जीवन सूत्र 191 नित्य कर्म शरीर ही नहीं आत्म शुद्धि हेतु भी आवश्यक
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है:-
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।4/17।।
इसका अर्थ है कि कर्म का स्वरूप जानना चाहिए और विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा अकर्म का भी स्वरूप जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति अत्यंत गूढ़ और गहन है।
कर्म जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। ग्रंथों के अनुसार मुख्य रूप से कर्मों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-नित्य कर्म,नैमित्तिक कर्म और काम्य कर्म।प्रातः काल से लेकर दिनभर और फिर रात्रि व्यतीत होने के बाद अगले दिन के प्रारंभ होने तक हम जो भी कार्य नियमित रूप से करते हैं,दिनचर्या के वे कार्य नित्य कर्म कहे जाएंगे।ब्रह्म मुहूर्त में प्रातः जल्दी उठना, स्नान, अपनी आस्था और उपासना पद्धति के अनुसार परम सत्ता की आराधना, विद्या ग्रहण,जीविकोपार्जन के कार्य, भोजन,शयन आदि ये कार्य न सिर्फ अपने जीवन को गति प्रदान करने के लिए न्यूनतम आवश्यक कार्य हैं बल्कि सुव्यवस्थित रुप से करने से इनसे जीवन में एक अनुशासन आता है और ये हमारे मूल संस्कारों के निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।पिछले आलेखों में हमने पंच महायज्ञ की चर्चा की है,वे भी इसी के अंतर्गत आते हैं।यथासंभव किए जाने वाले ये पंच महायज्ञ हमारे नित्य कर्म में शामिल होते हुए हमारे द्वारा हो रहे अनायास दोषों का परिहार भी करते चलते हैं।
जीवन सूत्र 192 नैमित्तिक कर्म जोड़ते हैं स्वयं को परिवार और समाज से
नैमित्तिक कर्म विशेष अवसरों के लिए होते हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार 16 संस्कार भी इसके अंतर्गत आते हैं।ये हैं-गर्भाधान,पुंसवन,सीमन्तोन्नयन,जातकर्म, नामकरण,निष्क्रमण,अन्नप्राशन,मुंडन,कर्णवेधन, विद्यारंभ,उपनयन,वेदारंभ,केशांत,समावर्तन, विवाह और अंत्येष्टि।
जीवन सूत्र 193 अच्छी परंपराओं के पालन से निर्मित होते हैं अच्छे संस्कार
हमारे व्रत,उपवास,त्योहार पश्चाताप कर्म आदि इसके अंतर्गत आते हैं,जो हमें एक नई ऊर्जा से भर देते हैं।काम्य कर्म कामनाओं और इच्छा की पूर्ति के लिए किए जाते हैं।
जीवन सूत्र 194 काम्य कर्म हमें भटकाते हैं
अगर हमने सांसारिक सुखों और भोगों की कामना की और इसके लिए प्रयासरत रहे तो यह भी काम्य कर्म है और अगर आध्यात्मिक उन्नति के लिए हम साधनारत रहते हैं,तो यह भी काम्य कर्म है।कर्मों में अगर सात्विक भाव रहा,कर्तापन और आसक्ति को हमने छोड़ दिया तो ये अकर्म बन जाते हैं।
जीवन सूत्र 195 बुरे कर्म हैं विकर्म, इनसे बचें
हिंसा, झूठ आदि विकर्म हैं।आगामी आलेखों में हम अकर्म और विकर्म की चर्चा करेंगे।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय