जीवन सूत्र 5: शरीर
की अवस्था में बदलाव स्वीकार करें
विवेक को बचपन से ही आध्यात्मिक ग्रंथों के अध्ययन में रुचि है।
आवासीय विद्यालय के आचार्य सत्यव्रत आधुनिक पद्धति की शिक्षा देने के साथ-साथ प्राचीन
जीवन मूल्यों और परंपरागत नैतिक शिक्षा के उपदेशों को भी शामिल करते रहते हैं।वे बार-बार
बच्चों से कहते हैं कि विद्या का उद्देश्य जीवन में धन,पद, यश,प्रतिष्ठा प्राप्त करना
नहीं है।जीवन का व्यावहारिक ज्ञान पाने,श्रेष्ठ नागरिक गुणों का विकास और समाज उन्मुखी
श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए शिक्षा आवश्यक है।सच्चा ज्ञान केवल किताबी कीड़ा नहीं बनाता
बल्कि संकटकालीन परिस्थितियों में निर्णय लेने के लिए आवश्यक सूझ और विवेक भी प्रदान
करता है।
आचार्य सत्यव्रत ने
इस आवासीय विद्यालय का नाम रखा है- श्रीकृष्ण प्रेमालय। यहां मानवता की शिक्षा दी जाती
है। बच्चों की प्रातः कालीन सभा में आचार्य कहा भी करते हैं, अगर हम स्वयं में ही सुधर
गए, बुराइयों से मुक्त हो गए तो समाज को बदलने में देर नहीं लगेगी। वे कहा करते हैं,मानवता
सबसे बड़ा धर्म है। हमारा शरीर भी एक मंदिर है।आत्म रूप में स्वयं ईश्वर इसमें विराजते
हैं।विद्यार्थियों को योग ध्यान, प्राणायाम तथा खेलकूद से स्वस्थ रखकर मंदिर को जर्जर
होने से बचाना है।विद्यार्थियों द्वारा ज्ञान प्राप्त करना और इसके लिए लगातार परिश्रम
करते रहना सबसे बड़ी पूजा है।सत्य निष्ठा पूजा के फूल हैं तो ईमानदारी और सहज सरल जीवन
स्वयं में जीवन को आराधना बना देना है।वे कहते हैं प्राणी मात्र से प्रेम करो। घृणा
और नफरत नहीं।मानव-मानव के बीच किसी भी आधार पर भेद मत करो।सहयोग,सेवा और राष्ट्रभक्ति
में अपना जीवन समर्पित कर दो। स्वयं पर गर्व करो कि तुम इस धरती के महानतम और प्राचीनतम
राष्ट्र के निवासी हो।
विद्यार्थीगण मंत्रमुग्ध
होकर आचार्य जी की बातें सुनते हैं और उसे जीवन में उतारने का संकल्प लेते हैं।
आज की प्रार्थना सभा
में विवेक ने गुरुदेव से प्रश्न किया,
विवेक: गुरुदेव गीता का एक श्लोक है,
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।2/13।।
देहधारीके इस मनुष्यशरीरमें जैसे बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती
है,ऐसे ही देहान्तर की प्राप्ति होती है।इस देह का भी परिवर्तन होता है। इस विषयमें
धीर मनुष्य मोहित नहीं होता।गुरुदेव, मृत्यु और परिजनों से विछोह तो एक दुखद घटना है
फिर उसे इस तरह क्यों बताया गया है कि जैसे शरीर में बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था
आती है, बस वैसे ही, शरीर के अंत के बाद एक नये शरीर की प्राप्ति होती है। क्या मृत्यु
भी केवल एक अवस्था परिवर्तन है?
आचार्य सत्यव्रत: हां विवेक, मृत्यु भी अवस्था परिवर्तन ही है लेकिन
बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था से अलग।मृत्यु एक नये जन्म की तैयारी है।सूक्ष्म
शरीर में संचित संस्कारों के साथ एक नई यात्रा पर निकलने के लिए। इसीलिए एक जगह पर
जहां यह शोक का कारण बनता है ,वहां किसी दूसरे परिवार में जन्म के समय प्रसन्नता का
भी कारण बन जाता है।
विवेक: और आप कहा करते हैं कि मोक्ष प्राप्ति तक बार-बार जन्म होंगे,
और इस जन्म के बाद ही मोक्ष मिल गया, तो क्या इसे भी अवस्था परिवर्तन ही माना जाएगा?
आचार्य सत्यव्रत: मोक्ष मिलने के पूर्व तक तो आत्मा और सूक्ष्म शरीर
नई-नई देह धारण कर अवस्था परिवर्तन करते रहेंगे और किसी एक जन्म में भी बाल्यावस्था
,वृद्धावस्था आदि अनेक अवस्थाएं आती रहेंगी लेकिन मोक्ष मिलने के बाद यह क्रम रुक जाता
है। यह तो एक उपलब्धि है विवेक।
विवेक संतुष्ट हो गया।
वह सोचने लगा कि मेरे प्रश्न चलते रहते हैं और गुरुदेव का उत्तर जैसे पहले से ही तैयार
रहता हो।
डॉ.योगेंद्र कुमार पांडेय