गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 117 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 117


जीवन सूत्र 281 कर्मों के संतुलन में योग सहायक


गीता में भगवान श्री कृष्ण ने वीर योद्धा अर्जुन से कहा है -

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।

आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।4/41।।

इसका अर्थ है,हे धनञ्जय !योग के संतुलन के द्वारा जिसका सम्पूर्ण कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है और ज्ञान के द्वारा जिसके सारे संशयों का नाश हो गया है,ऐसे आत्मवान् पुरुष को कर्म नहीं बाँधते।


जीवन सूत्र 282 कर्म करते रहें,आगे अनायास कर्म होने लगेंगे

अपने कार्यों को करते हुए एक ऐसी समता की स्थिति निर्मित होती है,जहां कर्म अनायास होने लगते हैं।जब कर्मों को लेकर किसी तरह के दबाव और तनाव का अनुभव नहीं होता।कठिन से कठिन कार्य को संपादित करते हुए भी आनंद का अनुभव होता है। जहां कार्य को लेकर स्वयं के ऊपर किसी बोझ का अनुभव नहीं होता। योग और ध्यान से जीवन में ऐसे संतुलन की स्थिति आती है अन्यथा आज का वातावरण कुछ इस तरह का हो गया है कि लोगों में धैर्य की कमी है।बात बात पर किसी की बात पर उत्तेजित हो उठना और अपना संतुलन खो देना आम बात है।


जीवन सूत्र 283 ज्ञान से ही संदेह निवारण

मन के संदेहों का निवारण करने के लिए सत्य का बोध होना जरूरी है।यह ज्ञान से ही संभव है। स्वाध्याय और ग्रंथों के अध्ययन में ज्ञान का केवल एक पक्ष अंतर्निहित होता है वास्तविक ज्ञान जीवन के यथार्थ धरातल पर परिस्थितियों का सामना करने की हमारी क्षमता और संकल्प शक्ति है।कर्मों के फल से अप्रभावित रहने और कर्म को संतुलित करने की क्षमता में ज्ञान की अनुभूति का बड़ा महत्व होता है।

जीवन सूत्र 284 ज्ञान और संतुलित कर्म आत्म कल्याण के मार्ग के दो सबसे बड़े साधन



ज्ञान और संतुलित कर्म इन्हीं कारणों से आत्म कल्याण के मार्ग के दो सबसे बड़े साधन हैं। कर्म शरीर है तो ज्ञान आत्मा। दोनों की सुसंगति मनुष्य की सफलता के लिए अत्यंत आवश्यक है।यह मनुष्य के आचरण के लिए एक आदर्श अवस्था है, जब वह अपने कार्यों को संपन्न करता है और ऐसा करते समय उसके मन में कोई संदेह नहीं होता और उसके कर्मों में कोई अधीरता या विक्षोभ की स्थिति भी नहीं बनती।


जीवन सूत्र 285 असफलता का अर्थ सब समाप्त नहीं


जब मनुष्य कर्मों में असफलता को स्वीकार करने की ताकत रखता है तो फिर असफलता का भय उसे परेशान नहीं करता।



(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय