जीवन सूत्र 19:भीतर की आवाज की अनदेखी न करें
इस लेखमाला में मैंने गीता के श्लोकों व उनके अर्थों को केवल एक
प्रेरणा के रूप में लिया है।यह न तो उनकी व्याख्या है न विवेचना क्योंकि मुझमें मेरे
आराध्य भगवान कृष्ण की वाणी पर टीका की सामर्थ्य बिल्कुल नहीं है।मैं बस उन्हें आज
के संदर्भों से जोड़ने व स्वयं अपने उपयोग के लिए जीवन सूत्र ढूंढने व उनसे सीखने का
एक मौलिक प्रयत्न मात्र कर रहा हूं।वही मातृभारती के आप सुधि पाठकों के समक्ष भी प्रस्तुत
कर रहा हूं।आज प्रस्तुत है 19 वां जीवन सूत्र:
19-
भीतर की आवाज की अनदेखी न करें
देह का समापन इस जीवन
की यात्रा की पूर्णता है लेकिन यह आगे की यात्रा के लिए केवल एक पड़ाव के रूप में है।जहां
देहांत के बाद एक नई यात्रा शुरू होती है। जीवन में कुछ भी स्थाई नहीं है,फिर भी यहां
के सांसारिक संबंधों को हम स्थाई मानकर उनके वियोग की कल्पना मात्र से दुख से भर उठते
हैं। मानव जीवन में आत्मा की प्रमुखता को और स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते
हैं: -
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।(2/29)।
इसका अर्थ है:-
कोई इसे आश्चर्य के समान देखता है; कोई इसके विषय में आश्चर्य के समान कहता है; और कोई अन्य पुरुष इसे आश्चर्य के समान सुनता है; और फिर कोई सुनकर भी नहीं जानता।।
वास्तव में इस श्लोक में वर्णित आत्मा के स्वरूप को जानना अत्यंत
कठिन है। एक तो यह दिखाई नहीं देता है। ऊपर से प्रारंभ में इस पर रहस्य के इतने आवरण
होते हैं कि इसे देखकर इसके वास्तविक स्वरूप को देख पाना या महसूस कर पाना अत्यंत कठिन
होता है।
निर्वाण अष्टक में शंकराचार्य
जी लिखते हैं:-
मेरे लिए न भय है, न मृत्यु, न जाति भेद न पिता, न माता, न जन्म,
न बंधु, न मित्र, और न गुरु। मैं चिदानंद रूप हूं ।मैं शिव हूं।
यह सच है कि आत्मा
मनुष्य के लिए दिग्दर्शक की भूमिका निभा सकता है। इसके लिए पहुंचा हुआ संत या तपस्वी
होना आवश्यक नहीं है।अगर हम स्वयं में आत्मा को महसूस करते हैं तो उसी क्षण से आत्म
तत्व से मार्गदर्शन प्राप्त करने की स्थिति में पहुंच जाते हैं। इसका प्रमाण हम इस
स्थिति से देख सकते हैं कि कोई त्रुटि होने पर या गलती करने पर हमारी अंतरात्मा हमें
सचेत करती है। किसी बड़ी गलती के लिए मनुष्य पश्चाताप करता है और प्रायश्चित करने की
भी कोशिश करता है, ताकि उसका मन पूर्व की तरह निर्मल और शुद्ध हो जाए। महात्मा गांधी
भी अपने जीवन में अंतरात्मा की आवाज को अत्यधिक महत्व देते थे।उन्होंने उपवास के माध्यम
से आत्मशुद्धि की अवधारणा पर भी बल दिया था।
आत्मा की विशेषताओं
का वर्णन करते हुए आचार्य भद्रबाहु कहते हैं-
जल ज्यों-ज्यों स्वच्छ होता है,द्रष्टा त्यों-त्यों उसमें प्रतिबिंबित
रूपों को स्पष्टतया देखने लगता है।इसी प्रकार अंतस् में ज्यों-ज्यों तत्व रुचि जाग्रत
होती है,त्यों-त्यों आत्मा तत्व ज्ञान प्राप्त करता जाता है। यह कार्य इतना कठिन भी
नहीं है कि हम साधारण मनुष्य इसका अभ्यास शुरू न कर सकें।…….एकांत में चुपचाप बैठ कर
अपने अंतर्मन की गहराइयों में उतरने का और अपना सब कुछ उस ऊपर वाले परम तत्व को समर्पित
कर देने का भाव मन में लाने का।
आज की गद्य कविता :चैंपियन
शिखर पर पहुंचने वालों को/
उतरना होता है/
एक दिन
शिखर से धीरे-धीरे /
फिर धरातल
पर आकर/
बनानी होती
है /
उन्हें
अपनी सही और स्थाई जगह/
शिखर से
उतरना पतन या ढलान नहीं है/
यह है जीवन
की एक स्वाभाविक स्थिति/
जब मन
तैयार होता है/
एक नई भूमिका को/
जब एक स्तर
तक/
सब प्राप्त
कर लेने के बाद/
चढ़ाई और
दौड़ में/
आगे निकलने
की होड़ थम जाती है/
फिर इस नई
भूमिका में /
हार और जीत
से अलग/
व्यक्ति
अपनी पहचान खुद बन जाता है/
जैसे/
टेलर
स्विफ्ट, बियॉन्से और बीटीएस को पीछे छोड़/
यूट्यूब
स्ट्रीम में बन गईं/
दुनिया की
सबसे अधिक सुनी जाने वालीं
सिंगर /
अलका
याग्निक/
गिनीज बुक
ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स बनाकर
/कि
चैंपियन कभी रिटायर नहीं होते/
वे स्वयं बन जाते हैं)/
एक जीती
जागती संस्था।
डॉ.योगेंद्र
कुमार पांडेय