Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 34 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 34

भाग 33:जीवन सूत्र 36:आसक्ति छोड़ना यूं बन जाएगा सरल



गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:-


कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।


जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम॥2/51॥


इसका अर्थ है,समबुद्धि वाले व्यक्ति कर्म के फलों की आसक्ति से स्वयं को मुक्त कर लेते हैं।यही आसक्ति मनुष्य को जन्म-मृत्यु के चक्र से बांध लेती है।इस भाव से कर्म करते हुए वे उस अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं,जो सभी दुखों से परे होती है।


पिछले श्लोक में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को समबुद्धि से कर्म करने का निर्देश दिया। कर्म योग कठिन प्रतीत होने पर भी ऐसी औषधि के समान है जो लाभकारी है और जिसका कोई विपरीत प्रभाव भी नहीं होता।वास्तव में यह कह देना तो आसान है कि विभिन्न कर्मों के लिए मिलने वाले फलों की आसक्ति का त्याग कर देना चाहिए।वहीं इसका पालन करना उतना आसान नहीं है


यह बात तो निश्चित है कि जब मनुष्य कोई कार्य प्रारंभ करता है तो वह एक निश्चित दिशा में आगे बढ़ता है,जिसके लिए एक गंतव्य या लक्ष्य होता है और इस कार्य का उसे फल प्राप्त होता है।यह लक्ष्य को पूरा करने के रूप में भी हो सकता है।


अगर जीवन में लक्ष्य न रहे तो मनुष्य किस प्रेरणा से कार्य करे? लक्ष्य के अभाव में स्थिति ऐसी हो जाएगी कि आप घर से निकल कर कहां जा रहे हैं,किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं,यह पहले से तय ना हो। अब अगर कोई लक्ष्य है, दिशा है तो उसका फल तो होगा ही। मनुष्य इन फलों के सुखद, सुविधाजनक और लाभदायक होने की कामना करते हैं और उसके सारे कार्य इसी दिशा में होते हैं। अगर परिश्रम की महत्ता है तो ऐसा सोचना गलत भी नहीं है। एक परिश्रमी व्यक्ति अपने श्रम से उचित पारितोषिक और फल क्यों न प्राप्त करे?


वास्तव में कर्म सहज हैं तो उनके फल भी स्वाभाविक हैं, लेकिन मनुष्य इन फलों के एक निर्धारित स्वरूप में होने की कल्पना कर बैठता है और उसकी सारी संकल्प शक्ति,सारी ऊर्जा उसी फल पर केंद्रित हो जाती है। उसे निर्दिष्ट फल से मोह हो जाता है कि जैसे वह फल प्राप्त ना हो तो उसका जीवन व्यर्थ हो गया। हमें इस मानसिकता को बदलने की आवश्यकता है।परिश्रम करने पर फल वांछित मिल गया तो ठीक है।अगर हममें उसे बदलने की सामर्थ्य है तो प्रयास करें। अगर अंतिम रूप से वही फल हमारे लिए उपलब्ध है तो फिर उसे सहजता से स्वीकार कर लेना चाहिए।अगर यह आसक्ति छूट जाए तो हमारी आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र से परे मोक्ष के लिए धीरे-धीरे तैयार होने लगती है।


(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)


डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय



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