Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 160 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 160

जीवन सूत्र 486 प्रेम गली अति सांकरी

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।(6/36)।

इसका अर्थ है, भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जिसका मन पूरी तरह वश में नहीं है,उसके द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है।वहीं मन को वश में रखकर प्रयत्न करनेवाले से योग सम्भव है,ऐसा मेरा मानना है।

भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम योग के लिए मन को वश में करने की अपरिहार्यता को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। वास्तव में कुछ प्राप्त करने के लिए परिश्रम तो करना ही होता है और बात जहां योग को प्राप्त करने की हो तो उसके लिए विशेष परिश्रम की आवश्यकता होगी।योग ऐसा शब्द है जो अपनी उच्च अवस्था में उस परम सत्ता से हमारा साक्षात्कार करा सकता है जिसे हम अपनी मान्यता के अनुसार अलग-अलग नामों से जानते है।

जीवन सूत्र 487 काम में तल्लीनता आवश्यक


योग के आठवें चरण में समाधि की अवस्था होती है। योग साधना के अतिरिक्त परमात्मा को अन्य विधियों से भी प्राप्त करने के अनेक विवरण उपलब्ध हैं।ज्ञान,भक्ति,कर्म के मार्ग भी परमात्मा तक पहुंचाते हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की 'प्रियतम'शीर्षक कविता में एक मेहनती किसान ने किसी भी उपासना पद्धति का भली प्रकार पालन न कर केवल अपना कर्तव्य निभाते हुए भी दिन में केवल तीन बार परमात्मा का नाम लेकर उन्हें प्राप्त कर लिया:-

शंकित हृदय से कहा नारद ने विष्‍णु से

"काम तुम्‍हारा ही था

ध्‍यान उसी से लगा रहा

नाम फिर क्‍या लेता और?"

विष्‍णु ने कहा, "नारद

उस किसान का भी काम

मेरा दिया हुया है।

उत्तरदायित्व कई लादे हैं एक साथ

सबको निभाता और

काम करता हुआ

नाम भी वह लेता है

इसी से है प्रियतम।"

नारद लज्जित हुए

कहा, "यह सत्‍य है।"

या तो ईश्वर मिलेंगे या माया मिलेगी।इसीलिए महान कबीर ने कहा है:-

जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं ।

प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं ॥


जीवन सूत्र 488 संचित रहते हैं हमारे अच्छे कर्म


कुरुक्षेत्र के मैदान में अपनी शंकाओं के समाधान के क्रम में महायोद्धा अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं:-

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।

अप्रतिष्टो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि॥(गीता 6/38)

इसका अर्थ है:- हे महाबाहो(कृष्ण) क्या योग से विचलित मनुष्य भगवत प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रय से रहित होकर छिन्न-भिन्न बादलों की भांति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता?

आगे श्लोकों में इसका समाधान बताने के क्रम में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं:-

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते । न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥(6/40)

वे अर्जुन को समझाते हैं,कि हे पार्थ उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही।हे प्रिय, आत्म के उद्धार के लिए अर्थात भगवान की प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता।

यहां यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस जीवन में किए गए अच्छे-बुरे कार्यों को आगे कौन देखता है और यह मनुष्य के अवसान के बाद उसके साथ आगे कहां कहां तक जाएंगे?

इसका समाधान बताते हुए भगवान कहते हैं:-

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।

यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।(6/43)।

( आगामी जन्म में) उस जन्म के पूर्व पहले शरीर में संग्रह किए हुए बुद्धि संयोग को अर्थात समबुद्धि रूप योग के संस्कारों को मनुष्य अनायास ही प्राप्त कर लेता है। हे कुरुनंदन! उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्ति रूप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है।


जीवन सूत्र 489 संकटकाल में बनाए रखें धैर्य


वास्तव में जब हम जीवन में सत्य और ईमानदारी की राह पर चलने वालों को असफल और और कष्ट में देखते हैं तो मन में खीझ उठनी स्वाभाविक है। आस्थावादी लोग इसके लिए प्रारब्ध कर्मों को दोष देने लगते हैं। अब इन कर्मों का वर्तमान जीवन पर प्रभाव के विश्लेषण के लिए कोई डाटा तो उपलब्ध होता नहीं है इसलिए मनुष्य का यह समझ पाना अत्यंत कठिन होता है कि परिश्रम करने के बाद भी उसे मनोवांछित सफलता क्यों नहीं मिल पा रही है।पूर्व जन्म के कर्मों के इस जन्म में भोगे जाने वाले फल अर्थात प्रारंभ कर्मों का प्रभाव तो वर्तमान जीवन पर पड़ता है लेकिन स्वयं गीता में भगवान श्रीकृष्ण का आश्वासन है कि वह सज्जनों और भक्तों का योगक्षेम वहन करते हैं।


जीवन सूत्र 490 सत्य और धर्म की रक्षा के लिए आते हैं ईश्वर


साधुओं और सज्जनों की रक्षा के लिए वे हर युग में जन्म लेते हैं। एकदम शून्य से शुरुआत करने वाले,असफलता,विपन्नता आदि के कारण अपने जीवन का उद्देश्य खो चुके लोग भी संसार में हैं जो अपने कड़े परिश्रम से सतत साधना के माध्यम से एक नया इतिहास रचते हैं।तब हमें इस बात पर विश्वास होने लगता है कि परिश्रम से अनेक तरह के पूर्व जन्मों के विपरीत परिणाम वाले कर्मों को अपने कड़े परिश्रम से संतुलित किया जा सकता है।यही है कि क्रियमाण अर्थात वर्तमान जन्म के कर्मों की महिमा। उक्त 43 वें श्लोक में भी भगवान कृष्ण यही संकेत करते हैं कि सत्कर्म और साधना के स्तर भी संचित होते हैं।मनुष्य इन्हें आगे बढ़ा सकता है।


डॉ योगेंद्र कुमार पांडेय





(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय




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