गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 35 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 35

भाग 34 जीवन सूत्र 37 मन का मोह के दलदल से दूर रहना आवश्यक

जीवन सूत्र 38:बुद्धि का स्थिर हो जाना ही योग है

जीवन सूत्र 37 मन का मोह के दलदल से दूर रहना आवश्यक

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है: -

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।2/52।।

इसका अर्थ है,हे अर्जुन!जिस समय तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को पार कर जाएगी,उसी समय तू सुने हुए और सुनने में आनेवाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा।

भगवान कृष्ण ने इस श्लोक के लिए मोह हेतु दलदल रूपक का उपयोग किया है। उन्होंने साधकों से मोह रूपी दलदल को पार करने पर इस संसार और इस संसार तथा जीवन से परे समस्त प्रकार के भोगों से वैराग्य हो जाने का आश्वासन दिया है।

अब यहां प्रश्न यह है कि मनुष्य जिन मोह के बंधनों में जकड़ा रहता है,क्या उससे आसानी से पार पाना संभव है?मोह का मुख्य आधार हमारी कामनाएं हैं।हमारी महत्वाकांक्षाएं हैं।हमारा अहंकार है।हममें असुरक्षा का बोध है।

जिन कामनाओं के पीछे मनुष्य भागता है,उनमें से अधिकांश भौतिक सुख-सुविधाओं के वे अतिरेक साधन हैं, जो मनुष्य के लिए आवश्यक नहीं हैं।बल्कि इनके प्राप्त करने की स्थिति में मनुष्य का ध्यान इनके संचालन, प्रचालन में ही उलझा रहता है। रोटी,कपड़ा, मकान, चिकित्सा, परिवहन,शिक्षा, आवास ये हमारी कुछ मूलभूत आवश्यकताएं हैं। मन की प्रसन्नता और हृदय के आनंद के लिए मनुष्य का शांतचित्त रहना आवश्यक है।भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य परिश्रम करता है। भविष्य की सुरक्षा के लिए वह कुछ साधनों का संग्रह भी करता है लेकिन धीरे-धीरे यही संग्रहवृत्ति लोभ में बदलते जाती है और इसे पुष्ट करते रहता है- मन में इन साधनों की भविष्य में कमी या अनुपलब्धता का डर।अतिरेक महत्वाकांक्षा हमारे सहज जीवन और स्वाभाविक कर्मों में अनावश्यक दबाव निर्मित करती है।जब आत्मसम्मान आत्म-प्रभुत्व का रूप लेने लगे,तो फिर अहंकार का जन्म होता है।हमारी असुरक्षा का बोध पुनः हमारे संभावित नुकसान के चिंतन के एक आयाम से जुड़ा हुआ है।नुकसान की स्थिति में होने वाली असुविधा ही हममें भविष्य के लिए असुरक्षा का भाव पैदा करती है।

श्री कृष्ण मोह के दलदलों को पार करने के लिए प्रयास की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं।कारण यह कि इसका परिणाम विस्मयकारी है,और वह है- मनुष्य के जीवन में पग-पग पर बाधक भोगों से विरक्ति का हो जाना।

जीवन सूत्र 38:बुद्धि का स्थिर हो जाना ही योग है

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:-

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।

समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।(2/53)।

इसका अर्थ है-तरह-तरहके वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब निश्चल होकर परमात्मा में स्थिर हो जायेगी, तब तू योगको प्राप्त होगा। तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा।

भगवान कृष्ण की इस अमृतवाणी से हम परमात्मा में बुद्धि के स्थिर होने को एक सूत्र के रूप में लेते हैं।वास्तव में यह कह देना बहुत आसान है कि योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः अर्थात चित्त की वृत्तियों का विरोध ही योग है, लेकिन आखिर इस चंचल मन की कुलाँचे भरते हुए लगातार दसों दिशाओं में दौड़ने की मनुष्य की प्रवृत्ति रुकेगी कैसे? एक बच्चा जिसका मन चंचल है उसे प्रकृति से लगाव होता है वह फूल पत्तियों पौधों को मंत्रमुग्ध होकर देखता है। पशु पक्षियों को लेकर उसे कुतूहल होता है आखिर उसके मन को रोकने की कहां आवश्यकता है? कृष्ण जी के ज्ञान का संदेश लेकर गोकुल गांव पहुंचे उद्धव जी को गोपियों ने अपने तर्कों से निरुत्तर कर दिया था।

गोपियों ने योग को एक बीमारी कहा और यह भी कहा -यह योग की पद्धति उन्हें बताइए जिनके मन स्थिर नहीं हैं। हमारा मन तो कृष्ण के प्रेम में स्थिर है।

सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी।

यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौपौं, जिनके मन चकरी।।

वास्तव में किसी को ध्यान लगाने के लिए विवश नहीं किया जा सकता है। यह मनुष्य का स्वाभाविक गुण है कि वह स्वयं को अच्छी लगने वाली चीजों की ओर आकर्षित होता है। एक बच्चा पढ़ाई करने बैठता है और उसी समय उसका ध्यान बाहर गली में खेलने वाले बच्चों की ओर लगा रहता है। समय और अवस्था के अनुसार आकर्षण के केंद्र भी बदलते जाते हैं। वास्तव में सर्वकालिक आकर्षण के केंद्र तो केवल परमसत्ता ही हो सकते हैं जिन्हें हम अपने अपने धर्म और अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार अलग-अलग नामों से जानते हैं,लेकिन स्वामी विवेकानंद समेत अनेक युग पुरुषों ने यह बताया कि अलग-अलग रास्तों से चलते हुए भी हम उसी एक परमात्मा तक पहुंचते हैं। आखिर उस परमात्मा में हमारी बुद्धि स्थिर कैसे होगी? पहले तो जिन चीजों को हम यथार्थ सत्य और सब कुछ मान कर उनके पीछे भागते हैं उसके वास्तविक स्वरूप को जानकर हमें उससे विरक्ति बरतनी होगी….. धीरे-धीरे बिना निषेध और मनाही के सकारात्मक रूप से,और दूसरा उपाय है अभ्यास।मन रूपी घोड़ों पर विवेक के लगाम की साधना।

डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय