गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 158 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 158

जीवन सूत्र 476 सृष्टि के कण-कण में अनुभूति का विस्तार

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो मतः।(6/32)।

इसका अर्थ है:-हे अर्जुन ! जो पुरुष सब जगह समान रूप से अपने को ही देखता है। चाहे सुख हो या दु:ख स्वयं भी वही अनुभूति करता है,वह परम योगी माना गया है।

एक सच्ची मानव की दुनिया केवल स्वयं तक सिमटी नहीं रह सकती है।वह सृष्टि के कण-कण में ईश्वर को देखता है।सभी प्राणियों के सुख और दुख को अपना मानता है और यथासंभव सभी की सहायता करने का प्रयत्न करता है।


जीवन सूत्र 477 सुपात्र की करें मदद


अब यहां यह निर्धारित करना थोड़ा कठिन है कि किन लोगों की सहायता की जाए और किस सीमा तक सहायता की जाए।वास्तव में कभी-कभी 'होम करते हाथ जले वाली स्थिति होती है जैसे अगर आपने किसी व्यक्ति कोई स्थिति में यह संकट में देखकर आपने सहायता की कोशिश की तो होता यह है कि फिर वह और सहायता की अपेक्षा करते हैं और कभी-कभी तो लोग गले पढ़ने की स्थिति में पूरे का पूरा अपना भार आप पर डालने की कोशिश कर सकते हैं।


जीवन सूत्र 478 दूसरों की स्थिति को

समझने का करें प्रयास


मुझमें एकीभाव से स्थित हुआ जो योगी सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित मेरा ध्यान और स्मरण करता है, वह सब कुछ बर्ताव करता हुआ भी मुझ में ही बर्ताव कर रहा होता है।

भगवान कृष्ण के ये वचन अर्जुन के लिए अमूल्य हैं।एक तरफ श्री कृष्ण शांति दूत बनकर हस्तिनापुर जाते हैं और युद्ध रोकने का प्रयास आखिरी क्षण तक भी करते हैं तो दूसरी ओर युद्ध के अंतिम रूप से निर्धारित हो जाने के बाद उसमें विजय के लिए पांडवों की ओर से निहत्थे शामिल हो जाने वाले कृष्ण हैं, जिनका पूरा समर्थन और आशीर्वाद युधिष्ठिर और उनकी सेना के लिए है।कुछ देर पूर्व श्रीकृष्ण ने मनुष्य को ईश्वर तत्व से जोड़ते हुए एक व्यापक विश्व अवधारणा का संकेत किया है।

अर्जुन ने पूछा : हे प्रभु! ऐसा व्यापक दृष्टिकोण विकसित करने में व्यक्तिगत स्तर पर मनुष्य की सहभागिता के विचार को और स्पष्ट कीजिए।

श्री कृष्ण ने कहा: -विश्व के सभी प्राणियों और चराचर में समान दृष्टिकोण रखना वैयक्तिक स्तर पर समाज के प्रति एक निर्णायक सोच है।


सूत्र 479 मनुष्य दूसरों के दुख को अपना समझे

मनुष्य दूसरे व्यक्ति के दुख को अपना दुख समझे। दूसरे व्यक्ति के सुख में आनंदित हो। किसी को पीड़ा में देखकर यथासंभव सहायता को उद्यत हो उठे, यही परम श्रेष्ठ योगी की पहचान है। मनुष्यता की यही कसौटी है।



जीवन सूत्र 480 प्रतिकूल प्रतिक्रिया के बाद भी मनुष्य का व्यवहार संतुलित रहे

अर्जुन: हे केशव! पूर्व में भी आपने इस बात को समझाया है कि सभी मनुष्यों से समान व्यवहार करने का प्रयत्न करना चाहिए लेकिन यह सामने वाले व्यक्ति के आचरण पर निर्भर करता है तथापि मनुष्य का व्यवहार प्रतिकूल प्रतिक्रिया के बाद भी संतुलित होना चाहिए।

श्री कृष्ण:हां अर्जुन! मैंने तुम्हें यही समझाने की कोशिश की है कि हमारे व्यवहार में, लोगों से क्रिया और प्रतिक्रिया में भी संतुलन होना चाहिए। पूर्व धारणा बनाकर हम अतिरेक स्नेह और घृणा का व्यवहार करें तो यह हमारे संतुलित कर्मों पर बुरा प्रभाव डालता है।

अर्जुन :पूर्वधारणाएं भी लोगों के व्यवहार के कारण ही बनती है प्रभु!एक अच्छे व्यक्ति का व्यवहार लोगों से भी अच्छा रहता है और बुरा व्यक्ति हर जगह दूसरों की हानि का ही प्रयास करता है। इसके बाद भी आप समानुभूति की बात कर रहे हैं, इसे मेरे लिए और स्पष्ट कीजिए।

श्री कृष्ण: कोई व्यक्ति दुख में है तो उसका दुख मनुष्य को तभी सही अनुभव होगा जब हम उस व्यक्ति की तरह उस स्थिति में स्वयं को रख कर देखेंगे।यही समानुभूति है। समानुभूति का यह अर्थ नहीं है कि यदि कोई व्यक्ति किसी का नुकसान करने की सोच रहा है तो हम उसकी तरह सोचें और तब भी उसकी सहायता करें। समानुभूति किसी व्यक्ति की स्थिति को सही-सही समझना और इसके आधार पर उचित आचरण करना है। यही कारण है कि सभी व्यक्तियों को समान समझने के बाद भी हम दुष्टों की दुष्टता में सहायक नहीं होते बल्कि उसे रोकने का प्रयास करते हैं।






(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय