गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 173 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 173

जीवन सूत्र 536 आत्मतत्व की खोज आवश्यक


भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।

आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।(13/7)।

इसका अर्थ है:- भगवान कृष्ण अर्जुन को तत्वज्ञान अर्थात परमसत्ता को प्राप्त करने के लिए उपाय बताते हुए कहते हैं,

कि स्वयं में श्रेष्ठता के अभिमान का न होना, दिखावे के आचरण का न होना, अहिंसा अर्थात किसी भी प्राणी को न सताना, क्षमाभाव, सरलता,आस्था एवं अनुकरण भाव के साथ गुरु की सेवा, बाहर-भीतरकी शुद्धि,अंतःकरण की स्थिरता और मनका वशमें होना आवश्यक है।

जीवन सूत्र 537 श्रेष्ठता के अभिमान से मुक्त रहें

वास्तव में मनुष्य श्रेष्ठता के अभिमान में रहता है।वह स्वयं के सम्मान को लेकर अत्यधिक सजग रहता है। आत्मसम्मान तो ठीक है लेकिन बहुधा वह अपने अहं की संतुष्टि के लिए अतिसम्मान का आकांक्षी हो जाता है। उसके मन में यह भाव रहता है कि उसमें अमुक गुण हैं और ये अलग तरह के हैं,बल्कि और लोगों से अधिक हैं, इसलिए उसका सम्मान करते हुए उससे विशेष व्यवहार किया जाना चाहिए।स्वयं की सर्वोच्च विशिष्टता का स्वबोध बहुत खतरनाक है। इससे व्यक्ति दिखावे का आचरण करने लगता है।अहिंसा और किसी भी तरह से लोगों को न सताने का तात्पर्य उन्हें कष्ट न देने के भाव के साथ-साथ उन्हें आहत न करने से है।

जीवन सूत्र 538 किस्से की भावनाएं आहत ना करें


असावधानीवश मनुष्य दैनिक जीवन में अनेक लोगों की भावनाओं को अकारण ही आहत करता रहता है।यह स्थिति अस्वीकार्य है क्योंकि उम्र,पद,सांसारिक प्रतिष्ठा आदि में एक व्यक्ति बड़ा हो सकता है लेकिन आत्मा के धरातल पर सभी समान हैं। इसी तरह मनुष्य में क्षमा भाव होना चाहिए हालांकि जानबूझकर नुकसान करने वाले और प्रताड़ित करने वाले किसी व्यक्ति को हृदय से क्षमा कर पाना अत्यंत कठिन होता है।ज्ञान प्राप्ति के लिए भगवान कृष्ण ने सरलता अपनाने को कहा है। बिना दिखावे और दोहरे आचरण के निष्कपट व्यवहार। जीवन में गुरु का दर्जा अत्यंत उच्च है उन्हें केवल ज्ञान सिखाने वाले तक सीमित नहीं किया जा सकता इसीलिए गुरु कोई भी हो सकता है। उस गुरु के प्रति मन में श्रद्धा और समर्पण की भावना रखे बिना गुरु से वास्तविक ज्ञान का प्रवाह संभव ही नहीं है। अगर अर्जुन स्वयं को देश का भावी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर मानकर गुरु द्रोण से सीखने की कोशिश करते तो बुरी तरह असफल हो जाते। शुद्धता केवल बाह्य साफ-सफाई तक सीमित नहीं है इसके लिए मन की शुद्धि आवश्यक है।मन के स्थिर होने और विषय रूपी घोड़ों को यहां-वहां भागने से रोकने के लिए भगवान कृष्ण ने साधना और सदवृत्तियों के अभ्यास के लिए कहा है।कुछ इस तरह कि किसी मैच में उतरने से पहले कोई खिलाड़ी महीनों अभ्यास करता है और अपने शरीर को फिट रखता है।


जीवन सूत्र 539 आत्मज्ञान के लिए दूरदर्शी बनें, सदा श्रेष्ठ समय और युवावस्था नहीं रहती


भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।

जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।(13/8)।

असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु । नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।(13/9)।


इस के अर्थ में भगवान कृष्ण ने ज्ञान तत्व की विशेषता पर आगे प्रकाश डालते हुए कहा है कि इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य का होना,अहंकार का न होना और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियोंमें दुःखरूप दोषोंको बार-बार देखना,पुत्र, स्त्री, घर, और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना ये ज्ञान है।

केवल यह कह देना और उपदेश दे देना पर्याप्त नहीं होता कि मनुष्य को इंद्रियों के विषयों से दूर हटाना चाहिए,तो उसका आत्म कल्याण हो सकता है। वास्तव में यह अत्यंत कठिन कार्य है। रूप, रस, शब्द, स्पर्श एवं गंध 5 विषय हैं, जिनकी अनुभूति के लिए क्रमशःनेत्र,रसना,कान,त्वचा व नाक ये 5 ज्ञानेंद्रियां हैं।बाह्य विषयों का ज्ञान कराने में मनुष्य के लिए ज्ञानेंद्रियों की अति महत्वपूर्ण भूमिका है। इंद्रियों के विषयों में वैराग्य से तात्पर्य इन विषयों के गुलाम बनने के स्थान पर आवश्यकता अनुसार ही इंद्रियों से इनका संज्ञान लेने से है लेकिन मनुष्य है कि विषयों के आकर्षण में बंधकर इनकी गुलामी करने लगता है और तब इंद्रियां मनुष्य के मन के नियंत्रण से बाहर चली जाती हैं।वास्तव में विषय पांच हैं,लेकिन इनके क्षेत्र अनेक और अनंत बन जाते हैं। मनुष्य कहां-कहां विषय की नई-नई श्रेणियों के पीछे भागे, इसलिए भगवान ने इनसे वैराग्य अर्थात आसक्ति भाव के अभाव की बात की है न कि इनके पूर्णतः त्याग की।अगर ये विषय मनुष्य को रोगी बना दें तो उपचार के लिए कड़वी दवा की आवश्यकता तो होगी न? और यह दवा लेनी भी तुरंत पड़ेगी,तब बात बनेगी…... जब ये विषय परेशान करें न कि "आज नहीं, कल मैं दवा ले लूंगा" का टालने वाला दृष्टिकोण।वहीं मनुष्य के अहंकार का सबसे बड़ा कारण अपनी स्थिति को स्थायी, सर्वशक्तिशाली और सर्वाधिक उपयुक्त समझने लगना। वास्तविकता इसके विपरीत है। आत्मज्ञान के लिए जन्म,मृत्यु,बुढापा तथा बीमारियों में दुख और दोषों की स्थिति में से मनुष्य का परिचित रहना आवश्यक है।अनेक संभावित कष्ट केवल व्याधि,वृद्धावस्था या मृत्यु के समय ही नहीं होते,जन्म में भी कष्ट की अनुभूति है, लेकिन जन्म लेने वाला उस पीड़ा का अनुभव नहीं कर पाता है।संतान,स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का न होना अत्यंत कठिन है, क्योंकि ये सब स्वाभाविक हैं।


जीवन सूत्र 540 सांसारिक नातों से अत्यंत गहरे राग से बचें


यहां भगवान कृष्ण यह कहना चाहते हैं कि इन सब से हमारा नाता केवल सांसारिक है, कुछ समय या एक निश्चित कालावधि के लिए है।अगर इनसे संबंधों को लेकर मन में स्थायित्व का भाव आ गया तो यह मनुष्य के ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। प्रिय और अप्रिय दोनों ही स्थितियों में सम रह पाने में भी इसी दृष्टिकोण से सहायता मिलती है।


डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय





(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय