जीवन सूत्र 196 कर्मों में सात्विकता लाकर उसे बनाएं अकर्म
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है: -
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।4/18।
इसका अर्थ है,जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है(कर्म में संलग्न होते हुए भी योगी भाव है)और जो अकर्म में कर्म देखता है,वह मनुष्यों में बुद्धिमान् है,योगी है और सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है।
पिछले आलेख में हमने नित्य कर्म,नैमित्तिक कर्म और काम्य कर्म की चर्चा की।
जीवन सूत्र 197 लक्ष्य का सर्वथा त्याग अनुचित
वास्तव में कर्म करने के समय यह असंभव है कि बिना कोई लक्ष्य या उद्देश्य निर्धारित किए कर्म किया जाए। यही कारण है कि विद्यार्थी अपनी पढ़ाई का और परीक्षाओं,खेलकूद प्रतियोगिताओं आदि में सफलता का लक्ष्य लेकर चलते हैं।विभिन्न सेवा, व्यापार आदि के उद्देश्य में कार्य कर रहे लोग भी एक सुनिश्चित लक्ष्य निर्धारित नहीं करेंगे तो दिशा भ्रमित होने का खतरा है।ये लक्ष्य मानव जीवन में प्रेरणा हैं। गीता में जिस कर्तापन के अभाव और कर्मों के फलों में आसक्ति को छोड़कर कर्तव्य करने की बात की जाती है,वहां भी इसका अर्थ लक्ष्यविहीन,अनियंत्रित और भ्रमित कार्य नहीं है।
जीवन सूत्र 198 कर्मों में अनुशासन का होना आवश्यक
गीता के श्लोक तो एक श्रेष्ठ मानव के रूप में कार्य करते समय स्वअनुशासन,परिश्रम और आनंद भाव से कर्म करने का संदेश देते हैं। वास्तव में हम बिना कर्म किए एक क्षण भी नहीं रह सकते हैं।श्री कृष्ण का अर्जुन को निर्देश कर्मों को जीवन का अनिवार्य अंग समझकर और इन्हें आंतरिक प्रसन्नता का स्रोत समझकर बिना किसी लोभ और भौतिक कामनाओं की प्राप्ति के कर्म करने से है।
जीवन सूत्र 199 कर्म करें फिर जो मिल जाए वह करें स्वीकार
कर्मों में अकर्म देखने का अर्थ है लक्ष्य केंद्रित कर्म होते हुए भी उसे केवल फल की चिंता करते हुए दबावयुक्त कर्म के बदले सात्विक भाव से "परिश्रम के बाद भी जो मिल जाए वह स्वीकार, फिर मेहनत और फिर फिर, यह जीवन का सार", यह मानते हुए कर्म करना।
जीवन सूत्र 200 कर्मों की सफलता हेतु सुव्यवस्थित रीति अपनाना उपयोगी
कर्म करते समय अकर्म अर्थात सात्विक भाव आएंगे,तो हम यह भी पाएंगे कि कर्म करते समय लक्ष्य प्राप्ति का भारी दबाव, जल्दबाजी में अव्यवस्थित होने का खतरा और हड़बड़ाहट,ये सारी चीजें भी समाप्त होने लगेंगी।फल की चिंता और कर्तापन के भाव को छोड़ते हुए किए जाने वाले ऐसे अकर्म भी कर्म बन जाते हैं अर्थात कर्म को सार्थकता प्रदान कर देते हैं।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय