जीवन सूत्र 366 खुशी में संयमित और दुख में संतुलित रहें
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने वीर अर्जुन से कहा है:-
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः।(5/20)।
इसका अर्थ है:-
जो प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं होता और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न नहीं होता,वह स्थिरबुद्धि,संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है ।
भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी में स्थितप्रज्ञ मनुष्य का एक महत्वपूर्ण लक्षण बताया गया है।
जीवन सूत्र 367 मोह माया से परे रहें
वह मोह और माया से परे होता है।अब इसका अर्थ यह नहीं है कि उसके भीतर संवेदना नहीं होगी और वह निष्ठुर प्रकृति का होगा बल्कि वह खुशी या निराशा का अवसर आने पर भी संतुलित रहता है। व्यावहारिक रूप से यह अत्यंत कठिन स्थिति है कि मनुष्य प्रसन्नता के क्षणों में भी अतिरिक्त खुशी महसूस न करे।यह भी मुश्किल है कि कोई असफलता या हानि उसमें निराशा न भरे। वास्तव में ऐसा होना स्वभाविक होने पर भी मन में यह भाव होना चाहिए कि न तो यह सुख स्थाई है और न यह दुख। अतः मनुष्य न तो इन्हें अपने पास स्थाई रूप से रोक सकता है और न इन्हें हमेशा के लिए अपने से दूर रख सकता है।
सूत्र 368 सुखों पर एकाधिकार न समझें
हां मनुष्य अगर इन पर अपना अधिकार समझने की कोशिश करे तो समस्या आती है।
हमारी समस्या कई बार यह हो जाती है कि हम कर्तव्य पथ पर हम एक सुनिश्चित परिणाम की आशा के साथ अपने कदम बढ़ाते हैं। बंधी बंधाई जिंदगी जीने वाला मनुष्य वही पसंद करता है जो उसे चाहिए।
जीवन सूत्र 369 अड़चनों से ना हो विचलित
इससे थोड़ा भी अलग हुआ तो हम विचलित हो जाते हैं। उदाहरण के लिए हम टेलीविजन पर कोई रोमांचक मैच देख रहे हैं ऐसी स्थिति में परिवार का कोई छोटा बच्चा आकर हमें अपनी पेंटिंग दिखाना चाहे तो हम झल्ला उठते हैं। हम उससे कुछ इस तरह के वाक्यों का प्रयोग करते हैं - बाद में आना।
इसे फिर से बना कर लाओ।चुपचाप बैठ जाओ, आदि।अपने तय कार्य के बीच में इस नए कार्य को हमने एक बोझ समझ लिया है।वहीं अगर उस बच्चे के स्थान पर अचानक एक मित्र कोई खुशखबरी लेकर आ जाए तो हम उछल पड़ते हैं।हम कुछ देर के लिए मैच देखना भी भूल जाते हैं।मन के अनुकूल बात को ही स्वीकार करने के पीछे हमारा यह मनोविज्ञान होता है कि कोई विपरीत परिस्थिति सामने आ गई तो वह हमारा नुकसान करेगी,लेकिन यह सही नहीं है।यह तथाकथित झंझट वाली परिस्थिति ही हमें आगे क्या बड़ा लाभ करा दे,यह हमें भी नहीं मालूम।
जीवन सूत्र 370 ना जाने किस मोड़ पर प्रभु मिल जाएं
जीवन में सुख -दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय, निंदा-अपयश आदि को कर्ता के बदले साक्षी या प्रेक्षक भाव से समान रूप से लेने की कोशिश करें तो जीवन में इन्हें लेकर मानसिक उथल-पुथल की स्थिति नहीं बनेगी।ऐसा कर पाना कठिन अवश्य है,लेकिन अभ्यास से असंभव नहीं क्योंकि इन्हीं सबसे आगे का मार्ग खुलता है- जीवन में धीरे-धीरे संतुलन प्राप्त करने का।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय