गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 80 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 80

जीवन सूत्र 112 113 भाग 79


जीवन सूत्र 112: मन को वश में रखना आवश्यक


गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है -

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।3/43।।

इसका अर्थ है,हे महाबाहु !इस प्रकार बुद्धि से परे सूक्ष्म,शुद्ध,शक्तिशाली और श्रेष्ठ आत्मा के स्वरूप को जानकर और आत्म नियंत्रित बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके,तुम इस कठिनाई से जीते जा सकने वाले कामरूप शत्रु को मार डालो।

गीता के तीसरे अध्याय के समापन श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने काम को नियंत्रित रखने और उसे परास्त करने के संबंध में आवश्यक निर्देश दिए हैं।पुराण ग्रंथों और साहित्य में काम के सम्मोहक स्वरूप का वर्णन किया गया है। कामनाओं के तीव्र आकर्षण के कारण मनुष्य का मन इंद्रियों के विषयों से संयुक्त होकर उन इंद्रियों की कार्यप्रणाली को भोग विलास की ओर मोड़ देता है और हम अपने आसन्न कर्तव्य पथ से भटक जाते हैं।यह कुछ इस तरह की स्थिति है कि कोई वाहन चालक सड़क पर अपने वाहन के साथ गतिमान है और अचानक अगल-बगल के किसी दृश्य को देखकर उसका ध्यान कहीं भटका और दुर्घटना हो गई।

वास्तव में मनुष्य को एक निर्धारित ट्रैक पर चलना चाहिए और किसी भी स्थिति में उसे अपने आसन्न कार्य और वर्तमान दायित्व से प्रमाद,आलस्य,छद्म आकर्षण के प्रभाव में मुंह नहीं मोड़ना चाहिए।


जीवन सूत्र 113 आत्मा है सच्ची मार्गदर्शक


काम को परास्त करने में मन की चंचलता और बुद्धि के डांवाडोल होने की स्थिति में आत्मा की निर्णायक भूमिका होती है।आत्मा को इसीलिए मन और बुद्धि से परे कहा गया है कि वह इनसे भी ऊपर उस न्यायधीश की स्थिति में होती है जो अच्छे और बुरे के संबंध में सटीक निर्णय दे सके।अब अपनी निरपेक्ष स्थिति के कारण आत्मा सभी तरह के द्वंद्वों से भी परे है, लेकिन वह विशेष अवसर पर मार्गदर्शन के समय मूकदर्शक नहीं रहती है।ऐसे समय में हमारी अंतरात्मा हमें एक बार सचेत अवश्य करती है।

कठोपनिषद में कहा गया है,

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।

बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।

इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयां स्तेषु गोचरान्।

आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।।

इसका अर्थ है,मनुष्य के शरीर रूपी रथ में पांच इंद्रियां रूपी पांच घोड़े हैं।मनुष्य का मन लगाम है और बुद्धि सारथी है।आत्मा ही इस बुद्धि सारथी को निर्देश देने वाला यात्री अर्थात रथी मनुष्य है। कामनाओं के पथ पर इंद्रिय विषय के भटकने वाले पांच घोड़ों पर सारथी (बुद्धि), लगाम (मन)से नियंत्रण कैसे करे,जब तक रथी (आत्मा )का स्पष्ट निर्देश या संकेत ना हो।काम के आकर्षण से अप्रभावित रहने के लिए हमें उस स्थितप्रज्ञ रथी की भूमिका निभानी ही होगी और इसके लिए अभ्यास तथा साधना की आवश्यकता तो है ही। आत्मा को निर्णय शक्ति प्रदान करने के लिए हम मनुष्यों को थोड़ी मेहनत तो करनी ही होगी। बैठे ठाले इस दुनिया में कुछ नहीं होने वाला।


(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय