गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 42 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 42


भाग 41: जीवन सूत्र 48:हँसी और प्रसन्नता के टॉनिक

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:-


प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।(2/65)

इसका अर्थ है मनुष्य के अंतः करण में प्रसन्नता होने पर उसके समस्त दुखों का अभाव हो जाता है।उस प्रसन्न मन वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही अच्छी तरह से स्थिर हो जाती है।

वास्तव में सुख और दुख मन की अनुभूतियां हैं। कभी-कभी मनुष्य सुख सुविधाओं में भी संतुष्टि भाव नहीं होने के कारण दुख का अनुभव करता है। कभी-कभी संसाधनों के अभाव में कष्ट पूर्वक जीवन जीने के बाद भी वह मन में संतोष भाव होने से प्रसन्नता और आनंद का अनुभव करता है।

जब मन में आसक्ति व राग के कारण किसी वस्तु की कामना उत्पन्न होती है तो उसे प्राप्त न कर पाने के कारण मन में क्षोभ और विचलन उत्पन्न होता है।घृणा भाव रखते हुए विषयों से परे जाने की घोषणा भी नकारात्मक भाव लिए हुए है। वास्तव में प्राप्ति और त्याग दोनों के प्रति आसक्ति का अभाव आवश्यक है, तब मन में आनंद उत्पन्न होता है।

हर परिस्थिति में सुख और दुख से परे सम रहने की कोशिश करने वाले व्यक्ति बन पाना अगर थोड़ा मुश्किल हो तो शुरुआत अकारण हंसने से भी की जा सकती है।अगर मनुष्य अहंकार त्याग दे तो स्वयं पर हंसने से उसके जटिल व्यक्तित्व का ढहना शुरू होगा। आज के युग में हंसी भले ही खोती जा रही है, लेकिन आसपास की परिस्थितियों में हास्य ढूंढा जा सकता है।

अध्याय 2 के पूर्व के श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि उस व्यक्ति का अंतःकरण प्रसन्न होता है जो अपनी इंद्रियों को वश में रखता है। जिसका अंतःकरण उसके अधीन है। जो व्यर्थ आसक्ति और आकर्षणों को छोड़ देता है। जो अपने आराध्य के अभिमुख ध्यान में बैठता है। जो स्थितप्रज्ञ है। जो द्वंद्वों से विचलित नहीं होता है।

स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि हमारे अंतःकरण की प्रसन्नता का संबंध हमारी स्थिरता से है। अंत:करण की प्रसन्नता भी कोई सस्ता सौदा नहीं,इसके लिए साधना करनी होती है। समय देना पड़ता है। सत्य पथ पर चलना शुरू करना पड़ता है। प्राय: हम प्रयास किए बिना ही बड़ी उपलब्धियों की कामना करने लगते हैं। दूसरों से तुलना भी करने लगते हैं कि इन्हें मुझसे अधिक प्राप्त हो गया है जबकि मैं अधिक परिश्रम कर रहा हूं।ये मुझसे ज्यादा सुखी हैं। मुझसे अधिक स्वस्थ हैं।मेरे सामने ही बार बार कठिनाई आ जाती है।इस तरह हम अपने कार्य पर ध्यान देने के बदले दूसरों पर अपना ध्यान केंद्रित कर देते हैं।द्वापर युग के महानतम योद्धाओं में से एक अर्जुन स्वयं योग के मार्ग का अनुसरण करने वाले रहे हैं। कौरवों की विशाल सेना और दोनों पक्षों के अपने बंधु बांधवों को देखकर उनके मन में भावी रक्तपात को लेकर जो संशय,मोह और भ्रम उत्पन्न हुआ, इसके कारण वहां उपस्थित श्री कृष्ण ने उन्हें उचित परामर्श दिया।

सामान्य मनुष्यों के लिए तो यह जीवन ही एक युद्ध क्षेत्र है।रोजमर्रा के जीवन में आने वाले संशय,भ्रम,दुविधा,विचलन,निराशा,निरुत्साह, हृदय-भग्नता, पीड़ा आदि प्रतिदिन एक उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता लेकर आते हैं।जीवन में गुरु तत्व की बड़ी भूमिका होती है।गुरु से दीक्षा लेने के बाद गुरु के बताए मंत्रों,श्लोकों और उनसे अंतःकरण में प्राप्त होने वाली प्रेरणा से मनुष्य का मार्गदर्शन होते रहता है। कभी-कभी परिस्थितियां हमें सिखाती हैं। जब कहीं से भी कोई मार्गदर्शन या दिशा प्राप्त नहीं होती तो हमें अपनी अंतरात्मा की आवाज पर चलना होता है। यह सच्चे गुरु की भूमिका निभाता है।शर्त यह है कि हमारे मन में कोई पूर्वाग्रह ना हो।

इस श्लोक में श्री कृष्ण ने जिस अंतःकरण की प्रसन्नता की चर्चा की है,उसे प्राप्त कर लेने पर जीवन में सतत त्वरण रहेगा। हमारे आत्म कल्याण के पथ पर जीवन गतिमान भी रहेगा। अंतःकरण की प्रसन्नता में ही सारे दुखों का अभाव निहित है।भौतिक सुख साधनों, रिश्तों-नातों की अपरिहार्यता को हम जीवन में जितना विस्मृत करते जाएंगे, हम अपनी आवश्यकताएं जितनी कम से कम रखेंगे,अंतः करण की प्रसन्नता हमें सहज ही उपलब्ध होती रहेगी। अपने आराध्य के सुमिरन को शामिल कर लिया जाए,तो इसमें निरंतरता भी आ जाएगी।


डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय