गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 100 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 100


जीवन सूत्र 201 कर्मों से निर्लिप्त रहने वाला कर्मबंधन से अलग ही रहता है

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है:-

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।

कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः।।4/20।।

इसका अर्थ है,जो व्यक्ति कर्म और उसके फल की आसक्ति का त्याग करके संसार में किसी के आश्रय से रहित और सदा तृप्त(संतुष्ट) है,वह गहराई से कर्मों को करता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता है।


जीवन सूत्र 202 जल में कमल के पत्ते की तरह रहें आसक्ति रहित


कर्मों को करते हुए भी जल में कमल की भांति जल से अर्थात कर्मों के प्रभाव से निर्लिप्त रह पाना अत्यंत कठिन है। सामान्य मनुष्य कर्मों की तरफ उसके गुण - दोष और फल के अनुमान के आधार पर बड़ी तीव्रता के साथ आकर्षित होता है।


जीवन सूत्र 203 सही लक्ष्य की प्राप्ति लाती है मन में संतोष



उन कर्मों को पूर्ण करता है और लक्ष्य प्राप्ति के बाद प्रसन्नता का अनुभव करता है। अगर उसे वांछित फल नहीं मिले तो वह दुखी भी होता है। एक तो कर्म और उसके फल की आसक्ति का त्याग करना ही कठिन है ऊपर से वह संसार में कोई भी आश्रय ना ले, ऐसा हो पाना तो और भी मुश्किल है।यह उपदेश अर्जुन को दिया गया है जो स्वयं एक समर्थ योद्धा,ज्ञानी और विवेकवान व्यक्ति हैं।


जीवन सूत्र 204 सबसे बड़ा आश्रय है ईश्वर


व्यावहारिक जीवन में मनुष्य कोई न कोई आश्रय अवश्य ढूंढता है।बिना आश्रय के उसे सुखचैन और आराम की अनुभूति भी कहां होती है। कभी उसे धन संपत्ति का आश्रय चाहिए तो कभी मित्रों का,परिजनों का तो कभी अपने कार्य व्यापार आदि के सिलसिले में पारिश्रमिक, लाभ और सुरक्षा रूपी आश्रय चाहिए।वहीं वास्तविकता यह है कि जिस आश्रय को मनुष्य बड़ा मजबूत चट्टान समझकर चलता है,वक्त आने पर वही उसके पैरों तले से खिसकता नजर आता है।



205 केवल साधनों पर ही निर्भर ना रहें, खुद भी करते रहें पुरुषार्थ

जिन्हें हम आश्रय समझते हैं,वे कर्तव्य पथ के लिए आवश्यकता अनुरूप साधन के रूप में अवश्य स्वीकार्य हो सकते हैं।अगर हम एकमात्र आश्रय उस परम सत्ता को समझें, और कर्मों में ईमानदारी तथा सच्चाई का भाव रखें तो यह पाएंगे कि हमें और कोई आश्रय ढूंढने की आवश्यकता ही नहीं है। साथ ही मन का न होने पर संतुष्टि भाव रखना आवश्यक है।निराशा और क्षोभ के साथ कर्म के पथ पर चलना हानिकारक है।संतुष्टि भाव तभी निर्मित होगा जब हम किसी भी परिणाम को स्वीकार कर खुले मन से आगे बढ़ने की कोशिश करेंगे।इस तरह का दृष्टिकोण रखने पर बड़ी गहराई के साथ कर्म करने पर भी कर्मों के स्वाभाविक दोष दूर रहते हैं।


(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय