गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 27 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 27

भाग 25: जीवन सूत्र 27: जीवन के हर क्षण का सदुपयोग करें

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।(2/4)।

इसका अर्थ है,"(सम बुद्धि रूप कर्म योग के विषय में)हे अर्जुन,संसार में इस कर्म योग के आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं होता,धर्मयुक्त कर्म का विपरीत फल भी नहीं मिलता।इसका थोड़ा सा भी उद्यम जन्म-मरणरूप महान् भय से प्राणियों की रक्षा करता है।

भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम समबुद्धि रूप कर्म या धर्म रूप कर्म की अवधारणा को एक सूत्र के रूप में लेते हैं।वास्तव में थोड़े कर्मों में ही ऐसा होता है कि उसका कोई विपरीत प्रभाव या फल प्राप्त न हो। जैसे ठीक तरह से औषधि न ली जाए या ली गई औषधि का दुष्प्रभाव हो जाए तो यह हानिकारक हो जाता है।इसी तरह हमारे कर्म हैं। दूसरे अध्याय के 38 वें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने जय-पराजय,लाभ-हानि, सुख-दुख आदि को समान समझकर युद्ध करने के लिए तत्पर होने को कहा है।

साधारण मनुष्य के लिए यह अत्यंत कठिन है- संतुलित रह पाना और कार्यों में सम बुद्धि को रखना।ठीक रीति से अगर कोई कार्य न किया जाए तो उसके असफल होने का खतरा होता है। भारत की अंतरिक्ष अनुसंधान एजेंसी इसरो अपने प्रत्येक रॉकेट के प्रक्षेपण के लिए वर्षों के अनुसंधान, साधना और कौशल के सही अनुप्रयोग से गुजरती है। तब कहीं जाकर हमारे देश का रॉकेट सही ढंग से प्रक्षेपित होता है और यह अंतरिक्ष में अपने निर्धारित स्थान या कक्षा में जा पहुंचता है।सूक्ष्म गणनाओं से लेकर तकनीक की एक छोटी सी चूक या समय के करोड़वें अंश के बराबर त्रुटि भी अरबों रुपए के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट और करोड़ों भारतीयों के सपने को तोड़ सकती है।

जीवन का गणित भी कुछ ऐसा ही है।लापरवाहीपूर्वक और आलस्य भरकर अपने कार्यों को पूर्ण करने के स्थान पर व्यक्ति सुव्यवस्थित होकर सही समय से कार्य प्रारंभ कर सकता है और इसे पूर्ण कर सकता है। कार्यों और उसके फल को लेकर राग-द्वेष और आसक्ति-मोह रखना ही जन्ममरण रूपी महान कष्ट का कारण होता है।इसलिए हमारा आचरण व कर्म,परिश्रम से पूर्ण स्वाभाविक,आनंद पूर्ण हो लेकिन राग द्वेष और फलों को ही लक्ष्य में रखकर जीवन पथ पर हम प्रत्येक पग नापतौल कर आगे न बढ़ाएं।यही समत्वबुद्धि रूप धर्मयुक्त कर्म है।यही कारण है कि क्रिकेट के मैच में अपने परिश्रम, एकाग्रता और संभल कर खेलने वाला बैट्समैन लंबी पारी खेल जाता है,परिस्थितियां भी उसके अनुकूल होती जाती हैं और असाधारण प्रतिभा संपन्न खिलाड़ी भी थोड़ी सी लापरवाही और अतिआत्मविश्वास के कारण समत्व को खोकर चकाचौंध और सस्ती लोकप्रियता के दबाव में आकर खेलने लगता है व सस्ते में ही अपने विकेट गँवा देता है।

अथर्ववेद(12/2/24) में कहा गया है:-

"सर्वमायुर्नयतु जीवनाय।"अर्थात अपने जीवन में संपूर्ण आयु जिओ।

अर्थात जीवन केवल जी लेने के बदले हर क्षण के सदुपयोग,आनंद और उस परम सत्ता से निरंतर लौ लगाए रखने की चेष्टा का ही दूसरा नाम है।

(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

डॉ.योगेंद्र कुमार पांडेय