व से परेगीता में भगवान श्री कृष्ण ने महान योद्धा अर्जुन कहा है: -यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।4/22।।इसका अर्थ है, जो(कर्मयोगी)फल की इच्छा के बिना,(कार्यक्षेत्र में) जो कुछ मिल जाए,उसमें संतुष्ट रहता है।जो ईर्ष्या से रहित,द्वन्द्वों से परे तथा सिद्धि और असिद्धि में सम है,वह समान भाव रखने वाला व्यक्ति कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता। भगवान श्री कृष्ण ने कर्मयोगी के गुणों के संबंध में चर्चा करते हुए उसे अत्यंत संतोषी स्वभाव का बताया है। कर्म करते चलें। जो मिल जाए,वह ठीक और जो हमारे पात्र ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 102

जीवन सूत्र 211 मोह का बंधन अदृश्य लेकिन मजबूत होता है गीता में भगवान श्री कृष्ण ने वीर अर्जुन कहा है:-गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।।4/23।। इसका अर्थ है,जिसने आसक्ति को त्याग दिया है,जो मोह से मुक्त है,जिसका चित्त ज्ञान में स्थित है,यज्ञ के उद्देश्य से कर्म करने वाले ऐसे मनुष्य के कर्म समस्त विपरीत प्रभावों से मुक्त रहते हैं। कर्मों के सटीक होने, विपरीत प्रभावों से मुक्त रहने और सात्विक होने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने आसक्ति के त्याग की बात कही है। मोह के अदृश्य लेकिन मजबूत बंधन से मुक्त रहने की बात कही है।जीवन सूत्र ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 103

जीवन सूत्र 216 भगवान की बनाई इस सृष्टि में सब कुछ ब्रह्मयुक्त हैगीता में भगवान श्री कृष्ण ने वीर से कहा है:-ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।4/24।। इसका अर्थ है,जिस यज्ञ में अर्पण भी ब्रह्म है, हवी(हवन में डाली जाने वाली सामग्री) भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति देने की क्रिया भी ब्रह्म है,अर्थात जिस मनुष्य की ब्रह्म में ही कर्म-समाधि हो गई है,तो (निश्चय ही) उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य फल भी ब्रह्म ही है। भगवान की बनाई इस सृष्टि में सब कुछ ब्रह्मयुक्त है।चंद्र तारों से लेकर सूक्ष्मदर्शी से ही दिखाई ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 104

जीवन सूत्र 221 जहां परोपकार भावना है वहां है यज्ञ गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा -दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।।4/25।।इसका अर्थ है,अन्य योगी लोग देवताओं की पूजन वाले यज्ञ का ही अनुष्ठान करते हैं और दूसरे योगी लोग ब्रह्मरूप अग्नि में ज्ञानरूपी यज्ञ के द्वारा अपनी आत्मा को परमात्मा को समर्पित कर हवन करते हैं।जीवन सूत्र 222 यज्ञ का आयोजन लोक कल्याण के निमित्त किया जाता है मनुष्य की वैयक्तिक पूजा उपासना के साथ-साथ उसके द्वारा यज्ञ का आयोजन लोक कल्याण के निमित्त किया जाता है।यज्ञ में परोपकार भाव होता है इसलिए परिवार के ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 105

जीवन सूत्र 226 विषयों का इंद्रिय संयम रूपी अग्नि में हो हवनभगवान श्री कृष्ण ने गीता उपदेश में अर्जुन कहा है:-श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति।।4/26।। इसका अर्थ है,अन्य (योगीजन) श्रवण आदि सब इन्द्रियों को संयमरूप अग्नि में हवन करते हैं और अन्य लोग शब्दादिक विषयों को इन्द्रियरूप अग्नि में हवन करते हैं। इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने इंद्रियों का संयम करने वाले साधकों और इंद्रियों से विभिन्न कार्य संपादित करने वाले साधकों; दोनों प्रकार के मनुष्यों के लिए मार्गदर्शन किया है।मनुष्य की पांच ज्ञानेंद्रियां हैं- श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण।ये अपने विषयों क्रमशः शब्द, स्पर्श,रूप रस ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 106

जीवन सूत्र 236 यज्ञ भी सहायक है कर्म बंधनों से मुक्ति में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से गीता कहा है:-एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।।4/32।।इसका अर्थ है,इस प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गए हैं।उन सब यज्ञों को तू कर्मों से संपन्न होने वाला जान।इस प्रकार जानकर यज्ञ करने से तू कर्मबन्धन से मुक्त हो जाएगा। इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने यज्ञ के विभिन्न प्रकारों की ओर संकेत करते हुए कहा है कि इन्हें विधि पूर्वक किए जाने से मनुष्य सांसारिक बंधनों से मुक्त हो ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 107

जीवन सूत्र 241 संपूर्ण कर्म ईश्वर के स्वरूप ज्ञान को प्राप्त करने में सहायकभगवान श्री कृष्ण ने गीता में से कहा है: -श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।।4/33।इसका अर्थ है,हे परन्तप अर्जुन ! द्रव्यों से सम्पन्न होने वाले यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। हे पार्थ !सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त होते हैं(ज्ञान का बोध उनका उत्कर्ष बिंदु है)।जीवन सूत्र 242 मार्ग अनेक लेकिन एक दृढ़ निश्चय ईश्वर के पथ में मनुष्य भौतिक सुख-सुविधाओं और साधनों की प्राप्ति के लिए द्रव्य यज्ञ करता है। अनेक तरह की पूजा उपासना पद्धति,अनुष्ठान आदि का सहारा लेता है।श्री कृष्ण अर्जुन के सामने ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 108

जीवन सूत्र 246 गुरु सेवा है महत्वपूर्ण, संपूर्ण समर्पण की दृष्टि विकसित करने में सहायकभगवान श्री कृष्ण ने गीता में वीर अर्जुन से कहा है: -तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4/34।।इसका अर्थ है,उस तत्त्वज्ञान को तत्त्वदर्शी ज्ञानी गुरुओं,महापुरुषों के समीप जाकर समझो। उनको साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम करने से,उनकी सेवा करने से और कपट के बदले सरलता पूर्वक प्रश्न करनेसे वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुष तुम्हें उस तत्त्वज्ञान से अवगत कराएंगे। भगवान श्री कृष्ण ने इस उपदेश में अर्जुन से तत्वज्ञान और ज्ञानी मनुष्यों के महत्व पर बल दिया है।तत्व ज्ञान वह यथार्थ ज्ञान है, जो मनुष्य के सारे प्रश्नों ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 109

जीवन सूत्र 231 योगी आत्म संयम योग की अग्नि में कार्यों को शुद्ध करता है गीता में भगवान श्री ने अर्जुन से कहा है -सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते।।4/27।।इसका अर्थ है,हे अर्जुन!अन्य योगीजन सम्पूर्ण इन्द्रियों के तथा प्राणों के कर्मों को ज्ञान से प्रकाशित आत्मसंयम योग की अग्नि में हवन करते हैं। जिस तरह अग्नि को समर्पित कर देने से चीजें शुद्ध पवित्र हो जाती हैं।उसके दोष दूर हो जाते हैं। उसी तरह योगी अपने संपूर्ण कार्यों को चाहे वह विभिन्न ज्ञानेंद्रियों से संपन्न हो रहा हो या कर्मेंद्रियों से,इन सबको आत्म संयम रूपी यज्ञ की सहायता से योग ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 110

जीवन सूत्र 251 सब में ईश्वर को देखेंभगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा है:-यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं पाण्डव।येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।4/35।।इसका अर्थ है,इस (तत्त्वज्ञान)का अनुभव करनेके बाद तू फिर इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा,और हे अर्जुन!इससे तू सम्पूर्ण प्राणियोंको निःशेषभाव से पहले स्वयं में और उसके बाद मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में देखेगा। जीव तब तक मोह, माया और आसक्ति से बंधा रहता है,जब तक वह चीजों पर अपना अधिकार भाव समझता है।वह यह मानता है कि यह चीज उसकी है और उसके पास होनी चाहिए और अगर वह संतुष्ट हो गया, तब भले दूसरों को ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 111

जीवन सूत्र 256 ज्ञान नौका से पाप समुद्र को पार करना सहज गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन कहा है -अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि।।4/36।। इसका अर्थ है,यदि तू पाप करने वाले सभी पापियों से अधिक पाप करने वाला है तो भी ज्ञानरूप नौका द्वारा पापरूप समुद्र से अच्छी तरह पार उतर जाएगा। भक्तों के जीवन में ज्ञान के उदय के साथ ही चमत्कार होता है।भगवान श्रीकृष्ण ने सबसे अधिक पापियों के पाप से भी अधिक पाप हो जाने की स्थिति में ज्ञान मार्ग(तत्व ज्ञान) के माध्यम से जीवन में पूर्व में हो चुके पाप ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 112

जीवन सूत्र 261 ज्ञान नोखा के संचालन के लिए बुद्धि आवश्यकचौथे अध्याय के 36 वें श्लोक में भगवान श्री द्वारा अर्जुन को ज्ञान नौका के संबंध में दिया गया निर्देश है। ज्ञान चर्चा में आचार्य सत्यव्रत विवेक से ज्ञान नौका की पात्रता के लिए बुद्धि के उचित प्रयोग और निरंतर अभ्यास की आवश्यकता पर बल दे रहे हैं।जिज्ञासा को आगे बढ़ाते हुए विवेक ने अगला प्रश्न किया।विवेक :गुरुदेव,लेकिन प्रारब्ध से मिले थोड़े भी पुण्य के सहारे अगर ऐसी कोई ज्ञान नौका किसी को मिल जाए तो भी क्या उनके सारे पूर्व पाप कर्म क्षमा करने योग्य हो सकते हैं? ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 113

जीवन सूत्र 264 क्रियमाण कर्म - हमारे वर्तमान कार्य एवं उसके फल भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा -यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।4/37।।इसका अर्थ है,हे अर्जुन!जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों (के फल)को सर्वथा भस्म कर देती है। इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने संपूर्ण कर्मों के फल के ज्ञान की अग्नि में भस्म हो जाने की बात कही है।वास्तव में कर्मों के फल ही हमारी आसक्ति और बंधन का कारण बनते हैं। अगर कर्म करते समय आसक्ति और कर्तापन का त्याग हो गया तो फिर ये ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 114

जीवन सूत्र 266 ज्ञान संसार की पवित्रतम वस्तुभगवान श्री कृष्ण ने गीता उपदेश में अर्जुन से कहा है: -न ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।4/38।इसका अर्थ है, इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला,नि:संदेह कुछ भी नहीं है। कर्मयोग का अभ्यास करने वाला व्यक्ति इस ज्ञान को स्वयं ही समय के अनुसार आत्मा में प्राप्त कर लेता है।जीवन सूत्र 267 ज्ञानी का पुनर्जन्म नहीं होता भगवान श्री कृष्ण ने ज्ञान को संसार की पवित्रतम वस्तु कहा है। ज्ञान की महत्ता बताते हुए महाभारत के शांति पर्व में महर्षि वेदव्यास ने लिखा है कि जैसे आग ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 115

जीवन सूत्र 271 श्रद्धा जाग्रत करना भी एक साधनागीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है:- श्रद्धावाँल्लभते तत्परः संयतेन्द्रियः।ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।4/39।। इसका अर्थ है,जो (ईश्वर में) श्रद्धा रखने वाला मनुष्य जितेन्द्रिय तथा (कर्मों में) तत्पर है,वह ज्ञानको प्राप्त होता है और ज्ञान को प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है। हमारे मन में श्रद्धा का उत्पन्न होना अत्यंत कठिन है।मन तार्किक है वह अनेक बातों को ठोक बजाकर परख लेना चाहता है।उसके बाद ही मन में श्रद्धा उत्पन्न होती है।आज के युग में बहुत कम ऐसा अवसर आता है जब कोई कसौटी ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 116

जीवन सूत्र 276 अज्ञानी और श्रद्धा रहित मनुष्य के लिए कहीं सुख नहींभगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन कहा है: -अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।4/40।।इसका अर्थ है,अज्ञानी तथा श्रद्धारहित और मन में संशय रखने वाले व्यक्ति का पतन हो जाता है,वहीं संशयी रखने वाले मनुष्य के लिए न यह लोक है,न परलोक है और न कोई सुख है।जीवन सूत्र 277 अज्ञात आशंकाओं में विचरण न करें मनुष्य का मन अज्ञात आशंकाओं में जीता रहता है।अज्ञानी व्यक्ति का तात्पर्य अशिक्षित होने से नहीं है। वास्तव में अनेक बार औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाने वाले ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 117

जीवन सूत्र 281 कर्मों के संतुलन में योग सहायक गीता में भगवान श्री कृष्ण ने वीर योद्धा अर्जुन से है -योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।4/41।।इसका अर्थ है,हे धनञ्जय !योग के संतुलन के द्वारा जिसका सम्पूर्ण कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है और ज्ञान के द्वारा जिसके सारे संशयों का नाश हो गया है,ऐसे आत्मवान् पुरुष को कर्म नहीं बाँधते।जीवन सूत्र 282 कर्म करते रहें,आगे अनायास कर्म होने लगेंगे अपने कार्यों को करते हुए एक ऐसी समता की स्थिति निर्मित होती है,जहां कर्म अनायास होने लगते हैं।जब कर्मों को लेकर किसी तरह के दबाव और तनाव का अनुभव नहीं ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 118

जीवन सूत्र 286 कर्म क्षेत्र में उतरने से पूर्व सभी दुविधाओं का निवारण आवश्यकगीता में भगवान श्री कृष्ण ने है: -तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।4/42। इसका अर्थ है, हे भरतवंशी अर्जुन ! हृदयमें स्थित इस अज्ञान से उत्पन्न अपने संशय को ज्ञान खड्ग से काटकर योग में स्थित हो जाओ और युद्ध के लिए खड़े हो जाओ।जीवन सूत्र 287 अतिरेक चेष्टा का त्याग आवश्यक यह श्लोक ज्ञान कर्म संन्यास योग नामक चतुर्थ अध्याय का समापन श्लोक है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान के महत्व और कर्मों से संन्यास अर्थात कर्मों के संतुलित होने और अतिरेक चेष्टाओं ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 119

जीवन सूत्र 291 कर्म योग और कर्म संन्यास दोनों महत्वपूर्णगीता में भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख अपनी जिज्ञासा रखते हुए ने कहा -सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।5/1।अर्जुन बोले- हे श्री कृष्ण!आप कर्मोंके संन्यास की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं।इन दोनों में से जो मेरे लिए श्रेष्ठ साधन हो, उस को निश्चितरुप से कहिए।श्री कृष्ण ने उत्तर दिया: -संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।5/2।भगवान ने कहा कि कर्म संन्यास और कर्मयोग दोनों मार्ग परम लक्ष्य की ओर ले जाते हैं,लेकिन कर्मयोग कर्म संन्यास से श्रेष्ठ है। जब साधक के सामने कर्म संन्यास और ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 120

जीवन सूत्र 296 राग द्वेष से परे रहना आवश्यक गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है: स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।5/3।।इसका अर्थ है,हे महाबाहो !जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा,वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है; क्योंकि, द्वन्द्वों से रहित व्यक्ति सहज ही सुखपूर्वक संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है। भारतीय ज्ञान और दर्शन परंपरा में संन्यास को एक अत्यंत कठिन साधना माना जाता है। मनुष्य इस साधना पथ का अनुसरण करने के लिए गृह त्याग करता है। गुरु के पास ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 121

जीवन सूत्र 301 सभी रास्ते एक ईश्वर तक जाते हैंगीता में भगवान श्री कृष्ण ने वीर योद्धा अर्जुन से है:-सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।5/4।।इसका अर्थ है, अज्ञानी लोग सांख्ययोग और कर्मयोगको अलग-अलग फल प्रदान करने वाले कहते हैं, न कि पण्डितजन; क्योंकि इन दोनों में से किसी एक माध्यम में भी अच्छी तरहसे स्थित मनुष्य दोनों के फलरूप में परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। गीता के प्रारंभिक अध्याय में ज्ञान और कर्म की अवधारणा पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है और इस पांचवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग की श्रेष्ठता के संबंध में अपना ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 122

जीवन सूत्र 306 आत्म साक्षात्कार हो जीवन का लक्ष्य गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है:-यत्सांख्यै: स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।एकं सांख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति।।5/5।।इसका अर्थ है,ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है,कर्मयोगियों द्वारा भी वहीं प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञान योग और कर्मयोग को फलस्वरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है। इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने पुनः स्पष्ट किया है कि ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग दोनों का अंतिम लक्ष्य उस ईश्वर को प्राप्त करना है,जो सृष्टि के प्रारंभ से लेकर सभी मनुष्यों के ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 123

जीवन सूत्र 311 आनंद अनुभूति का विषय मापन का नहींपांचवें अध्याय के पांचवे श्लोक का अर्थ बताते हुए आचार्य साधारण मनुष्य के जीवन में ईश्वर तत्व की अनुभूति के विषय में विवेक की जिज्ञासाओं का समाधान कर रहे हैं। ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है,कर्मयोगियों द्वारा भी वहीं प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञान योग और कर्मयोग को फलस्वरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है। श्लोक के इस मूल अर्थ के विस्तार में जाते हुए विवेक ने अगला प्रश्न किया।विवेक: गुरुदेव अगर हमें कर्म करते समय केवल ईश्वर को ध्यान में रखने और ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 124

जीवन सूत्र 312 अच्छे कर्म करें फिर बुरे कर्म का त्याग हो जाएगा आवश्यकगीता में भगवान श्री कृष्ण ने से कहा है: -संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।5/6। इसका अर्थ है,परन्तु हे महाबाहो!कर्मयोग के बिना संन्यास सिद्ध होना कठिन है।भगवान की प्रार्थना और भक्ति में मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही परब्रह्म परमात्मा के आशीर्वाद और कृपा को प्राप्त हो जाता है। कर्म योग की महत्ता प्रतिपादित करते हुए भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि कर्म किए बिना उन कर्मों के त्याग का प्रश्न ही नहीं है,जो मानव के आध्यात्मिक मार्ग में बाधक हैं।योगी की असली परीक्षा जीवन के पथरीले ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 125

जीवन सूत्र 316 शुद्ध अंतःकरण के साथ अन्य से एकात्म का करें अनुभवगीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन कहा है: -योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।5/7।। इसका अर्थ है, हे अर्जुन!जिसकी इन्द्रियाँ उसके वशमें हैं,जिसका अन्तःकरण शुद्ध है,और जो सभी प्राणियों की आत्मा के साथ एकात्म का अनुभव करता है,ऐसा कर्मयोगी कर्म करते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता। इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने कर्म करते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होने की बात की है। प्रथम दृष्टया तो यह अत्यंत कठिन स्थिति है।हम काम भी करें और उस में लिप्त न रहें।ऐसे में यह ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 126

जीवन सूत्र 321 कार्य करते हुए भी उससे अप्रभावित रहना गीता में भगवान श्री कृष्ण ने वीर अर्जुन से है: -नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् । पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ।5/8। प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।5/9। इसका अर्थ है:- हे अर्जुन!तत्त्वको जाननेवाला योगी तो देखता हुआ,सुनता हुआ,स्पर्श करता हुआ,सूँघता हुआ,भोजन करता हुआ,गमन करता हुआ,सोता हुआ,श्वास लेता हुआ,बोलता हुआ,त्यागता हुआ,ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और बंद करता हुआ भी यही मानता है कि मैं कुछ भी नहीं करता बल्कि ये सब इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में व्यवहार कर रही हैं।जीवन सूत्र 322 कर्तापन का करें त्याग भगवान श्री कृष्ण ने ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 127

जीवन सूत्र 326 संसार में रहकर भी बुराइयों से रहे अप्रभावित गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने वीर अर्जुन से है:-ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।5/10।। इसका अर्थ है,"हे अर्जुन!जो सब कर्मों को ईश्वर में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है,वह व्यक्ति कमल के पत्ते की तरह जल में रहकर भी उससे लिप्त नहीं होता,वैसे ही मनुष्य पापोंसे लिप्त नहीं होता।" इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने संसार में रहते हुए भी संसार की बुराइयों से लिप्त नहीं होने के लिए कमल के पत्ते का उदाहरण दिया है।मनुष्य को संसार में रहकर ही ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 128

जीवन सूत्र 331 कर्म का उद्देश्य आत्म शुद्धि भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है: -कायेन मनसा बुद्ध्या कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये।।5/11।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन!कर्मयोगी शरीर,मन, बुद्धि और इंद्रियों के द्वारा आसक्ति को त्याग कर आत्मशुद्धि (चित्त की निर्मलता) के लिए कर्म करते हैं। मनुष्य प्रातः नींद से जागने के बाद से रात्रि में दोबारा निद्रा के अधीन होने तक निरंतर कर्मरत रहता है।वह एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता है।उसका श्वास लेना भी कर्म है। चलना कर्म है। उठना कर्म है। बैठना कर्म है और विश्राम करना भी कर्म है।कर्मों का ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 129

जीवन सूत्र 336 कर्म का त्याग करें तो चिंतन भी ना करेंभगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन से है: -युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।5/12।।इसका अर्थ है,कर्मयोगी कर्मफलका त्याग करके ईश्वर से योग रूपी शान्ति को प्राप्त होता है।कामनाओं की इच्छा से काम करने वाला मनुष्य फल में आसक्त होकर बँध जाता है। कर्म करने वाले दो तरह के होते हैं।एक ओर कर्मयोगी होता है, जो कर्मों के फल की प्राप्ति की भावना का त्याग करते हुए कार्य करता है। वह न केवल भोग के साधनों का त्याग करता है,बल्कि उसके मन में भी उस ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 130

जीवन सूत्र 341 नौ द्वारों वाला यह शरीरगीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है:-सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते वशी।नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।5/13।।इसका अर्थ है,जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ और मन वश में हैं,ऐसा देहधारी संयमी व्यक्ति नौ द्वारों वाले शरीररूपी नगर में सम्पूर्ण कर्मों का मन से त्याग करके अपने आनंदपूर्ण परमात्मा स्वरूपमें स्थित रहता है। शरीर के 9 द्वार हैं: -दो आँख, दो कान, दो नाक, दो गुप्तेंद्रियाँ, और एक मुख।एक मान्यता है कि दसवां द्वार ब्रह्मरंध्र से होते हुए सिर के शिखा क्षेत्र में है।सूत्र 342 दसवां द्वार है ईश्वर का इस दसवें द्वार के ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 131

जीवन सूत्र 346 मनुष्य के स्वभाव पर निर्भर हैं कर्मों की प्रकृतिगीता में भगवान श्री कृष्ण ने वीर अर्जुन कहा है: -न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।5/14।।इसका अर्थ है,ईश्वर मनुष्यों के न कर्तापनकी,न कर्मोंकी और न कर्मफल के संयोग की रचना करते हैं; किन्तु मनुष्य द्वारा स्वभाव(प्रकृति)से ही आचरण किया जा रहा है। इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण उन कारणों पर प्रकाश डाल रहे हैं,जिनके वशीभूत होकर मनुष्य अपने कार्यों को करता है।ईश्वर स्वयं शक्ति संपन्न और समर्थ होने के बाद भी संसार संचालन की प्राकृतिक व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते हैं।भगवान अपने ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 132

जीवन सूत्र 351 बुद्धि को ईश्वर में स्थिर करना आवश्यकगीता में भगवान श्री कृष्ण ने वीर अर्जुन से कहा -न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।5/14।।इसका अर्थ है,ईश्वर मनुष्यों के न कर्तापनकी,न कर्मोंकी और न कर्मफल के संयोग की रचना करते हैं; किन्तु मनुष्य द्वारा स्वभाव(प्रकृति)से ही आचरण किया जा रहा है। इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण उन कारणों पर प्रकाश डाल रहे हैं,जिनके वशीभूत होकर मनुष्य अपने कार्यों को करता है।ईश्वर स्वयं शक्ति संपन्न और समर्थ होने के बाद भी संसार संचालन की प्राकृतिक व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते हैं।भगवान अपने आदेश से ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 133

जीवन सूत्र 356 सभी लोगों में उस ईश्वर को देखने का कार्यजीवन सूत्र 356 सभी लोगों में उस ईश्वर देखने का कार्य भगवान श्री कृष्ण ने गीता में वीर अर्जुन से कहा है:-विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।5/18।।इसका अर्थ है,ज्ञानी महापुरुष विद्या और विनम्र व्यवहार वाले ब्राह्मण में,गाय,हाथी;कुत्ते एवं मृत्यु पश्चात अंतिम संस्कार कर्म में सहायता करने में सेवारत व्यक्ति में भी समान रूप से ईश्वर को देखने वाले होते हैं। ज्ञानी व्यक्ति समदर्शी होता है। उसके मन में किसी भी तरह से भेद नहीं होता।उसका व्यवहार राजा से हो,तब भी वही और एक आम नागरिक ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 134

जीवन सूत्र 361 परमात्मा में स्थिरता का अभ्यासभगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा है: -इहैव तैर्जितः येषां साम्ये स्थितं मनः।निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।5/19।।इसका अर्थ है,जिनका अन्तःकरण समता में स्थित है,उन्होंने इस जीवन में सम्पूर्ण सृष्टि को जीत लिया है;परमात्मा निर्दोष और सम है, इसलिए वे परमात्मा में ही स्थित हैं। भगवान कृष्ण ने इस श्लोक में समत्वभाव पर बल दिया है।इस भाव की पहली कसौटी समदर्शी होने में है,जहां इस संसार में जिन-जिन लोगों से हमारा सामना होता है,उन सब के प्रति हम बिना पूर्वाग्रह के समान व्यवहार कर सकें।जीवन सूत्र 362 अकारण ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 135

जीवन सूत्र 366 खुशी में संयमित और दुख में संतुलित रहेंगीता में भगवान श्री कृष्ण ने वीर अर्जुन से है:- न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः।(5/20)।इसका अर्थ है:-जो प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं होता और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न नहीं होता,वह स्थिरबुद्धि,संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है । भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी में स्थितप्रज्ञ मनुष्य का एक महत्वपूर्ण लक्षण बताया गया है।जीवन सूत्र 367 मोह माया से परे रहेंवह मोह और माया से परे होता है।अब इसका अर्थ यह नहीं है कि उसके भीतर संवेदना नहीं होगी और वह निष्ठुर ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 136

जीवन सूत्र 371 यह धारणा गलत कि सुख हमारे अनुकूल होता है और दुख प्रतिकूल अर्जुन के प्रश्नों का देते हुए भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि न सुख स्थाई है,न दुख स्थाई है।हम इन सुखों और दुखों को अपने अनुकूल और प्रतिकूल मानकर व्यवहार कर बैठते हैं। इन्हें देख कर मन में स्वाभाविक संवेग उत्पन्न होने पर भी बहुत जल्दी ही संतुलन स्थापित कर अपने कार्य को आगे संचालित करना आवश्यक होता है। हमारे सुख और दुखों का निर्धारण हम स्वयं नहीं करते, बल्कि बाह्य परिस्थितियों को हमने इनका कर्ताधर्ता मान लिया है।जीवन सूत्र 372 आत्मा की अनुभूति ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 138

जीवन सूत्र 381 इंद्रियों और विषयों के संयोग से बनने वाले सुख अस्थाईभगवान श्री कृष्ण और जिज्ञासु अर्जुन की जारी है।जो इन्द्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होने वाले भोग(सुख) हैं,वे आदि-अंत वाले और दुःख के ही कारण हैं।(22 वें श्लोक के बाद आगे का वार्तालाप) जिन चीजों को मनुष्य सुख मानता है,वे विषयों और इंद्रियों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। जब हमारे मन में सुखों की प्राप्ति के लिए तीव्र चाह उत्पन्न होती है तो यह कामना हमारे सारे कार्यों की दिशा को उसी कामना की प्राप्ति की ओर मोड़ देती है।जीवन सूत्र 382 कामना प्रभावित ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 137

जीवन सूत्र 376 भीतर के सुख की खोज (21 वें श्लोक से आगे का वार्तालाप) बाह्य सुखों में आसक्ति निषेध कर उसे अंतः सुख की ओर मोड़ने की चर्चा करने के बाद भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से उन सुखों का विश्लेषण प्रारंभ करते हैं जो वास्तव में आनंद के नहीं बल्कि भोग के स्रोत हैं:-ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।5/22।।इसका अर्थ है,क्योंकि हे कुंतीनंदन !जो इन्द्रियों और विषयोंके संयोग से पैदा होनेवाले भोग (सुख) हैं, वे आदि-अंत वाले और दुःख के ही कारण हैं। अतः बुद्धिमान मनुष्य उनमें लिप्त नहीं होता।जीवन सूत्र 377 ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 139

जीवन सूत्र 386 आवेंगों को सह जाने वाला योगी भगवान श्री कृष्ण और जिज्ञासु अर्जुन की चर्चा जारी है।इस में जो कोई (मनुष्य) शरीर के समापन से पहले ही काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ होता है,वह मनुष्य योगी है और वही सुखी है।(23 वें श्लोक के बाद आगे का वार्तालाप)जीवन सूत्र 392 परमात्मा सर्वोत्तम मित्र सुख प्राप्ति के लिए यहां-वहां भटकने के स्थान पर आत्ममुखी होने और अपनी आत्मा में विराजमान उस परम आत्मा की प्रकृति को अनुभूत करने और उसके आनंद में डूबने का निर्देश देते हुए भगवान श्री कृष्ण ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 140

जीवन सूत्र 396 परमात्मा को समर्पित व्यक्ति के कार्यों का विस्तार पूरी मानवता तक भगवान श्री कृष्ण और जिज्ञासु की चर्चा जारी है।जो केवल परमात्मा में ज्ञान रखने वाला है,वह योगी ब्रह्मरूप बनकर परम मोक्ष को प्राप्त होता है।(24 वें श्लोक के बाद आगे का वार्तालाप) परमात्मा को समर्पित व्यक्तियों के ध्येय,कर्म,गति और चिंतन सभी में परमात्मा होते हैं। ऐसा व्यक्ति स्वयं तक सीमित नहीं रह सकता है।वह अपने कार्यों का विस्तार मानवता के कल्याण हेतु करता है। इसे और स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण महायोद्धा अर्जुन से कहते हैं: -लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।5/25।। हे अर्जुन!(जिनका ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 141

जीवन सूत्र 401 सार्वजनिक जीवन के व्यक्ति का निर्णय सबके हित को देखते हुए होना चाहिएभगवान श्री कृष्ण और अर्जुन की चर्चा जारी है।व्यक्ति जब सार्वजनिक जीवन में होता है तो उसका कोई निर्णय स्वयं को ध्यान में रखकर नहीं होता बल्कि पूरी समष्टि के हित को देखकर होता है।तत्व ज्ञान प्राप्त करने के बाद साधक मुझे और कुछ पाना शेष नहीं है,ऐसा जान लेने के बाद भी अपना कर्म नहीं छोड़ता।जीवन सूत्र 402 मुक्ति ईश्वर के हाथों,तो प्रयास अपने हाथोंवह लोक कल्याण के दायित्वों से स्वयं को जोड़ता है। मनुष्य की मुक्ति का मार्ग ईश्वर कृपा पर निर्भर ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 142

जीवन सूत्र 406 प्राण और अपान वायु को सम करने का अभ्यासभगवान श्री कृष्ण और जिज्ञासु अर्जुन की चर्चा है।जो प्राण और अपान वायु को सम करते हैं। जिनकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि अपने वश में हैं,जो मोक्ष-परायण है तथा जो इच्छा,भय और क्रोध से सर्वथा रहित हैं,वे साधक सदा (सांसारिक बंधनों से)मुक्त ही हैं। (28 वें श्लोक से आगे का प्रसंग: पांचवें अध्याय का समापन 29 वां श्लोक)ज्ञान के माध्यम से प्राण वायु की साधना की जा सकती है। जीवन सूत्र 407 मन की उड़ान और बुद्धि के विलास पर विवेक की लगाममन की उड़ान और बुद्धि के ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 143

जीवन सूत्र 411 ईश्वर के पथ में मोह और आसक्ति छोड़ना है जरूरीभगवान श्री कृष्ण और जिज्ञासु अर्जुन की जारी है। प्रत्येक कार्य मनुष्य के द्वारा संपन्न होते हैं और अपने- अपने विवेक से सभी लोग कार्य करते हैं।फिर परिणामों में अंतर कहां है? कुछ लोग अपनी इच्छा के अनुसार फल प्राप्त कर लेने के बाद भी संतुष्ट नहीं रहते हैं। वास्तव में उनकी इच्छा सांसारिक पदार्थों को प्राप्त करने को लेकर होती है, जो लगातार एक वस्तु को प्राप्त कर लेने के बाद बढ़ती ही रहती है।जीवन सूत्र 412 स्वयं पर नियंत्रण प्राप्त करना महत्वपूर्णऐसे में भगवान श्री ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 144

जीवन सूत्र 416 योगी के लिए आवश्यक है संकल्पों का त्यागगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं विद्धि पाण्डव।न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन।(6/2)।इसका अर्थ है-हे अर्जुन ! लोग जिसको संन्यास कहते हैं,उसी को तुम योग समझो;क्योंकि किसी भी योग की सफलता के लिए संकल्पों का त्याग आवश्यक है।ऐसा किए बिना मनुष्य किसी भी प्रकार का योगी नहीं हो सकता है। कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में दिया गया गीता का उपदेश जीवन की विविध समस्याओं में और स्थितियों में मार्गदर्शक है। मेरी दृष्टि में यह यह जीवन प्रबंधन पर लिखा गया सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है।संन्यास (सांख्ययोग) और योग ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 145

जीवन सूत्र 419 विपरीत परिणाम के लिए भी रहें तैयारभगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश जारी है।मनुष्य स्वयं ही मित्र है और स्वयं अपना ही शत्रु है। किसी दूसरे के कारण उसे नुकसान नहीं पहुंचता है,बल्कि मनुष्य स्वयं अपनी रक्षा, अपने आत्म कल्याण, अपने विकास के लिए सजग नहीं रहता है इसी से वह अपने ही हाथों अपना नुकसान कर बैठता है और माध्यम बनते हैं दूसरे लोग।इसे और स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं: -जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।(6/7)।इसका अर्थ है:-जिसने अपने-आप पर विजय प्राप्त कर ली है।शीत-उष्ण अर्थात जीवन की अनुकूलता-प्रतिकूलता, सुख-दुःख तथा ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 146

जीवन सूत्र 421 सब लोगों को समान समझने की दृष्टि आवश्यक अर्जुन फिर सोच में पड़ गए। सामने भगवान कृष्ण हैं।अखिल ब्रह्मांड महानायक।अर्जुन के आराध्य सखा सब कुछ।भगवान कृष्ण अनेक तरह से अर्जुन को समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। अभी थोड़ी देर पहले श्री कृष्ण ने कहा था।सर्दी-गर्मी,सुख-दुख,मान- अपमान इन दोनों में भी हमारे अंतःकरण की वृत्ति को शांत होना चाहिए। अर्जुन ने सोचा। सर्दी और गर्मी अगर संतुलित मात्रा में हो तब तो ठीक है।अगर अत्यधिक सर्दी पड़े और भीषण लू के थपेड़े झेलने पड़े तो ऐसी स्थिति में अंतःकरण की वृत्ति कैसे शांत होगी? जब श्री ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 147

जीवन सूत्र 426 ध्यान से समाधान महर्षि पतंजलि ने कहा है-योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:।वहीं कपिल मुनि के अनुसार मन के निर्विषय होने नाम ध्यान है-ध्यान निर्विषयं मन:। सचमुच मन को विषय से रहित करना बड़ा कठिन काम है। गीता के अध्याय 6 के श्लोक 11 और 12 में भगवान कृष्ण ने ध्यान की विधि बताई है-शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः |नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ।।11।।तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः |उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ।।12।।अर्थात योग के अभ्यास के लिए योगी एकान्त स्थान में जाए।भूमि पर कुशा बिछा दे और फिर उसे मृगछाला से ढँके। ऊपर से मुलायम वस्त्र बिछा दे। आसन न तो बहुत ऊँचा हो, न ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 148

जीवन सूत्र 431 स्थितप्रज्ञ के संतुलन बिंदु की खोज स्वयं को करनी हैगीता में श्रीकृष्ण ने कहा है:-नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति चैकान्तमनश्नतः।न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।(6/16)।इसका अर्थ है-हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिलकुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है। भगवान कृष्ण इस श्लोक में समत्व की स्थिति पर जोर दे रहे हैं।अगर दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अति किसी भी चीज की अच्छी नहीं है। लेकिन व्यावहारिक धरातल पर प्रश्न यह है कि आखिर किस सीमा तक किसी ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 149

जीवन सूत्र 434 योग से होंगे दूर दुख और कष्टभगवान कृष्ण ने जिस योग मार्ग का प्रतिपादन किया, उसे व्यक्ति भी अभ्यास के माध्यम से प्राप्त कर सकता है। अति का निषेध होना चाहिए यह सूत्र वाक्य अर्जुन बचपन से ही सुनते आ रहे थे। आज भगवान श्री कृष्ण ने अपनी वाणी से इसे और स्पष्ट कर दिया।यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिलकुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है। अर्जुन ने कहा," तो इसका अर्थ यह है भगवन कि ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 151

जीवन सूत्र 441 योग विश्व को भारत की देनभगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।यत्र पश्यन्नात्मनि तुष्यति।(6.20)।इसका अर्थ है:-योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है। भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम योग के अभ्यास इन शब्दों को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। जीवन सूत्र 442 चंचल मन को वश में करने योग आवश्यकवास्तव में चंचल मन को वश में करना ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 150

जीवन सूत्र 436 चित्त की स्थिरता योगी की पहचानगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त तदा।(6/18)।इसका अर्थ है अत्यंत वश में (अभ्यास द्वारा) किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही पूरी तरह स्थित हो जाता है,उस काल में संपूर्ण भोगों से स्पृहा रहित पुरुष योगयुक्त है,ऐसा कहा जाता है। वास्तव में योग का अर्थ केवल कुछ आसनों के अभ्यास और प्राणायाम की यौगिक क्रियाओं को संपन्न कर लेने से नहीं है।जीवन सूत्र 437 योग का अर्थ परमात्मा से जोड़ना इसका अंततः उद्देश्य तो परम पिता परमेश्वर से आत्मा को जोड़ने से है। इससे ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 152

जीवन सूत्र 446 योग को बना लें अपनी जीवनशैलीभगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।स योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।(6/23)।इसका अर्थ है:-जिसमें दुःखों के संयोग का ही वियोग है तथा जिसका नाम योग है,उसको जानना चाहिए।यह योग न उकताए हुए अर्थात धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निश्चयपूर्वक करना चाहिए। भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम योग के महत्व और इसे निश्चयपूर्वक करने की आवश्यकता को एक सूत्र के रूप में लेते हैं।जीवन सूत्र 447 आधुनिक समस्याओं का हल योग मेंआज जब मनुष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता, इम्यूनिटी आदि को बढ़ाने की बातें होती हैं,तो स्वस्थ रहने ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 153

जीवन सूत्र 451 लक्ष्य प्राप्ति में हड़बड़ी न करेंशनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।।6.25।।इसका अर्थ है:-शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा योगी संसार से उपरामता (विरक्ति) को प्राप्त करे।मन को परमात्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे। भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम कार्य को धीरे-धीरे धैर्ययुक्त बुद्धि से संपन्न करने को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। जीवन सूत्र 452 सफलता का शॉर्टकट नहीं होता हैसफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता और बात अगर साधना के द्वारा ईश्वर से साक्षात्कार की ओर कदम बढ़ाने की हो,तब तो एक-एक कदम ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 154

जीवन सूत्र 456 विचलन के तूफान को रोकें उठने से पहले हीपरमात्मस्वरूप में मन(बुद्धि समेत) को उचित तरीके से कर इसके बाद और कुछ भी चिन्तन न करें।अर्जुन ने पूछा: -सिद्ध साधकों के लिए तो यह आसान है कि वह परमात्मा के सिवाय और किसी भी चीज का चिंतन करें लेकिन साधारण मनुष्य का तो बार-बार ध्यान विषयों की ओर जा सकता है। श्री कृष्ण: तुमने ठीक कहा अर्जुन! मन की स्वाभाविक स्थिति चंचलता की है।व्यावहारिक जीवन में मनुष्य को ऐसी अनेक परिस्थितियों से गुजरना होता है,जहां उसके सामने अनेक विकल्प होते हैं। जीवन पथ पर चलते हुए कहीं ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 155

जीवन सूत्र 461 तेरा मेरा का भेद कैसागीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।(6/29)।इसका है,सब जगह अपने स्वरूपको देखनेवाला उस सर्वव्यापी अनंत चेतना में एकी भाव से स्थितिरूप योग से युक्त आत्मा वाला और ध्यानयोगसे युक्त अन्तःकरणवाला योगी अपने स्वरूप को सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित देखता है।साथ ही वह सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूप में देखता है। भगवान कृष्ण की इस प्रेरक मार्गदर्शक वाणी से हम सभी प्राणियों और उनकी आत्मा में स्थित परमात्मा तत्व को देखने को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। यह दृष्टिकोण हमारे जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। समदर्शी होने ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 156

जीवन सूत्र 466 ईश्वर कृपा हेतु आवश्यक है उदार दृष्टिगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: यो मां पश्यति सर्वं च मयि पश्यति।तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।(6/30)।इसका अर्थ है:- हे अर्जुन,जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।सब जगह अपने स्वरूपको देखने वाला योग से युक्त आत्मा वाला और ध्यान योगसे युक्त अन्तःकरण वाला योगी अपने स्वरूप को सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित देखता है।साथ ही वह सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूप में देखता है। एक उदारवादी पांडव राजकुमार होने के बाद भी ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 157

जीवन सूत्र 471 अच्छे कर्म करना अर्थात ईश्वर में स्वयं को जीनाजो सब में ईश्वर को देखता है, वह व्यापक दृष्टि के कारण ईश्वर तत्व के परिवेश में जीता है। वह सृष्टि के कण-कण में ईश्वर को देखता है। अर्जुन को भक्त प्रहलाद की कथा का स्मरण हो आया। हिरण्यकश्यप ने पूछा था - कहां है तेरा ईश्वर?जीवन सूत्र 472 कण कण में हैं ईश्वरप्रह्लाद ने कहा था- हर जगह हैं ईश्वर। जल में,थल में, वायु में ,आकाश में, वृक्षों में ,पौधों पत्तों में, पर्वत में, हर कहीं ईश्वर हैं। कहां नहीं हैं ईश्वर?हिरण्यकश्यप: तो क्या इस खंबे में ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 158

जीवन सूत्र 476 सृष्टि के कण-कण में अनुभूति का विस्तारआत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।सुखं वा यदि वा दुःखं सः परमो मतः।(6/32)।इसका अर्थ है:-हे अर्जुन ! जो पुरुष सब जगह समान रूप से अपने को ही देखता है। चाहे सुख हो या दु:ख स्वयं भी वही अनुभूति करता है,वह परम योगी माना गया है। एक सच्ची मानव की दुनिया केवल स्वयं तक सिमटी नहीं रह सकती है।वह सृष्टि के कण-कण में ईश्वर को देखता है।सभी प्राणियों के सुख और दुख को अपना मानता है और यथासंभव सभी की सहायता करने का प्रयत्न करता है। जीवन सूत्र 477 सुपात्र की करें ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 159

जीवन सूत्र 481 मन को रोकने का अभ्यास है जरूरी भगवान कृष्ण ने समभाव की चर्चा की। अर्जुन इसके में और अधिक जानने को उत्सुक थे। इस उद्देश्य से अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा।अर्जुन: हे मधुसूदन आपने योग की चर्चा की।आपने इसके लिए समभाव को उपयोगी बताया है। मन का स्वभाव चंचल है। चंचल मन के इस स्वभाव के होते हुए समभाव वाली स्थिति कहां संभव है प्रभु? मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण ने कहा।श्री कृष्ण: मैं सहमत हूं अर्जुन। युद्ध भूमि में श्रेष्ठ योद्धाओं को पराजित करने वाले महाबाहु अर्जुन अगर चंचल मन को वश में रखने का ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 160

जीवन सूत्र 486 प्रेम गली अति सांकरीअसंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।(6/36)।इसका अर्थ है, भगवान कृष्ण से कहते हैं कि जिसका मन पूरी तरह वश में नहीं है,उसके द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है।वहीं मन को वश में रखकर प्रयत्न करनेवाले से योग सम्भव है,ऐसा मेरा मानना है। भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम योग के लिए मन को वश में करने की अपरिहार्यता को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। वास्तव में कुछ प्राप्त करने के लिए परिश्रम तो करना ही होता है और बात जहां योग को प्राप्त करने की हो ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 161

जीवन सूत्र 491 अच्छे कर्मों के फल मिलेंगेआज नहीं तो कल मिलेंगेअभ्यास से व वैराग्य से चित्त के विक्षोभ चंचलता को रोका जा सकता है।इसका लाभ बताते हुए भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि जिस व्यक्ति ने अपने मन को वश में कर लिया है ऐसे साधक द्वारा योग को प्राप्त होना सरल है। अगर जिसका मन अपने वश में नहीं है उसके लिए योग मार्ग कठिनाई से प्राप्त होने वाला है।शिव सूत्र 492 योग नहीं है केवल शारीरिक अभ्यासअर्जुन सोचने लगे, तो प्राणायाम और योग के अभ्यास के लिए मन पर नियंत्रण रखना अत्यंत आवश्यक है अन्यथा यह ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 162

जीवन सूत्र 496 पिछले अच्छे काम दिलाते हैं जीवन में बढ़तईश्वर के साधना पथ पर चलने से साधक की उपलब्धियां व्यर्थ नहीं जातीं।अर्जुन यह जानकर प्रसन्न हुए कि एक जन्म की साधना अगर अपनी पूर्णता को प्राप्त न हो सके तो जन्मांतर में भी जारी रहती है। वर्तमान देह के समापन के बाद आत्मा एक नई यात्रा शुरू करती है और केवल आत्मा ही नहीं सूक्ष्म शरीर भी अपने संचित संस्कारों के साथ आगे बढ़ता है और मोक्ष मिलने तक यह आत्मा इस सूक्ष्म शरीर के संस्कारों के साथ अनेक जन्म धारण करती है। लाक्षागृह अग्निकांड के बाद जब ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 163

जीवन सूत्र 501 अपने-अपने आराध्यगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।तस्य तस्याचलां श्रद्धां विदधाम्यहम्।(7/21)।अर्थात जो-जो भक्त जिस जिस देवता का श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है,मैं उस उस देवता के प्रति उसकी श्रद्धा को दृढ़ कर देता हूँ। इस श्लोक से हम अपने-अपने देवताओं के पूजन, इस वाक्यांश को एक सूत्र की तरह लेते हैं।जीवन सूत्र 502 अपने-अपने मत को लेकर झगड़े गलत भगवान कृष्ण का यह श्लोक अपने मत और पंथ को लेकर झगड़े कर रहे लोगों के बीच प्रेम और समन्वय से कार्य करने का गहरा संदेश देता है। भगवान विष्णु के ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 164

जीवन सूत्र 504 भक्तों के साधनों की रक्षा करते हैं स्वयं प्रभुगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भक्तों को आश्वासन हुए कहा है:-अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22।।इसका अर्थ है जो अनन्य प्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्काम भाव से भजते हैं,उन नित्य निरंतर मेरा चिंतन करने वाले पुरुषों का योग(अप्राप्त की प्राप्ति)क्षेम(प्राप्त की रक्षा) मैं स्वयं कर देता हूं। भगवान कृष्ण अर्जुन के संरक्षक,मार्गदर्शक,संबंधी सभी थे।महाभारत का युद्ध शुरू होने के पूर्व जहां एक ओर दुर्योधन ने यादवों की शक्तिशाली सेना का चयन किया तो अर्जुन भगवान कृष्ण का साथ पाकर प्रसन्न हो ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 165

जीवन सूत्र 506 छूटना कर्म के मोह बंधनों सेभगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो श्री कृष्ण कहते हैं - इस प्रकार जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान के अर्पण होते हैं- ऐसे संन्यास योग से युक्त चित्त वाला तू शुभ अशुभ फल रूप कर्म बंधन से मुक्त हो जाएगा और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा।जीवन सूत्र 507 समस्त कर्म ईश्वर अर्पित करेंवास्तव में संन्यास का वास्तविक अर्थ कर्मों में कर्तापन के अभाव और फलों में आसक्ति के अभाव से होना चाहिए। ऐसा करना सहज नहीं है इसलिए हमें अपने सभी कर्मों को ईश्वर ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 166

जीवन सूत्र 509 खुशहाली के दीप जलेभगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है -तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।10/11।।इसका अर्थ अर्जुन!भक्तों पर कृपा करनेके लिये ही उनमें आत्मतत्व के रूप में रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको प्रकाशमय ज्ञानरूप दीपक के द्वारा पूरी तरह नष्ट कर देता हूँ। यह श्री कृष्ण द्वारा अपने भक्तों के लिए सबसे बड़ी घोषणा है।उनके ध्यान में लगे हुए भक्तों को वे तत्व ज्ञान रूपी योग प्रदान करते हैं। वे स्वयं उनके अंतः करण में स्थित हो जाते हैं और जिस तरह दीपक अंधेरे को नष्ट करता है उसी तरह से वे ज्ञान से भक्तों के ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 167

जीवन सूत्र 511 ईश्वर को देखने के लिए विशेष दृष्टि चाहिए गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-न तु शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।11/8।।इसका अर्थ है, हे अर्जुन!परन्तु तुम अपने इन्हीं प्राकृत नेत्रों के द्वारा मुझे देखने में समर्थ नहीं हो।मैं तुम्हें दिव्यचक्षु देता हूँ, जिससे तुम मेरे ईश्वरीय योगशक्ति व सामर्थ्य को देखो। 11 वें अध्याय के प्रारंभ में अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से उनकी अविनाशी स्वरूप के दर्शन का निवेदन करते हैं। इस पर पूर्व के श्लोक में भगवान उनसे कहते हैं कि अब मेरे इस शरीर में एक ही जगह स्थित चर ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 168

जीवन सूत्र 516 सृजन के साथ-साथ निर्णायक विनाश में भी हैं ईश्वर गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:- लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः। ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।(11/32) इसका अर्थ है:- अपना विराट रूप दिखाते हुए भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा- मैं लोको का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूं। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए तत्पर हुआ हूं।प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित जो योद्धा लोग हैं, वे सब तुम्हारे युद्ध न करने पर भी नहीं रहेंगे अर्थात इन सब का नाश हो जाएगा। जूलियस रॉबर्ट ओपेनहाइमर द्वितीय ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 169

जीवन सूत्र 517 जीत के लिए झोंकने होंगे सारे संसाधनगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्वजित्वा शत्रून् राज्यं समृद्धम्।मयैवैते निहताः पूर्वमेवनिमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।(11/33)।इसका अर्थ है:-इसलिये तुम युद्धके लिये खड़े हो जाओ और यशको प्राप्त करो।हे अर्जुन, तुम शत्रुओंको जीतकर धन-धान्य से सम्पन्न राज्य को भोगो। ये सभी( विपक्षी योद्धा गण) मेरे द्वारा पहले से ही मारे हुए हैं। हे सव्यसाची,तुम निमित्तमात्र बन जाओ। इसके पूर्व श्लोक में अर्जुन को समझाते हुए भगवान श्री कृष्ण ने कहा था कि मैं लोगों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूँ।प्रतिपक्ष की सेना में जितने योद्धाओं को तुम देख रहे ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 170

जीवन सूत्र 521 मन की एकाग्रता के अभ्यास से ही होगा भावी पथ प्रशस्तगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।(12/9)।इसका अर्थ है:- यदि तू मन को मुझ में अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन, अभ्यास रूपी योग के द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए इच्छा कर। गीता में ईश्वर प्राप्ति के लिए ईश्वर के नाम और गुणों के श्रवण-कीर्तन,पठन-पाठन,श्वांस के द्वारा जप आदि को अभ्यास बताया गया है, जिससे ईश्वर की प्राप्ति होगी। भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम अभ्यास शब्द को एक सूत्र ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 171

जीवन सूत्र 526 "मुझे ये चाहिए और वो भी चाहिए"यह विचार गलतसमः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सन्तुष्टो येनकेनचित्।अनिकेतः स्थिरमतिहःभक्तिमान्मे प्रियो नरः।(12/19)।जो पुरुष शत्रु और मित्र में तथा मान और अपमान में सम है; जो शीत-उष्ण व सुख दु:ख आदि द्वन्द्वों में सम है।जिसमें आसक्ति नहीं है।जिसको निन्दा और स्तुति दोनों ही तुल्य है,जो मौन रहता है,जो थोड़ी चीज से भी सन्तुष्ट है,जो अनिकेत है,वह स्थिर बुद्धि का भक्त मुझे प्रिय है। हम जीवन भर सुख सुविधाओं और आराम के साधनों के निरंतर संग्रह व विस्तार के कार्य में लगे होते हैं।जीवन सूत्र 527 आत्ममुग्धता से बचेंअपने ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 172

जीवन सूत्र 531 अच्छे कर्मों का अवसर मिलता है मानव देह कोगीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:-इदं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।(13/2 एवं 3, गीता प्रेस)।इसका अर्थ है,भगवान कृष्ण कहते हैं-हे कौन्तेय!यह शरीर क्षेत्र कहा जाता है और इसको जो जानता है,तत्त्व को जानने वाले लोग उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं।हे भारत ! तुम समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही जानो। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ अर्थात विकार सहित प्रकृति का और पुरुष का जो ज्ञान है,वही वास्तव में ज्ञान है,ऐसा मेरा मत है। शरीर को क्षेत्र इसलिए कहा ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 173

जीवन सूत्र 536 आत्मतत्व की खोज आवश्यकभगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।(13/7)।इसका अर्थ है:- कृष्ण अर्जुन को तत्वज्ञान अर्थात परमसत्ता को प्राप्त करने के लिए उपाय बताते हुए कहते हैं, कि स्वयं में श्रेष्ठता के अभिमान का न होना, दिखावे के आचरण का न होना, अहिंसा अर्थात किसी भी प्राणी को न सताना, क्षमाभाव, सरलता,आस्था एवं अनुकरण भाव के साथ गुरु की सेवा, बाहर-भीतरकी शुद्धि,अंतःकरण की स्थिरता और मनका वशमें होना आवश्यक है। जीवन सूत्र 537 श्रेष्ठता के अभिमान से मुक्त रहें वास्तव में मनुष्य श्रेष्ठता के अभिमान में रहता है।वह स्वयं के सम्मान ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 174

जीवन सूत्र 541 भक्ति प्रलोभनों से डगमग ना होगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि। 13/10अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।एतज्ज्ञानमिति यदतोन्यथा।(13/11)।इसका अर्थ है:- ज्ञान के विषय में बताते हुए भगवान कृष्ण अर्जुन से आगे कहते हैं कि परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना,एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना और जन-समुदाय में प्रीति का न होना।अध्यात्मज्ञानमें नित्य-निरन्तर रहना, तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को सब जगह देखना,ये सब ज्ञान है; और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है, ऐसा कहा गया है। वास्तव में अव्यभिचारिणी भक्ति का मतलब है,निश्चल भक्ति जो डगमगाए ना,डांवाडोल न हो।जीवन सूत्र 542 ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 175

जीवन सूत्र 546 विचार सरिता ईश्वर हर कहीं हैं, बस उन्हें महसूस करने की भावना और दृष्टि चाहिएगीता में श्री कृष्ण ने कहा है:-बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।(13/15)।इसका अर्थ है -परमात्मा चराचर सब भूतों के बाहर भीतर परिपूर्ण है और अचर-अचर भी वही है। वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है तथा अति समीप में और दूर में भी स्थित वही है। गीता में अविज्ञेय शब्द का अर्थ स्पष्ट किया गया है। जैसे सूर्य की किरणों में स्थित हुआ जल सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है। जीवन सूत्र 547 ईश्वर का विशिष्ट ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 176

जीवन सूत्र 548 ईश्वर हैं कण-कण से ब्रह्मांड तक गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव स्थितम्।भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।(13/16)।ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्।/(13/17)।इसका अर्थ है:- परमात्मा स्वयं विभाग रहित होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियोंमें विभक्त की तरह स्थित हैं। वे जाननेयोग्य परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले, उनका भरण-पोषण करनेवाले और संहार करनेवाले हैं।जीवन सूत्र 549 सृष्टि के समस्त कार्यों में ईश्वर वे ज्योतियों की भी ज्योति और अज्ञान तथा अंधकार से परे हैं।वे ज्ञानस्वरूप, ज्ञेय( जिन्हें जाना जा सकता है) और ज्ञान के द्वारा जानने योग्य (ज्ञानगम्य) हैं।वे सभी ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 177

जीवन सूत्र 551 जैसी करनी वैसी भरनीगीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:- कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।रजसस्तु दुःखमज्ञानं तमसः फलम्।(14/16)।इसका अर्थ है:-सात्विक कर्म का फल सात्विक और पवित्र होता है। रजोगुण का फल दुःख और तमोगुण का फल अज्ञान होता है। मनुष्य अगर सात्विक कर्मों का आचरण करता है तो वह धैर्य और एकाग्र चित्त होकर किसी कार्य को करता है। ऐसा करते समय उसके मन में लोभ की भावना नहीं होती। वह परमात्मा के अभिमुख होता है। उसका मन निर्मल और शांत होता है। फलों की कामना से किए जाने वाले कर्म राजस कर्म होते हैं,जिनके ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 178

जीवन सूत्र 554 किसी तीसरे पर न निकालें अपना क्रोधभगवान श्री कृष्ण ने गीता के 16 वें अध्याय में संपदा को लेकर उत्पन्न हुए मनुष्य के लक्षण बताते हुए कहा है:- अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।(16/2)।इसका अर्थ है- मन वाणी और शरीर से किसी भी प्रकार से किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण( अर्थात अंतःकरण और इंद्रियों के द्वारा जैसा निश्चय किया गया है,वैसा ही प्रिय शब्दों में कहने का नाम सत्य भाषण है।) अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग,अंतःकरण की उपरति अर्थात चित्त ...और पढ़े

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 179 - समापन भाग

समापन भाग:जीवन सूत्र 555: भाग 180: जहां ईश्वर हैं,वहां विजय है अर्जुन के मन में संदेह के मेघ छंटने थे और ज्ञान के सूर्य का उदय हो रहा था। आज तक उनसे किसी भी व्यक्ति ने इतनी आत्मीयता से उनके मन में उमड़ घुमड़ रहे प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया था और फिर अगले ही क्षण श्रीकृष्ण ने उन्हें सबसे बड़ा आश्वासन दे दिया।श्री कृष्ण: हे अर्जुन!तुम सभी कर्तव्य कर्मों को अपने निजपन द्वारा किए जाने की भावना का त्याग करते हुए उन्हें मुझ सर्वशक्तिमान ईश्वर के अभिमुख कर मेरी शरण में आ जाओ। अर्जुन, विजय और पराजय से ...और पढ़े

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