गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 8 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 8

जीवन सूत्र 8: जीत सत्य की होती है

पृथ्वी द्वारा उठाए गए प्रश्न और उसके समाधान को विवेक ने कल की ज्ञान चर्चा में ध्यानपूर्वक सुना था।वह विचार करने लगा कि दुनिया में जो भी घटित होता है, वह वही होता है जो उसे किसी निर्दिष्ट समय पर होना चाहिए। शायद घटनाएं अवश्यंभावी होती हैं और मनुष्य उन्हें एक सीमा तक बदलने की कोशिश कर सकता है। मनुष्य के हाथ में है तो उसकी सत्यनिष्ठा जो उसके परिश्रम के माध्यम से उसे एक बेहतर स्थिति के निर्माण में मदद करती है।

विवेक ने अपने घर के पास रहने वाले एक ऐसे परिवार को देखा था जहां के दो भाई बिल्कुल अलग-अलग स्वभाव के थे।बड़ा अत्यंत ईमानदार परिश्रमी था,वहीं छोटा चंचल स्वभाव का तेज और जमाने के अनुसार चलने वाला। बड़े भाई ने एक परीक्षा की तैयारी की, उस में असफल रहा।अनेक बार परीक्षाएं देने के बाद अंततः नौकरी पा गया और एक निश्चित आय को प्राप्त करते हुए अपने परिवार का पालन पोषण करने लगा।

छोटा भाई पढ़ाई लिखाई में अधिक रुचि नहीं लेता था। वह ले देकर कॉलेज की औपचारिक डिग्री प्राप्त कर पाया।इसके बाद उसने अपना कारोबार शुरू किया।सार्वजनिक जीवन के सफल व्यापारी लोग अनेक वर्षों की साधना और परिश्रम के बाद अपने क्षेत्र में शीर्ष पर पहुंचते हैं। इस व्यक्ति ने शॉर्टकट अपनाया और अनेक तिकड़मों का सहारा लेकर बहुत जल्दी ही अपने व्यवसाय के क्षेत्र में सफल हो गया। लक्ष्मी जी की कृपा से उस पर धन वर्षा होने लगी।

आज की सांध्य सभा में विवेक ने आचार्य सत्यव्रत से गीता के उस श्लोक की चर्चा उन दोनों भाइयों के संदर्भ में की।

विवेक: आचार्य,

भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है,

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।2/16।।

इसका अर्थ बताया गया है,असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व,तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों के द्वारा देखा गया है।

आचार्य जी,अगर सत्य का कभी अभाव नहीं है और असत्य की सत्ता नहीं है तो क्यों जीवन में असत्य और झूठ का पालन करने वाले लोग सफल हो जाते हैं और ईमानदारी का पालन करने वाला सत्यव्रती व्यक्ति असफल हो जाता है।

आचार्य सत्यव्रत: विवेक अच्छा प्रश्न है आपका, लेकिन यह कोई आवश्यक नहीं कि सार्वजनिक जीवन में सम्मान प्राप्त और धनी व्यक्ति ही सफल है।आवश्यक यह है कि धन किस तरह अर्जित किया गया है। अगर विधि और नैतिक तरीकों से धन अर्जित नहीं किया गया है तो यह त्यज्य है और पाप की श्रेणी में आता है। गलत तरीकों से अर्जित किए गए धन की सत्ता नहीं है और धन ही क्यों कोई भी अभीष्ट कार्य अगर असत्य के आधार पर किया गया है तो वह विनाशकारी ही होगा।

विवेक: तो आपका कहना यह है गुरुदेव कि सत्य और ईमानदारी से किया गया कार्य और उसका परिणाम ही स्थाई होता है।असत्य भले ही प्रारंभिक रूप से सफलता प्राप्त करता हुआ दिखाई दे, लेकिन वह असफल ही रहता है।

आचार्य सत्यव्रत: हां विवेक, वास्तविकता यही है।तुमने ठीक कहा, मुंडकोपनिषद में कहा भी गया है: -सत्यमेव जयते।

डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय