बांटकर खाने में अन्न की सार्थकता
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।3/13।।
इसका अर्थ है,यज्ञ के बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो लोग केवल स्वयं के शरीर पोषण के लिए ही पकाते हैं,वे तो पापों को ही खाते हैं।
यज्ञ में देवताओं को विधिपूर्वक भोग अर्पित कर और यज्ञ उपरांत प्राप्त प्रसाद को ग्रहण करना स्वयं में ही हमारी आराधना का ही एक स्वाभाविक क्रम है।अगर मनुष्य का भोजन केवल स्वयं के लिए हो,उसमें अगर मैं के सिवाय किसी दूसरे व्यक्ति को भोजन कराने या सम्मुख आ जाने वाले भूखे व्यक्ति को भोजन प्रदान करने की मानसिकता ना हो तो यह पाप ही है। मनुष्य और पशुओं में यही फर्क है कि मनुष्य सामाजिक होता है।संवेदनशील होता है। भोजन का प्रथम निवाला ग्रहण करने से पहले वो यह देखता है कि आस-पास जो दूसरा व्यक्ति है,उसने भोजन ग्रहण कर लिया है या नहीं।
संस्थागत यज्ञ के साथ-साथ हमारा जीवन भी हर क्षण यज्ञमय है। सार्वजनिक जीवन में अनेक संस्थाएं ऐसी हैं जो गरीब लोगों को, रोगियों को ,असहाय लोगों को भोजन उपलब्ध कराने का कार्य करती है। कोविड महामारी के पिछले प्रकोप में अनेक व्यक्तियों और स्वयंसेवी संस्थाओं ने लोगों तक भोजन पहुंचाने का कार्य किया वह भी तब जब लॉकडाउन के स्थिति थी और मनुष्य जब सबसे सुरक्षित अपने घर में ही था। किसी बाढ़ या प्राकृतिक आपदा के समय लोगों की मदद करने वाले भी सेवा यज्ञ में आहुति देने वाले हैं क्योंकि वे लोग जरूरतमंदों तक सहायता पहुंचाते हैं। मनुष्य अकेले अपने स्तर पर भी लोगों की यथासंभव सीमित सहायता कर और इसके बाद ही अपना भोजन ग्रहण कर यज्ञ के बाद प्रसादमय अन्न को ग्रहण करने की पात्रता हासिल कर सकता है। सहायता प्रत्येक व्यक्ति की नहीं की जा सकती है क्योंकि हर व्यक्ति सहायता प्राप्त करने के लिए पात्र नहीं होता। कभी-कभी अपात्र व्यक्ति भी आडंबर का सहारा लेकर और सहानुभूति अर्जित कर सहायता प्राप्त कर लेना चाहते हैं।अतः दूसरों की सेवा और सहायता के कार्य में भी सुपात्र का चयन करना और सावधानी बरतना अति आवश्यक है।
(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय