गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 44 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 44



भाग 43 जीवन सूत्र 50 प्रलोभन और संकल्प के बीच युद्ध



भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-


इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।


तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।2/67।।


इसका अर्थ है,अपने-अपने विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक ही इंद्रिय मन को अपना अनुगामी बना लेती है,इससे वह इंद्रिय जल- नौका को वायु की तरह मनुष्य की बुद्धि को हर लेता है।


कितना आसान है मन और बुद्धि का अपने कर्तव्य मार्ग से हट जाना। मन भटका,इंद्रियों के उसके विषयों के पीछे भागने से। किसी एक ही इंद्रिय में ही यह सामर्थ्य है कि वह मन के उसकी ओर खिंचे चले आने के बाद बुद्धि को उसके संतुलन से भटका देती है। तब मनुष्य का स्वयं पर नियंत्रण नहीं रह जाता।यह इंद्रियों की गुलामी वाली अवस्था है।


साधना का मार्ग बहती धारा के साथ बहते चले जाने में नहीं है।आवश्यकता होने पर अपने सामर्थ्य का प्रयोग करना होता है और कभी-कभी तो नदी की धारा के विपरीत भी तैरना पड़ता है। यहां संयम और नियंत्रण की पग-पग पर परीक्षा है।


कई ग्रंथों में बड़े-बड़े ऋषि मुनियों की तपस्या को क्षणभर में भंग होते हुए भी देखा गया है।जहां मनुष्य ने विषयों के अभिमुख होकर व्यवहार किया,वहां ये विषय वायु के झोंकों की तरह हमारी नाव को डगमगाने लगते हैं। हम जरा सोचें, संसार में भांति - भांति के प्रलोभन हैं। हम इनके जाल में फंस जाते हैं कि यह हमारे लिए आवश्यक है,कि इसके बिना हमारा काम नहीं चल सकता,कि इसका उपयोग करने में आखिर क्या बुराई है। हम अपने तर्कों से अपने भटक जाने की एक तरह से पुष्टि करते हैं। कुछ इस तरह कि सुबह अध्ययन के लिए उठना हो और अलार्म बजने पर भी आलस्य के वशीभूत हम अलार्म बंद कर देते हैं और यह सोचते हैं कि थोड़ी देर और सो जाने में क्या नुकसान है?


सांसारिक प्रलोभन उस दलदल की तरह हैं,जहां मनुष्य एक बार पैर रखे तो फिर गहरे तक धंसता ही चला जाता है। यहां इंद्रियों के विषय में त्यागने और छोड़ने के चयन से भी काम नहीं चलेगा। अगर आत्म कल्याण के मार्ग पर चलना है, तो अपनी-अपनी उपासना पद्धति के अनुसार ध्यान लगाना होगा, अंतर्मुखी बनना होगा। ऐसे में आवश्यक होने पर सभी विषयों में बरतते हुए भी आसक्ति से रहित होना होगा। उपयोग और भोग की बारीक सीमा रेखा के अंतर को समझना होगा। अगर मन अपने आराध्य की ओर मोड़ कर रखा जाए तो बार-बार इंद्रियों के विषय परीक्षा लेने वाले रूप में हमारे सामने उपस्थित भी नहीं हुआ करेंगे।


(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)


डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय