गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 167 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 167

जीवन सूत्र 511 ईश्वर को देखने के लिए विशेष दृष्टि चाहिए

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-


न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।

दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।11/8।।

इसका अर्थ है, हे अर्जुन!परन्तु तुम अपने इन्हीं प्राकृत नेत्रों के द्वारा मुझे देखने में समर्थ नहीं हो।मैं तुम्हें दिव्यचक्षु देता हूँ, जिससे तुम मेरे ईश्वरीय योगशक्ति व सामर्थ्य को देखो।

11 वें अध्याय के प्रारंभ में अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से उनकी अविनाशी स्वरूप के दर्शन का निवेदन करते हैं। इस पर पूर्व के श्लोक में भगवान उनसे कहते हैं कि अब मेरे इस शरीर में एक ही जगह स्थित चर अचर सहित संपूर्ण जगत को देखो और भी जो कुछ देखना चाहते हो उसे देखो। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि इन रूपों को देखने के लिए दिव्य दृष्टि और अलौकिक चक्षु चाहिए,जिससे ईश्वर की योग शक्ति और सामर्थ्य को देखा जा सकता है। वास्तव में ईश्वर को देखना इंद्रिय, मन, बुद्धि इन सभी से परे आत्मा के तल की अनुभूति है।


जीवन सूत्र 112 ईश्वर हैं चक्षुओं से परे


साधारण आंखों से उन्हें नहीं देखा जा सकता है। जब नरेंद्र नाथ,रामकृष्ण परमहंस से पूछते हैं कि क्या आपने ईश्वर को देखा है? तो वे उत्तर देते हैं,"हां, मैंने उन्हें देखा है। ठीक वैसे ही, जैसे मैं तुम्हें देख रहा हूं।"

महाभारत के शांति पर्व में ईश्वर के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह न तो स्त्री है,न पुरुष है और न नपुंसक ही है। न सत है, न असत् है और न सदसत उभयरूप ही है। ब्रह्म ज्ञानी पुरुष ही उसका साक्षात्कार करते हैं।उसका कभी क्षय नहीं होता इसलिए वह अविनाशी, परब्रह्म परमात्मा अक्षर कहलाता है,यह समझ लो।


जीवन सूत्र 513 ईश्वर सभी तरह के द्वंद्वों से परे

ईश्वर सभी तरह के द्वंद्वों से परे हैं। उनकी अनुभूति की जा सकती है। उन्हें दिव्य चक्षुओं से देखा जा सकता है।अब यहां यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि वह भगवान लोगों को सहज ही में उपलब्ध और दृश्यमान क्यों नहीं है?उन्हें देखने के लिए दिव्य आंखों की आवश्यकता आखिर क्यों है?क्या श्रम करने वाले एक श्रमिक को भी ईश्वर उसी सहजता से उपलब्ध और दृश्यमान हो जाएंगे, जिस तरह वे योगी, साधक और मुनियों को होते हैं?


जीवन सूत्र 514 ईश्वर पर किसी का एकाधिकार नहीं


इसका उत्तर यही है कि ईश्वर सभी को सहज ही, समान रूप से और हर कहीं उपलब्ध हो सकते हैं, दिखाई भी दे सकते हैं। भगवान कृष्ण जिस दिव्य दृष्टि की बात कर रहे हैं,वह वास्तव में हमारे दृष्टिकोण पर आधारित है। ऋषि मुनि और साधक लोग जिस परमात्मा को महाभारत के शांति पर्व के श्लोक के अनुसार "इंद्रियों से मन श्रेष्ठ, मन से बुद्धि श्रेष्ठ और बुद्धि से ज्ञान श्रेष्ठ और ज्ञान से परात्पर परमात्मा श्रेष्ठ" की अवधारणा के अनुसार प्राप्त करते हैं, वह ईश्वर एक श्रमवीर के श्रम में निवास करता है। वह साधारण जीवन के कर्तव्यों को पूरी निष्ठा ईमानदारी और सत्य के आधार पर पूरा करने वाले किसी भी व्यक्ति को सहज उपलब्ध हो सकता है, चाहे उसे दार्शनिक मत और सिद्धांतों का ज्ञान हो या न हो।

जीवन सूत्र 515 ईश्वर भक्तों के हृदय में

ईश्वर उस आत्म संतोष में है जब एक श्रमिक श्रम का अपना कार्य पूरा होने के बाद उसके बदले में परिश्रमिक प्राप्त करते हुए सुखद अनुभूति करता है। अब यह जिम्मेदारी उस व्यवस्था की है कि उसके श्रम का उचित पारितोषिक उसे प्राप्त हो। इसीलिए ईश्वर को समाज में जाग्रत रखना सामूहिक उत्तरदायित्व भी है। ईश्वर के प्रश्न पर विचार करते-करते जब अर्जुन दर्शनशास्त्र की गहराइयों में डूबते गए तो भगवान को उन्हें उसी तरीके से समझाना पड़ा और फिर तत्काल उन्हें दिव्य दृष्टि भी उपलब्ध करानी पड़ी,जो बड़े-बड़े योगी ऋषि और मुनियों को वर्षों की साधना से प्राप्त होते हैं। अर्जुन जैसी ही कृपा आम भक्तों को भी हो सकती है अगर वह सच्चे मन से अपने आराध्य को पुकारें।


(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय