गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 52 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 52




भाग 51 जीवन सूत्र 59 और 60


जीवन सूत्र 59:मन के दमन के बदले

उसे मोड़े दूसरी दिशा में


भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-


कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।(3.6)।

इसका अर्थ है:- जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इंद्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोक कर मन से उन इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दंभी कहा जाता है।

प्रायः यह होता है कि मनुष्य कर्मेन्द्रियों को रोककर उन इन्द्रियों के विषय-भोगों का मन से चिन्तन करता रहता है। वह वास्तव में ढोंगी है। असल में वह सदाचरण का दिखावा करता है। अब यहां प्रश्न यह है कि मन के सहयोग से इंद्रियों को उन विषयों की ओर आकर्षित होने से कैसे रोका जाए?

उम्र के हर दौर में आकर्षण बिंदु अलग-अलग हो सकते हैं। एक बच्चे के लिए उसके बाल खेलों में आकर्षण है। किशोरावस्था में आसमान से चांद तारे तोड़ लाने की क्षमता और उसे इसका आभास कराने वाली चीजों में आकर्षण है। युवावस्था में अंततः एक सम्मान, प्रतिष्ठा और सुख सुविधाओं की प्राप्ति के स्रोतों में आकर्षण है। जीवन के उत्तरार्ध में परम सत्ता से लौ लगाने और उससे साक्षात्कार की उत्कंठा में आकर्षण है।

जीवन के सहज आकर्षण केंद्रों के दमन, मनाही और वर्जनाओं के बदले उससे बड़ी स्थापना की जा सकती है और अपने चिंतन बिंदु को दूसरे सकारात्मक लक्ष्यों और दिशाओं में मोड़ा जा सकता है। उदाहरण के लिए युद्ध के मैदान पर शत्रु से आर-पार की लड़ाई में बहादुरी से युद्ध करने वाले सैनिक का पहला आकर्षण उसका कर्तव्य है, न कि उसका परिवार और दुनिया भर की मोह माया इसके लिए मानसिक दृढ़ता और संकल्प की आवश्यकता होती है। अभ्यास की भी आवश्यकता होती है। एक कड़वी दवाई की तरह।


जीवन सूत्र 60 कर्मों को बदल दें सात्विकता में


गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-


नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।


शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।3/8।।


इसका अर्थ है, हे अर्जुन!तू शास्त्रविधि से निश्चित किए हुए कर्तव्य-कर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।


गीता में कर्म, अकर्म और विकर्म की चर्चा की गई है कर्म अर्थात किसी लक्ष्य या उद्देश्य की प्राप्ति से किए जाने वाले कर्म, अकर्म अर्थात कर्मों में फल की आसक्ति का अभाव अर्थात सात्विक निष्काम कर्म, वहीं विकर्म का अर्थ है- विपरीत कर्म, बुरे कर्म, निषिद्ध कर्म।


जब महाभारत के युद्ध से पूर्व अर्जुन अपने हथियार रख देते हैं, तो उन्हें युद्ध में प्रवृत्त करना श्री कृष्ण के लिए बड़ी जिम्मेदारी थी। प्रथम दृष्टया अर्जुन के सारे प्रश्न अचूक थे। आखिर भावी रक्त रंजित युद्ध, हताहतों की अगणित संख्या और फिर मानवता को आगामी हजारों वर्षों तक मिलने वाले दंश इन सब से कौन सा उद्देश्य पूरा होने वाला था?अगर अर्जुन की मानें तो बिना उनके कहे भी वे संभवतः यह चाहते थे कि पांडवों को युद्ध भूमि से हट जाना चाहिए और जिस तरह से उन्होंने अपना जीवन वनों में बताया है उसी तरह से आगे का जीवन व्यतीत करते रहें। अपने हथियार रखते समय अर्जुन यह भूल गए थे कि स्वयं श्री कृष्ण शांति दूत बनकर हस्तिनापुर गए थे और दुर्योधन ने न सिर्फ उनकी बात नहीं मानी बल्कि दंभ में आकर उसने श्री कृष्ण को ही बंदी बना लेने का असफल प्रयत्न किया था। अर्जुन यह भी विचार नहीं कर पा रहे थे कि केवल 5 गांव मांगा जाने पर भी दुर्योधन ने उसे देने से मना कर दिया था। थोड़ी देर के लिए अगर पांडव दुर्योधन को ही हस्तिनापुर का राजा स्वीकार कर लेते तो भी नैसर्गिक न्याय के अंतर्गत भी क्या उन्हें केवल 5 गांव प्राप्त करने का अधिकार नहीं था?


केवल युद्ध रोकने के उद्देश्य से अगर पांडव दुर्योधन की सारी शर्तें मान जाते, फिर भी आगे शांति की कोई गारंटी नहीं थी। दुर्योधन फिर लाक्षागृह की तरह कोई न कोई षड्यंत्र आयोजित करता।चचेरे भाइयों के बीच कटुता को उसने एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती वाली स्थिति में पहुंचा दिया था।


शास्त्रोक्त कर्म जन्म के स्थान पर कर्म आधारित थे।रक्षा के उद्देश्य से शस्त्र उठाने वाले सभी क्षत्रिय थे। अर्जुन अपना यह शास्त्र विहित कर्म भूल रहे थे। वह भी पांडवों के एक शीर्ष सेनानायक होते हुए भी और लंबी मंत्रणा विचार विमर्श के दौर के बाद युद्ध का निर्णय हो जाने के बाद भी।


हिंसा और युद्ध एक बुराई है।विकर्म है।ऐसा विकर्म अपने सात्विक उद्देश्य के कारण अकर्म (निस्वार्थ कर्म)बन जाता है, जो धर्म युद्ध के कारण उस समय अर्जुन के लिए बन गया था। पांडवों के सामने लक्ष्य केवल अपने खोए राज्य की प्राप्ति का होता तो यह केवल कर्म होता अर्थात फल के उद्देश्य से किया जाने वाला कर्म। श्री कृष्ण के मार्गदर्शन में पांडवों ने उसे दुर्योधन के अत्याचार से पूरी जनता की मुक्ति के उद्देश्य से किया इसलिए यह कर्म के बदले अकर्म बन गया- एक कर्तव्य कर्म जो सभी की सामूहिक जिम्मेदारी के निर्वहन के लिए किया जाने वाला सामूहिक प्रयत्न था।



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय