जीवन सूत्र 206 कर्मयोगी होता है ईर्ष्या और द्वंद्व से परे
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने महान योद्धा अर्जुन से कहा है: -
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।4/22।।
इसका अर्थ है, जो(कर्मयोगी)फल की इच्छा के बिना,(कार्यक्षेत्र में) जो कुछ मिल जाए,उसमें संतुष्ट रहता है।जो ईर्ष्या से रहित,द्वन्द्वों से परे तथा सिद्धि और असिद्धि में सम है,वह समान भाव रखने वाला व्यक्ति कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता।
भगवान श्री कृष्ण ने कर्मयोगी के गुणों के संबंध में चर्चा करते हुए उसे अत्यंत संतोषी स्वभाव का बताया है। कर्म करते चलें। जो मिल जाए,वह ठीक और जो हमारे पात्र होने पर भी न मिल सका,तब भी ठीक।
जीवन सूत्र 207 पर्याप्त प्रयास के बाद भी सफलता न मिले तो निराशा की स्थिति बनती है लेकिन इससे जल्दी उबरे
पर्याप्त प्रयास के बाद भी सफलता न मिले तो निराशा की स्थिति बनती है लेकिन इससे जल्दी उबरकर फिर नए उत्साह के साथ कर्म क्षेत्र में आगे बढ़ने से ही भावी सफलता का द्वार खुलता है न कि उस असफलता को लेकर चिंतन मनन कर अपना समय गंवाते रहने से।ईर्ष्या मनुष्य के छह स्वाभाविक विकारों में से एक है।अतः इसको निष्क्रिय रूप में रख पाने में सफल होना बहुत जरूरी है।आज मनुष्य के चिंतन के क्षेत्र में वह स्वयं और उसका परिवार मात्र नहीं है।
जीवन सूत्र 208 अपनी स्थिति की दूसरों से तुलना गलत
वहअपने पास-पड़ोस से तुलना शुरू करता है और यह देखता है कि किसी अन्य व्यक्ति को मुझसे ज्यादा तो नहीं मिल गया। दूसरों की सफलता को देखकर मन में उठने वाली निराशा और चुभने वाले शूल मानसिक और भावनात्मक स्तर पर अधिक नुकसान देह हैं।मनुष्य इस बात से परेशान है कि उसकी कमीज मेरी कमीज से अधिक सफेद कैसे?
जीवन सूत्र 209 दृष्टिकोण बदलें, रहेंगे सुखी
वास्तव में दृष्टिकोण बदलने पर दूसरों की सफलता से धीरे-धीरे मनुष्य को स्वयं आंतरिक प्रसन्नता होने लगेगी।जहां कहीं किसी की उपलब्धि और प्रसन्नता के अवसर पर आप सम्मिलित नहीं हो पा रहे हैं,तो जहां आप हैं;वहां से आपने अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर दी तो यह प्रकृति में सकारात्मकता और उत्साह की तरंगे भेजना हुआ।ये तरंगे लौटकर आप तक भी पहुंचेंगीं। तब दूसरे की उपलब्धि आपको पीड़ित नहीं करेगी। ऐसा दृष्टिकोण स्वयं आपकी सफलता का मार्ग प्रशस्त करेगा।स्थितियों को अनुकूल बनाएगा और फिर आपको वह सफलता तथा प्रगति दिलाएगा जिसके लिए केवल और केवल आप योग्य हैं।
जीवन सूत्र 210 विपरीत परिणामों में भी रहें सम
जीवन में सुख - दुख,लाभ- हानि, जय- पराजय,यश - अपयश, निंदा - प्रशंसा दोनों में बड़े साधक भले ही पूर्णत: अविचलित रहें लेकिन हम साधारण मनुष्य इसे कम से कम जीवन का एक पड़ाव समझकर स्वीकार करना और इसमें सहज बने रहना तो अवश्य सीख सकते हैं।किसी उपलब्धि के प्राप्त होने पर प्रसन्नता से उछल पड़ना और इसके विपरीत अवस्था में आने पर दुखों के सागर में देर तक डूबे रहना अपरिपक्वता है। कर्मों के फल के बंधन से छूटने के लिए श्री कृष्ण ने इस भाव से भी अप्रभावित रहने का निर्देश दिया है।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय