भाग 42 :जीवन सूत्र 49: एकाग्रता से ही मिलती है सूझ
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: -
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।2/66।
इसका अर्थ है,जो अपने मन और इंद्रियों को नहीं जीत पाता है,उस व्यक्ति में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती है।ऐसे संयमरहित अयुक्त पुरुष में भावना और ध्यान की क्षमता नहीं होती।ऐसे भावना रहित पुरुष को शान्ति नहीं मिलती और अशान्त पुरुष को सुख नहीं मिलता है।
गीता के इस श्लोक से हम कुछ शब्दों को लेते हैं।वे हैं- चित्त को वश में करने की आवश्यकता। अपने मन को वश में करना आसान काम नहीं है। यह हिरण की तरह कुलांचे भरता है।जीवन पथ में अनेक बार ऐसे अवसर उपस्थित होते हैं, जब कोई राह नहीं सूझती है। ऐसी किसी दुविधा की घड़ी में मनुष्य को स्वविवेक से काम लेना होता है।परिस्थितियों के अनुसार कभी-कभी मन का खिन्न,अशांत और विचलित हो जाना भी स्वाभाविक है।ऐसे समय में मनुष्य जितना संतुलित रहेगा और चित्त उसके नियंत्रण में रहेगा,वह विपरीत परिस्थिति से उतनी जल्दी उबर पाएगा और उसे सही सूझ प्राप्त होगी। जीवन में सब कुछ तय योजना के अनुसार नहीं चलता।प्रायः मनुष्य केवल प्रत्याशित परिणामों को लेकर ही आगे बढ़ता है।उसकी योजना से कोई अलग ही अड़चन की स्थिति सामने आए तो ऐसे आड़े वक्त पर उसकी व्यक्तिगत सूझ ही उसकी सहायक होती है। इसे जाग्रत करने के लिए आवश्यक है- दिन में कुछ देर की मौन साधना और प्राणायाम के माध्यम से श्वांस की गति पर नियंत्रण का अभ्यास।
प्रायः हम यह सोचते हैं कि हम भावनाओं के वशीभूत होकर काम करते हैं अर्थात यह भावनाएं अपने आवेग में हमें बहा ले जाती हैं और हमारी बुद्धि उसका अनुसरण करती है। यह बात तो सही है क्योंकि अगर हमारा मन सुख सुविधाओं और भोगों के प्रति आसक्त रहेगा तो निश्चय ही हमारे कर्म उसी ओर प्रेरित होंगे क्योंकि इन अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति को हमने अपने जीवन का ध्येय बना रखा है। अगर हमारे पास यह सब ना हो तो हमें जीवन संचालित करने में कठिनाई होगी ।हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा पाएंगे। कार्य को सरल करने के लिए साधन और उपकरण अपनी जगह सही हैं लेकिन अगर हम इनके अभ्यस्त हो जाएं और इसके बिना कोई कार्य ही ना करना चाहें तो निश्चित रूप से हम इंद्रियों की गुलामी कर रहे हैं। अचानक बिजली चली जाने पर हम खीझ जाते हैं और थोड़ी ही देर में गर्मी होने की शिकायत करने लगते हैं।
हमारे जीवन में पग-पग पर आने वाले निरुत्साह, हताशा, निराशा का एक कारण यह भी है कि हम बहुत सी चीजों को अपने साथ लेकर चलते हैं। अगर हम इन्हें त्यागने का थोड़ा अभ्यास करें तो पाएंगे कि सभी चीजें हमारे लिए आवश्यक नहीं हैं, बल्कि ये हमें उलझा देती हैं।
एक तरफ यह बात सत्य है की भावनाएं हमारी बुद्धि को नियंत्रित करने लगती हैं, वहीं यह भी सच है कि अगर बुद्धि स्थिर हो जाए, बुद्धि पर हमारा नियंत्रण रहे और मन उसकी अवहेलना ना करे,तो भावनाएं भी नियंत्रित हो जाएंगी, ऐसी स्थिर बुद्धि की अवस्था में ही अंतःकरण में शुद्ध,सात्विक और पवित्र भावनाओं का उदय होता है। जब मन की सारी कलुषताएं धीरे-धीरे तिरोहित होने लगती हैं। प्रारंभ में कठिन दिखाई देने पर भी इसका अभ्यास करने की आवश्यकता है।
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय