गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 148 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 148


जीवन सूत्र 431 स्थितप्रज्ञ के संतुलन बिंदु की खोज स्वयं को करनी है

गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है:-

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।

न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।(6/16)।

इसका अर्थ है-हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिलकुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।

भगवान कृष्ण इस श्लोक में समत्व की स्थिति पर जोर दे रहे हैं।अगर दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अति किसी भी चीज की अच्छी नहीं है। लेकिन व्यावहारिक धरातल पर प्रश्न यह है कि आखिर किस सीमा तक किसी चीज को ग्रहण करने और एक सीमा के बाद ग्रहण न करने का वह अधिकतम बिंदु ढूंढा जाए, जो संतुलित हो और जो एक सीमा रेखा को बताता हो।


जीवन सूत्र 432 योग में हर तरह की अति का निषेध है ठीक है

क्या यह वाकई कठिन काम नहीं? वास्तव में इस संतुलन बिंदु के मापन के लिए कोई यंत्र नहीं बनाया गया है और इसका निर्धारण करने का कार्य पूरी तरह से स्वयं व्यक्ति के ऊपर निर्भर है। उदाहरण के लिए भोजन शरीर के लिए आवश्यक है।

अल्पभोजन से शरीर को आवश्यक पोषक पदार्थ नहीं मिल पाएंगे और ऐसा व्यक्ति ऊर्जा रहित हो सकता है।वहीं अत्यधिक भोजन करने से भी यह शरीर के लिए नुकसानदेह है और मनुष्य कई तरह की बीमारियों का शिकार हो सकता है।प्रायः हम भरपेट भोजन करते हैं और इसके लिए तब तक खाते रहते हैं जब तक हमें यह न लगने लगे कि पेट में और जगह नहीं है। ऐसे में हमें संतुलन बिंदु 'भरपेट भोजन कर चुका होने' की स्थिति के बदले इससे थोड़ा पहले को बनाना चाहिए जब यह लगे कि थोड़ी भूख बची हुई हो, तब ही हमें भोजन करना बंद कर देना चाहिए।


जीवन सूत्र 433 मन की ही नहीं बुद्धि की भी सुनें

यहां पर हमें मन अर्थात अपनी इच्छा के बदले अपनी बुद्धि से काम लेना होगा। इसी तरह से हमें अपने लिए विभिन्न क्षेत्रों में संतुलन बिंदु खुद ढूंढने होंगे, जिनके लिए हमें अपना थोड़ा आलस्य त्यागने, परिश्रम और दृढ़ संकल्प की आवश्यकता अनेक बार होगी।


डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय



(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय