गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 79 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 79

जीवन सूत्र 109 110 111 भाग 78


जीवन सूत्र 109: काम की उद्दंडता पर प्रहार आवश्यक


गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है -


तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।

पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।3/41।।

इसका अर्थ है, हे अर्जुन! तू सबसे पहले इन्द्रियों को नियंत्रण में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करनेवाले महान् पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक नष्ट कर दो।

पूर्व के श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने काम को मनुष्य की अज्ञानता और अविवेक का मूल कारण घोषित किया है,क्योंकि इस काम के कारण मनुष्य कई तरह की अवांछित इच्छाओं को पूरा करने के लिए तत्पर हो उठता है।इस काम के कारण ही उसके भीतर असंख्य कामनाएं जन्म लेती हैं और वह कभी एक तो कभी दूसरी को तुष्ट करने के पीछे भागता रहता है।इन सारे उपक्रमों के बाद भी उसे स्थाई संतुष्टि नहीं मिलती है।

इस श्लोक में काम की एक और बुराई पर चर्चा की गई है।वह बुराई है-मनुष्य के ज्ञान और विज्ञान को नष्ट कर देने वाला। सांसारिक प्रलोभनों और संसार की क्षणभंगुर वस्तुओं के प्रति तीव्र आकर्षण पैदा करने वाला काम मनुष्यों द्वारा अर्जित और उनमें संचित ज्ञान को हर लेता है। उदाहरण के लिए मनुष्य को सात्विक, सुपाच्य भोजन करना चाहिए; यह जानते हुए भी यह काम मनुष्य को चटपटी,सुस्वादु,अस्वास्थ्यकर चीजों को ग्रहण करने के लिए प्रेरित करता है। इस समय हमारे विवेक पर भी काम का सम्मोहन होता है और हमारा सारा ज्ञान धरा का धरा रह जाता है कि यह चीज ग्रहण करने के योग्य नहीं है। यह ज्ञान मनुष्य के तमाम अनुसंधान,अन्वेषणों और नवाचार को भी गलत दिशा में मोड़ने का काम करता है।व्यक्तिगत स्तर पर भी मनुष्य की वैज्ञानिक सोच समाप्त होती है और वह दकियानूसी धारणाओं का ही पालन करता रहता है तो समुदाय के स्तर पर समाज में जीवन उपयोगी वस्तुओं उत्पादन के बदले उपभोक्ता वस्तुएं और अधिक से अधिक आराम प्रदान करने वाली और बिना शारीरिक श्रम के केवल एक बटन दबाते ही उपयोग में लाई जा सकने वाली वस्तुओं का उत्पादन बढ़ने लगता है।

इस बुद्धिविनाशक काम से दृढ़ता और रूखेपन से लड़ाई लड़नी होगी।यह अपने आप नष्ट नहीं होगा।अपने दृढ़ संकल्प के जरिए इसे बलपूर्वक मारना होगा।


जीवन सूत्र 110 काम का विस्तृत रूप कामनाओं और मनुष्य के सृजनात्मक व्यवहार से जुड़ा


काम का संकीर्ण रूप केवल यौन सुख है तो व्यापक अर्थ में यह मनुष्य की कामनाओं और उसके सृजनात्मक व्यवहार से जुड़ा है। पहला रूप मनुष्य को इंद्रियों की दासता की ओर ले जाता है। काम को भारतीय दर्शन परंपरा में चार पुरुषार्थों में तीसरे क्रम पर माना गया है। काम को एकदम खारिज नहीं किया जा सकता है क्योंकि सृष्टि के चक्र के संचालन के लिए काम के नियंत्रित रूप की बड़ी भूमिका है।काम मनुष्य को सृजन, सुरुचि और सौंदर्य अभिमुख भी करता है।

समस्या तब खड़ी होती है जब मनुष्य काम को केवल इंद्रिय सुख के सीमित अर्थ में ले लेता है। वह ब्रम्हचर्य का अर्थ काम भाव के अभाव के रूप में लेता है। वह काम को जीतने की कोशिश शुरू करता है। बलपूर्वक किसी भी चीज का दमन किया जाए या निषेध भाव रखा जाए तो वह चीज उतनी ही अधिक सताती है। इसका श्रेष्ठ उपाय यही है कि मनुष्य स्वयं को रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रखे।ऐसी स्थिति में सुख भोग के विचार उसके मन से दूर ही रहेंगे।काम के निषेध और मनाही के बदले अपनी दिशा को दूसरे रचनात्मक कार्यों में मोड़ना काम की उर्जा का एक उचित उपयोग और वांछनीय रूपांतरण है।


जीवन सूत्र 111: त्याग के बदले ऊर्जा का रूपांतरण उपयोगी

अगर मनुष्य काम के त्याग या उस पर विजय का संकल्प करे तो वह कहीं ना कहीं काम से युद्ध में उलझने की कोशिश कर रहा है। इसके स्थान पर उसे कामभावना के प्रति तटस्थता का भाव मन में रखना चाहिए।अर्थात ना लेना ना देना वाला भाव रखना आवश्यक है।काम भावना की प्रबलता के कारण हमारा विक्षोभ और विचलन से भर उठना नुकसानदेह होता है।आखिर काम में ऐसे कौन से गुण हैं जो यह मनुष्य को सताता है और उसे सम्मोहित सा कर लेता है।


डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय