भाग
35 जीवन सूत्र 39 और 40
जीवन सूत्र
39: संतुष्टि से आती है स्थितप्रज्ञता
जीवन सूत्र
40:स्थितप्रज्ञता को आचरण में उतारना असंभव नहीं
जीवन सूत्र
39: संतुष्टि से आती है स्थितप्रज्ञता
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: -
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2/55।।
इसका अर्थ है,हे पार्थ! जिस समय व्यक्ति मन में स्थित सभी कामनाओं
को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है,उस समय वह स्थितप्रज्ञ
कहलाता है।
गीता के अध्याय 2 में भगवान श्रीकृष्ण ने स्थितप्रज्ञ
मनुष्य के लक्षण बताए हैं।स्थितप्रज्ञ मनुष्य की अनेक विशेषताएं होती हैं।वहीं अपने
रोजमर्रा के जीवन में भी हम स्थितप्रज्ञता को प्राप्त होते हैं। दैनिक जीवन का हमारा
अधिकांश समय अनेक कार्यों और लक्ष्यों को पूरा करने की भागदौड़ में बीतता है।व्यस्तता
इतनी अधिक रहती है कि हम स्वयं अपने लिए 2 मिनट शांत बैठने का समय नहीं निकाल पाते
हैं।योग प्राणायाम का अभ्यास करना तो दूर की बात है। ऐसे में दिनचर्या के बीच आखिर
स्थितप्रज्ञ कैसे रहा जाए?वास्तव में हम साधारण मनुष्यों के लिए तो यह कठिन बात है
कि हम सभी कामनाओं का त्याग कर दें और आत्मा में ही संतुष्ट रहें।
कामनाओं के संपूर्ण
त्याग के लिए निरंतर अभ्यास की आवश्यकता होती है। दैनिक आवश्यकताओं की आपूर्ति हमारे
लिए अपरिहार्य है।इसके अलावा अनेक कामनाएं भविष्य के असुरक्षा-बोध के कारण हमें संग्रह
हेतु प्रेरित करती हैं। कुछ कामनाओं को मनुष्य स्वयं गढ़ लेता है।जैसे आवश्यकता से
अधिक धन का संग्रह,यश की कामना। यह तो हुई कामनाओं की बात।आत्मा में ही संतुष्ट होने
की स्थिति भी सतत साधना से आती है।
दैनिक जीवन में इस
उच्च साधना अवस्था को हम प्राप्त कर सकते हैं।जब-जब हम अपने कार्य को निष्ठापूर्वक
और ईमानदारी से करते हैं, तब-तब वह कार्य विशिष्ट हो जाता है और एक सही तरह से चुने
गए कार्य तथा उसे संपादित करने की प्रक्रिया स्वत: ही आसक्ति से रहित हो जाती है।इस
स्थिति में किया जाने वाला कार्य इतने मनोयोग से किया जाता है कि यह हमारी आत्मा को
भी उस समय तक के लिए साध कर साधना अवस्था में ला देता है।कोई कार्य करते- करते जब हम
उसमें डूब जाते हैं और आनंद प्राप्त होने लगता है तो वह यही अवस्था होती है। कार्य
चाहे बौद्धिक हो या श्रम का हो।प्रत्येक कार्य महत्वपूर्ण है।देश के लाखों श्रमवीर,
मजदूर,किसान बगैर दार्शनिक शब्दों से गुजरे भी रोज अपने कार्य में तल्लीन होकर स्थितप्रज्ञ
की स्थिति से गुजरते हैं।
जीवन सूत्र
:40 स्थितप्रज्ञता को आचरण में उतारना असंभव नहीं
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है: -
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2/56।।
इसका अर्थ है,दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मनमें उद्वेग नहीं
होता और सुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में लालसा नहीं होती तथा जो राग,भय और
क्रोध से सर्वथा मुक्त हो गया है, वह मननशील मनुष्य स्थिरबुद्धि कहा जाता है।
इस श्लोक में भगवान
श्री कृष्ण ने स्थितप्रज्ञ की परिभाषा बताई है।स्थितप्रज्ञता मनुष्य की एक बड़ी कसौटी
है।आखिर वह कौन हो सकता है,जो दुखों के मिलने पर दुखी नहीं होता, न उसका मन विचलित
होता है।जो सुख के मिलने पर ह्रदय में विशेष आनंद अवस्था का अनुभव नहीं करता। जिसके
मन में किसी के प्रति आसक्ति ना हो।जो किसी बात से भयभीत ना हो। जो क्रोध से पूरी तरह
मुक्त हो।जो अकस्मात कोई निर्णय करने के बदले विचारपूर्वक निर्णय लेता हो।
अध्याय 2 के 54 वें
श्लोक में अर्जुन ने भगवान से स्थिरबुद्धि पुरुष का लक्षण पूछा था कि वह बोलता कैसे
है?बैठता कैसे है?चलता कैसे है?इस पर भगवान ने आगे के श्लोकों में उस स्थिर बुद्धि
मनुष्य की विशेषताओं को बताया। ऐसा स्थितप्रज्ञ मनुष्य समाधि अवस्था में होता है।ऐसा
मनुष्य जिसने परमात्मा तत्व को जान लिया हो।
यहां प्रश्न यह उत्पन्न
होता है कि एक सामान्य मनुष्य के जीवन में गीता का ऐसा स्थितप्रज्ञ मनुष्य किस तरह
आदर्श हो सकता है और उसे रोजमर्रा के आचरण में कैसे उतारा जा सकता है। गौतम बुद्ध ने
कहा था, जीवन में दुख है। दुख का कारण है ।दुख का निदान महत्वपूर्ण है और दुख के निदान
के उपाय को अपनाना चाहिए।
वास्तव में दुख और कठिनाइयां
किसके जीवन में नहीं हैं? इन दुखों के आने पर कष्ट की अनुभूति तो होगी। श्री कृष्ण
का निर्देश, ना बदली जाने वाली स्थिति में इन दुखों को जीवन के उतार-चढ़ाव समझकर समान
भाव से ग्रहण कर लेने का है। यही बात सुख के ऊपर लागू होती है। सुख स्थाई नहीं हैं
कि इन्हें लेकर हर्ष अतिरेक में हम उन्माद की अवस्था में पहुंच जाएं। सुख मनाएं लेकिन
इस भाव के साथ कि एक दिन यह भी बीत जाएगा। आकर्षण बिंदुओं के प्रति आसक्ति भी स्वभाविक
है लेकिन, जो दिखाई देता है वह कभी-कभी पूरा सच नहीं होता। उसके पीछे के संपूर्ण सत्य
को देखने की दृष्टि हमें विकसित करनी होगी। अकस्मात भय तत्व भी उपस्थित होता है लेकिन
जिसके मन और हृदय में आराध्य बसे हैं,भय उसका क्या बिगाड़ लेगा? परिस्थिति वश अचानक
क्रोध भी स्वाभाविक है। कभी-कभी यह किसी के सुधार कार्य के लिए भी होता है। इतना याद
रखें कि क्रोध के साथ विवेक को बनाए रखें अन्यथा क्रोध हमें स्वयं के नियंत्रण से बाहर
कर देता है। हम याद रखें कि यह क्रोध किसी के ह्रदय को दुखी करने वाली भयंकर परिस्थिति
का भी ना हो। श्री कृष्ण के निर्देशों के पालन की शुरुआत हमें अपने रोजमर्रा के छोटे-छोटे
कामों से ही करनी होगी।
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय