गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 70 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 70


जीवन सूत्र 86,87,88 भाग 69


जीवन सूत्र 86 :कर्तव्य पथ पर ईश्वर का अनुभव करें साथ


गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: -

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।


निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।3/30।।

इसका अर्थ है, हे अर्जुन! तू सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंको मेरे अर्पण करके,मुझ परमात्मा में अपना चित्त लगाए हुए कामना,ममता और दुख-रहित होकर युद्धरूपी कर्तव्य-कर्म को करो।

आसन्न युद्ध में अपनी संपूर्ण शक्ति के साथ लगने के लिए भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कुछ मंत्र दिए हैं।अपने संपूर्ण कर्मों को ईश्वर को अर्पित कर देने का अर्थ है उन कर्मों को स्वयं कर्ता न मानते हुए ईश्वर की ओर से करने का भाव लाना। अर्थात भौतिक रूप से तो क्रियाएं, चिंतन व्यवहार आदि मनुष्य के द्वारा संपन्न हो रहे हैं लेकिन मन में यह भाव रखना कि यह सब ईश्वर की इच्छा से हो रहा है।

जीवन सूत्र 87 स्वामी नहीं अनुचर समझ कर करें कर्तव्य

ऐसा भाव मन में रखने पर व्यक्ति मालिक के बदले अनुचर भाव से युक्त हो जाता है।इससे कर्मों में उसके द्वारा की जाने वाली कोताही भी कम होने लगती है।वह चौकन्ना होकर कार्य करता है।ऐसे में हर कार्य को करते समय उसके मन में पवित्रता रहती है।ईश्वर के प्रति समर्पण रहता है। ऐसे दृष्टिकोण रखने से वह असुरक्षा के बोध से मुक्त भी रहता है। उसे यह ज्ञात होता है कि उसके बैकअप के लिए स्वयं ईश्वर हैं और वह ईश्वर पर भरोसा करने लगता है। कोई काम उसकी मर्जी का नहीं होता तो भी वह संतोष कर लेता है कि इसमें ईश्वर की मेरे प्रति कोई गूढ़ शुभ इच्छा ही छिपी हुई है और समय बाद में इसे सच भी कर दिखाता है।

जब संसार में उसे अपने विशिष्ट दायित्व का स्मरण हो आए तो उसके द्वारा किए जाने वाले हर कार्य का महत्व बढ़ जाता है।यहां दृष्टिकोण में परिवर्तन की आवश्यकता है।

नए साधकों को रंग बिरंगी माया वाली इस दुनिया को छोड़कर अव्यक्त ईश्वर के प्रति ध्यान लगाने में असुविधा हो सकती है।ईश्वर के प्रति कार्यों को समर्पित करने में संदेह और परहेज भी हो सकता है।कामनाओं को छोड़ पाना संतुलित रह पाना,आसक्ति रहित होकर कर्म करना आदि प्रश्न तो बाद में आएंगे।ऐसी स्थिति में भगवान कृष्ण का स्पष्ट संकेत है कि हे अर्जुन! कर्म ही ईश्वर है। कौन जीतेगा कौन हारेगा? यह बाद का प्रश्न है।अभी युद्ध करना कर्तव्य है और इसीलिए कर्तव्य पालन के लिए ईमानदारी से बढ़ाए गए हर कदम में मैं तुम्हारे साथ हूं।इसे तुम तब अनुभूत कर पाओगे जब तुम कर्तव्यपथ पर पहला कदम बढ़ाओगे।हम साधारण मनुष्यों के लिए तो ईश्वर को देख पाने के प्रश्न को निरर्थक करते हुए उन्हें महसूस कर पाने की अनुभूति किसी बड़े वरदान से कम नहीं होगी।


भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम कर्मों को उन्हें अर्पण कर आशारहित, ममतारहित और संतापरहित होने को एक सूत्र के रूप में लेते हैं।

जीवन सूत्र 88 : कर्तापन हम पर बनने वाले दबाव का महत्वपूर्ण कारण

कर्म क्षेत्र में हमारे कार्य को करने के समय हमारे चित्त की अशांति,अधैर्य, हम पर बनने वाले दबाव का एक बड़ा कारण यह है कि हम कार्य को स्वयं द्वारा किया जा रहा समझते हैं।तकनीकी रूप से तो यह सही है कि कोई कार्य एक व्यक्ति विशेष ही कर रहा है। इस कार्य को पूर्ण करने का उत्तर दायित्व भी उस व्यक्ति विशेष का होता है,तथापि अगर कार्य करते वक्त वह व्यक्ति इस कार्य का कर्ता अगर स्वयं को न मानकर उस परम सत्ता को माने,जिसे वह अपने अपने धर्म और आस्था के अनुसार अलग-अलग नामों से जानता है,तो उसे कार्य करते समय एक बड़ा नैतिक साहस और मनोबल प्राप्त होगा। वास्तव में किसी कार्य को हम ईश्वर का दिया हुआ कार्य समझकर करें तो न सिर्फ उस कार्य में हमारा मन लगता है,बल्कि संतुलित दृष्टि और 'ऊपर वाला सहायक है' यह निश्चिंतता मन में होने पर कार्य के दौरान आवश्यकता अनुसार उचित सूझ भी प्राप्त होती रहती है।श्री कृष्ण ने कहा है कि वे भक्तों की लाभ हानि स्वयं वहन करते हैं और उसे संतुलित भी करते हैं।अगर कार्य अच्छा है और उसमें गुंजाइश हो तो अन्य लोग भी अवश्य साथ देते हैं।

वास्तव में वह परम सत्ता नेक कार्यों में अवश्य सहायक होती है:-


हे भक्त, जब से तुमने सौंपा है

अपना सर्वस्व मुझे,

बंध गया हूं तबसे तुमसे

कि बाल भी बांका न होने दूँ,

सच्चे मन से चाहने वाले इस भक्त का

कि इसका

विश्वास न टूट जाए मुझ पर से।


डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय