गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 6 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 6

जीवन सूत्र 6 सुख और दुख हैं अस्थायी

श्री कृष्ण प्रेमालय में बने कृष्ण मंदिर में रोज शाम को सांध्य पूजा और आरती के बाद संक्षिप्त धर्म चर्चा होती है।

आचार्य सत्यव्रत की ज्ञान चर्चा में आम व्यक्ति भी अपनी जिज्ञासा लेकर उपस्थित होते हैं। आज की ज्ञान चर्चा में रामदीन भी उपस्थित है।

रामदीन एक मिल में मजदूरी करता है। दिन भर कड़ी मेहनत करने के बाद भी उसे जो मजदूरी मिलती है, वह अपर्याप्त होती है।इससे वह अपने घर का खर्च चलाने और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ है।रामदीन आस्थावान है लेकिन कभी-कभी स्वयं को मिलने वाले दुखों, कष्टों,और संकटों के कारण वह आस्था के पथ से विचलित होने लगता है।कभी-कभी उसके मन में प्रश्न उठता है कि भगवान ने मुझे दिया क्या है?सुबह से शाम तक कामों में खटने के बाद हाथ आते हैं,कोई दो-तीन सौ रुपए उसके हाथों में।इस महंगाई के जमाने में अब इतने रुपयों से उसके एवं पत्नी तथा दो बच्चों के परिवार का पूरा खर्च चलने से तो रहा।शासन की अनेक कल्याणकारी योजनाएं हैं।इससे एक निश्चित मात्रा में राशन,हेल्थ कार्ड से समय-समय पर दवाइयां आदि उपलब्ध हो जाती हैं। फिर भी कोई बड़ी आपदा आने पर यह पूरे परिवार पर भारी पड़ता है।वह दो महीने पहले काम करते हुए सीढ़ियों से नीचे गिर गया था। फैक्ट्री वालों ने प्राथमिक उपचार किया। पैर में प्लास्टर लगा।उसे घर बैठना पड़ा।उसे कुछ रुपए भी दे दिए गए, लेकिन जब निश्चित अवधि के बाद भी पैर की समस्या बनी रही तो कंपनी की ओर से छोटे मैनेजर ने आकर परोक्ष रूप से उसे कह दिया था-अगर जल्दी ठीक नहीं होगे तो हम यूं ही तुम्हारे घर में पूरी तनख्वाह नहीं भेज सकेंगे रामदीन।

आज सांध्य चर्चा में आचार्य ने गीता के एक श्लोक की चर्चा की:-

आचार्य सत्यव्रत:

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।2/14।।

इसका अर्थ है,हे कुन्तीपुत्र!शीत- उष्ण और सुख-दुख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग का प्रारम्भ और अन्त होता है।उनकी उत्पत्ति होती है तो विनाश भी होता है।वे अनित्य हैं।इसलिए,हे भारत !उनको तुम सहन करो।

जीवन में मिलने वाली खुशी,कष्टों,सुख और दुख को समान भाव से सहन करते रहना चाहिए।ये आते जाते रहते हैं।

आज वहां उपस्थित रामदीन ने आचार्य सत्यव्रत से प्रश्न किया,

रामदीन:महाराज जी!मैं सुबह से निरंतर परिश्रम करता रहता हूं लेकिन शाम होते-होते भी मुझे मनोवांछित परिश्रमिक नहीं मिल पाता है। धन की कमी के कारण मेरे परिवार का उचित पालन पोषण नहीं हो पा रहा है।ऐसा क्यों? मेरे लिए सुख और दुख दोनों भावों को समान भाव से सहन कर पाना कितना मुश्किल है,यह तो आप समझ ही रहे होंगे।

आचार्य सत्यव्रत:सुख और दुख मिलने के कारण अनेक होते हैं।जिन परिस्थितियों को बदलना मनुष्य के हाथों में है,वह उन्हें परिवर्तित कर देता है,लेकिन अन्य परिस्थितियों को वह अकेले नहीं।यह सच है कि समान प्रयत्न करने पर भी दो लोगों को अलग-अलग फल मिल सकते हैं।एक व्यक्ति थोड़े परिश्रम से ही अधिक प्राप्त कर लेता है,और दूसरा व्यक्ति बहुत कम पाता है।अब परिस्थितियां रातों-रात तो बदल नहीं सकती हैं।कष्ट तो बड़े-बड़े लोगों के जीवन में भी आते रहते हैं। जिन चीजों को भोगना ही पड़ता है तो उन कष्टों के लिए किसी को दोषी ठहराते हुए निराश भाव से भोगने से क्या मतलब है? उचित यही होगा कि कष्ट में भी संतुलित रहते हुए अपना धैर्य बनाए रखा जाए और उचित समय की प्रतीक्षा की जाए। दुख के दिन भी बदलते हैं।

रामदीन: तो महाराज क्या यह अन्याय करना नहीं हुआ,ईश्वर का या उस प्राकृतिक न्याय व्यवस्था का, जिसकी आप चर्चा करते हैं।

आचार्य सत्यव्रत: नहीं रामदीन! ईश्वर या उसकी प्राकृतिक न्याय व्यवस्था किसी से अन्याय नहीं करती है। पूर्व जन्म का प्रारब्ध और उसका फल इस जन्म में भोगना होता है लेकिन अपने वर्तमान अच्छे कार्यों से हम उसे एक बड़ी सीमा तक सीमित भी कर सकते हैं।साथ ही किसी भी तरह के बाह्य कारकों वाले अन्याय और असमानता को दूर करने के लिए अपने स्तर पर भी प्रयास करना होता है और इसके लिए अनेक माध्यम होते हैं। यह कार्य करने के लिए ईश्वर उपस्थित नहीं होंगे। मनुष्य को अपने हिस्से का कर्म तो करना ही होगा।समाज होता है।शासन की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सबको मिले,इसके लिए वितरण की सुनिश्चित व्यवस्था होती है और कोई अन्याय होने पर न्याय व्यवस्था भी है। अतः किसी कमी या असमानता को दूर करने के लिए समाज के स्तर पर भी लोगों को अपने आसपास पीड़ित वंचित लोगों की सहायता करना चाहिए। ऐसे किसी कष्ट में पड़े हुए व्यक्ति को भी किसी उद्धार करने वाले की प्रतीक्षा करने के बदले स्वयं अपनी बात रखने के लिए आगे तो आना ही होगा। एक व्यक्ति अपने कर्मों से भाग्य नहीं बदल सकता है तो समाज के सक्षम लोगों को उसकी सहायता के लिए आगे आना होता है। अनेक नि:स्वार्थ समाज सेवी संगठन ऐसा करते भी हैं।

डॉ.योगेंद्र कुमार पांडेय