गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 102 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 102


जीवन सूत्र 211 मोह का बंधन अदृश्य लेकिन मजबूत होता है

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने वीर अर्जुन से कहा है:-

गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।

यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।।4/23।।

इसका अर्थ है,जिसने आसक्ति को त्याग दिया है,जो मोह से मुक्त है,जिसका चित्त ज्ञान में स्थित है,यज्ञ के उद्देश्य से कर्म करने वाले ऐसे मनुष्य के कर्म समस्त विपरीत प्रभावों से मुक्त रहते हैं।

कर्मों के सटीक होने, विपरीत प्रभावों से मुक्त रहने और सात्विक होने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने आसक्ति के त्याग की बात कही है। मोह के अदृश्य लेकिन मजबूत बंधन से मुक्त रहने की बात कही है।


जीवन सूत्र 212 एक साथ दोनों पर सवारी मत करें



यह नहीं हो सकता कि एक साथ दो नावों पर सवारी की जाए। समग्र रूप से आत्म कल्याण के पथ पर चलने के लिए सांसारिक प्रलोभनों और आकर्षणों का विसर्जन कर अपने भीतर झांकने और उस परम सत्ता के अभिमुख होने की प्रक्रिया शुरू करना नितांत आवश्यक है।उदाहरण के लिए अगर कोई व्यक्ति एक सफल खिलाड़ी बनना चाहता है तो उसे प्रातः काल देर तक सोने की आदत को छोड़ना ही होगा और समय होने पर तत्काल बिस्तर छोड़कर उठ जाना होगा और विपरीत मौसम में भी मैदान पर अभ्यास के लिए पहुंचना होगा।

अश्वघोष कहते हैं,

ज्ञानाच्च रौक्ष्याच्च विना विमोक्तुं न शक्यते स्नेहमयस्तु पाश:।

इसका अर्थ है,ज्ञान और रूखेपन के बिना स्नेहयुक्त बंधन को तोड़ा नहीं जा सकता है।


जीवन सूत्र 213 छद्म आकर्षण और माया के बंधनों को छोड़ने के लिए एक झटके में निर्णय करना होता है


छद्म आकर्षण और माया के बंधनों को छोड़ने के लिए एक झटके में निर्णय करना होता है।मैंने अमुक बुरी चीज को त्याग दिया तो इसका अर्थ है त्याग दिया। यह नहीं कि कोशिश करता हूं।आज अभ्यास शुरू करता हूं ।


214 बुरे कर्मों से बचाव हेतु निरंतर अभ्यास जरूरी है


धीरे-धीरे आदत छूट जाएगी।ऐसे दृष्टिकोण में स्थिरता नहीं होती।मोह-माया के बीज के फिर से पनपने की संभावना रहती है।अगर हमने एक बार शुभ संकल्प कर लिया तो फिर उसका अनुपालन आवश्यक है। इसमें कोई किंतु,परंतु या छूट की गुंजाइश नहीं है।ऐसा करने पर हमारा मन ज्ञानरूप परमात्मा में स्थिर होना शुरू होता है।


जीवन सूत्र 215 परमात्मा में ही है स्थाई आनंद


उस परमात्मा के रूप में स्थाई आनंद की खोज ही इतनी अद्भुत है कि मन में ठहराव आने लगता है।यह मृग की तरह कुलांचे भरना छोड़ देता है।ऐसा होने पर हमारे कर्म लोक कल्याण के रूप में किए जाने वाले अर्थात यज्ञ रूप हो जाते हैं।



(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय