गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 77 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 77

जीवन सूत्र 104 105 106 भाग :76


जीवन सूत्र 104: कामनाएं बनाती हैं हमें गुलाम

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।(3.39)।

इसका अर्थ है- हे कुंतीनंदन,इसअग्नि के समान कभी तृप्त न होनेवाले और विवेक रखने वाले मनुष्य के सदा शत्रु, इस काम के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है।

काम अर्थात कामना अर्थात किसी अभीष्ट को व्यक्तिगत रूप से सिर्फ और सिर्फ स्वयं के लिए स्थाई रूप से प्राप्त कर लेने का भावबोध। यह मान लेना कि इसे प्राप्त करने पर हमें भारी सुख प्राप्त होगा।इसे लेकर इस सीमा तक प्राप्त करने की तीव्र उत्कंठा कि लगता है यह प्राप्त हो जाए तो फिर और कुछ पाना शेष नहीं।यह चाह ऐसी कि अभीष्ट की प्राप्ति के बाद भी पूरी नहीं होती।और चाह जगती है।

एक इच्छा की पूर्ति हुई तो दूसरी खड़ी होती है।धन प्राप्त हुआ और धन की चाह जगी। इच्छा बढ़ती गई ।इस कामना के स्वरूप का विराट रूप में विस्तार होता गया।अगर प्राप्त नहीं हुआ तो मन में विक्षोभ,असंतोष,विचलन और अशांति। प्राप्त हो गया तो भी अतृप्ति का भाव।

कबीर कहते हैं-

त्रिसणा सींची ना बुझै, दिन दिन बढ़ती जाइ।

जवासा के रूख़ ज्यूं, घणा मेहां कुमिलाइ।

जवासा के पौधे का उदाहरण देते हुए कबीर ने समझाया है कि अधिक वर्षा होने पर जिस तरह से जवासा का पौधा कुम्हला जाता है लेकिन नष्ट नहीं होता है।बाद में यह फिर से हरा भरा हो जाता है।उसी तरह से कामनाएं नहीं मरती हैं। कामनाओं का परिणाम है उस अभीष्ट की गुलामी जिसे हम प्राप्त करना चाहते हैं।


जीवन सूत्र 105:कामनाओं का पूर्णतःअंत मुश्किल है

कामनाओं का पूर्णतःअंत मुश्किल है क्योंकि अगर यह सकारात्मक हो तो मनुष्य के उद्यम को एक सही प्रेरणा और दिशा देता है।हमें बस यह भाव रखना होगा कि हम विवेक से अपना भला-बुरा पहचानें और उन चीजों की कामना न करें जो अंततः हमारे लिए अनुकूल व लाभदायक नहीं हैं।अगर कोई चीज प्राप्त ना हो सके तो असंतुष्ट न हों। इसे लेकर मैंने कुछ पंक्तियां लिखने की कोशिश की हैं:-

जो मिल गया वो है सही।

जो न मिला, वह भी सही।

न मिला,हो क्यूँ अफ़सोस

जो पास है, कुछ कम नहीं।


जीवन सूत्र 106: विचार शक्ति में बाधक हैं तृष्णाएं


भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।3/39)।।

इसका अर्थ है- हे कुंतीनंदन,इसअग्नि के समान कभी तृप्त न होने वाले काम,साथ ही ज्ञान और विवेक रखने वाले मनुष्य के सदा शत्रु इस काम के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है।

भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम काम के विवेक के शत्रु होने की बात को सूत्र के रूप में लेते हैं।जब मनुष्य के भीतर अनंत कामनाओं की चाह उत्पन्न होती है,तो उसी समय वह ज्ञान और विवेक का पथ छोड़ने लगता है।तृष्णाओं में यह क्षमता होती है कि वह मनुष्य के सोचने समझने की शक्ति को प्रभावित कर दे। मनुष्य एक बार जहां अपनी इच्छाओं की पूर्ति के चक्रव्यूह में पड़ गया तो वह उलझ कर रह जाता है।अब इच्छाओं की तो पूर्ण तृप्ति होना असंभव है।इससे होता यह है कि मनुष्य उन कामनाओं को पूरा करने में अपने सारे संसाधन लगा देता है।वास्तविकता यह है कि ये कामनाएं अग्नि में अर्पित करने वाली उस आहुति के समान हैं जो अग्नि को और प्रज्वलित कर देती हैं।

हमारी पूर्व कथा के पात्र आचार्य सत्यव्रत से एक दिन विवेक ने पूछा,"गुरुदेव जब यह काम ही सारे अनर्थ की जड़ है तो मनुष्य इसे रोक क्यों नहीं लेता?"

मुस्कुराते हुए आचार्य सत्यव्रत ने कहा,"यह इतना आसान नहीं है विवेक! सृष्टि के आरंभ से मनुष्य इसे जीतने का प्रयास करता आ रहा है,लेकिन असफल ही रहता है।"

विवेक ने पूछा,"तो क्या इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने का प्रयास ही ना किया जाए?"

आचार्य सत्यव्रत ने उत्तर दिया,"विवेक,इस पर विजय प्राप्त करने या इसके दमन जैसी संकल्पनाओं को छोड़ना होगा। इन्हें सहज भाव से जीवन की यात्रा में उस सहयात्री के समान आने देना होगा जो कुछ दूर तक साथ चलता है। बातचीत करता है,लेकिन हमारा उससे कोई नाता स्थापित नहीं होता।हम परिस्थिति के अनुसार आवश्यकता की पूर्ति के लिए उसकी सहायता ले सकते हैं, लेकिन उसे अपने पर हावी होने नहीं दे सकते।"


डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय