गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 3 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 3

जीवन सूत्र 3

'सोच मत जल्दी काम शुरू कर'

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है:-

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।(2/11)।

इसका अर्थ है:- हे अर्जुन! तुम जिनके लिए शोक करना उचित नहीं है, उनके लिए शोक करते हो और ज्ञानियों के से वचनों को कहते हो।ज्ञानी तो जिनके प्राण चले गए हैं और जिनके प्राण नहीं गए हैं, दोनों के लिये शोक नहीं करते हैं।

भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम "शोक करना उचित नहीं है", इस वाक्यांश को एक सूत्र के रूप में लेते हैं।अपने दैनिक जीवन में हम अधिकतर समय किसी कार्य को प्रारंभ करने के लिए सोच-विचार में ही गुजार देते हैं। विशेष परेशानी तब आती है,जब हमारे सामने एक साथ कई कार्य करने की स्थिति बनती है।ऐसे समय में हम कार्यों को करने का प्राथमिकता क्रम तय नहीं कर पाते और इसी में समय बीतते जाता है।तब हमें मालूम होता है कि हम कोई भी कार्य नहीं कर पा रहे हैं और अगर किसी भी एक कार्य को हमने यादृच्छिक ढंग से ही एक सिरे से शुरू कर दिया होता तो हम उसको समाप्त करने के नजदीक पहुंच जाते। यह होता है अति चिंतन का दुष्परिणाम।आखिर चिंतन प्रक्रिया को हम समय दें कितना? कार्यों का प्राथमिकता क्रम तय करने के लिए भी हमें एक सुनिश्चित समय ही लेना चाहिए और इसमें जल्दी ही अंतिम निर्णय लेकर आसन्न कार्यों में से किसी एक को चुन कर उसे करना प्रारंभ भी कर देना चाहिए।

महाभारत के वनपर्व में महर्षि वेदव्यास लिखते हैं:-चिंता बहुतरी तृणात।

अर्थात चिंताएं तिनकों से भी अधिक होती हैं।

वास्तव में जिसे हम सोच विचार कर उचित निर्णय लेने के लिए समय लगाने की बात समझते हैं, वह और कुछ नहीं बल्कि हमारी चिंताओं की अनवरत चलने वाली श्रृंखला हो जाती है और एक कार्य को चुनने के लिए उसके गुण दोष पर विचार करते करते हम बहुत आगे निकल जाते हैं।

योग वशिष्ठ ग्रंथ में कहा गया है कि ईंधन से जिस तरह अग्नि बढ़ती है,वैसे ही सोचने से चिंता बढ़ती है। न सोचने से चिंता उसी तरह नष्ट हो जाती है, जैसे ईंधन के बिना अग्नि।

इसीलिए चिंताओं के अनंत विस्तार को तोड़ना आवश्यक है। थोड़ा सोच विचार के बाद कोई एक उत्तम लगने वाला कार्य प्रारंभ कर देना अत्यंत आवश्यक है।

प्लिनी कहते हैं, "दुख की तो सीमाएं होती हैं परंतु चिंता असीमित होती है।"

अतः हम स्वयं पर आत्मविश्वास रखकर और उस परम सत्ता का नाम लेकर अपना एक कार्य शुरू करेंगे तो अन्य कार्यों के क्रमशः करने का मार्ग प्रशस्त होगा। हमें रास्ते में स्वयं सूझ और सहायता मिलती जाएगी और हम यथासंभव अपने सभी दायित्वों के साथ न्याय कर पाएंगे।

(इस लेखमाला में मैंने गीता के श्लोकों व उनके अर्थों को केवल एक प्रेरणा के रूप में लिया है।यह न तो उनकी व्याख्या है न विवेचना क्योंकि मुझमें मेरे आराध्य भगवान कृष्ण की वाणी और उनके निर्देशों पर टीका टिप्पणी की सामर्थ्य बिल्कुल नहीं है।मैं बस उन्हें आज के संदर्भों से जोड़ने व स्वयं अपने उपयोग के लिए जीवन सूत्र ढूंढने व उनसे सीखने का एक मौलिक प्रयत्न मात्र कर रहा हूं। वही पाठकों के समक्ष भी प्रस्तुत कर रहा हूं।✍️🙏)

डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय