गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 29 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 29

भाग 27 जीवन सूत्र 29 या माया मिलेगी या मिलेंगे राम

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: -

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।(2/44)।

इसका अर्थ है:- हे अर्जुन,(भोग व ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए कई प्रकार की क्रियाओं का वर्णन करने वाली)उस वाणीसे जिनका अन्तःकरण हर लिया गया है अर्थात् जो भोगों की ओर आकर्षित हो गए हैं और ऐश्वर्य में जो अत्यन्त आसक्त हैं,उन मनुष्यों की परमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती।

सांसारिक चीजों से अपनी प्रवृत्ति को हटाने और परमात्मा में स्थिर करने को ही निश्चयात्मिका बुद्धि कहा जाता है। मनुष्य का मन सुख सुविधाओं और भोग के साधनों की ओर दौड़ता है।अगर हम इन्हें पाने की कामना करें तो इच्छाएं अनंत हैं।अगर छोड़ना चाहें तो कामनाओं और भोगों को प्राप्त करने की इच्छा का त्याग अर्थात एक ही संकल्प काफी है।पाने की लालसा अनेक और छोड़ने में निश्चयात्मिका बुद्धि एक है।वास्तव में ऐसा कह देना आसान है पर हम भोगों की प्राप्ति की लालसा को व्यवहार में कहां छोड़ पाते हैं?अगर हमारे मन ने ईश्वर को प्राप्त करने के उद्देश्य में अपनी बुद्धि स्थिर कर दी है तो फिर थोड़े अभ्यास के बाद यह विचलित नहीं होगी और अगर हम विकल्प की गुंजाइश रखेंगे तो बुद्धि मन की सहायता से यहां वहां भटकती रहेगी।आसन्न भोगों-सुखों के हमारे लिए आवश्यक न होने पर भी उन्हें आवश्यक और अपरिहार्य सिद्ध करती रहेगी।अतः थोड़ा मुश्किल होने पर भी "यह भी प्राप्त कर लू"', साथ ही "वह भी प्राप्त कर लूं" के स्थान पर "मैं परमात्मा में मन लगाने की कोशिश करूं,जो चीजें आवश्यक होंगी,स्वतः ही प्राप्त होती जाएंगी",ऐसा दृष्टिकोण अधिक उचित है।

वास्तव में अगर मनुष्य अध्यात्म के पथ पर आगे बढ़ना चाहता है तो उसे सांसारिक मोह माया से मुख मोड़ना ही होगा।अगर उसकी बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होगी तो वह यादृच्छिक आधार पर वन में कुलांचे भरने वाले मृग की तरह इधर-उधर भटकता रहेगा।

(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

आज की भाविका

मेरी एक मौलिक कविता की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं:-

हे ईश्वर!

थाम लो मेरा हाथ

कि स्वयं द्वारा पकड़ा गया हाथ

आप कभी नहीं छोड़ते,

और

देना उन हाथों को मजबूती,

जो संकटों में थामते हैं

किसी का हाथ,

और

आते हैं मेरे जीवन में भी

थामने मेरा हाथ,

तुम्हारा प्रतिनिधि बनकर।

डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय