जीवन सूत्र 306 आत्म साक्षात्कार हो जीवन का लक्ष्य
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है:-
यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं सांख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति।।5/5।।
इसका अर्थ है,ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है,कर्मयोगियों द्वारा भी वहीं प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञान योग और कर्मयोग को फलस्वरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है।
इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने पुनः स्पष्ट किया है कि ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग दोनों का अंतिम लक्ष्य उस ईश्वर को प्राप्त करना है,जो सृष्टि के प्रारंभ से लेकर सभी मनुष्यों के जीवन में सत्य की खोज के रूप में उपस्थित होता है। वर्तमान जीवन में यह ज्ञान प्राप्त करना अपनी आत्मा से साक्षात्कार कर लेना है।यह ईश्वर से एकाकार होने की पात्रता है।अब यह ऐसी स्थिति नहीं है,जिसके बारे में कोई प्रमाणपत्र देकर यह घोषित करे कि अमुक व्यक्ति ने आत्म साक्षात्कार प्राप्त कर लिया है।
जीवन सूत्र 307 जीवन में कष्ट नहीं महा आनंद की प्राप्ति हो
यह मनुष्य के वैयक्तिक अनुभूति की अवस्था है। आत्म साक्षात्कार की अवस्था को प्राप्त करने वाले मनुष्यों ने भी यह घोषित नहीं किया कि मुझे वह ज्ञान प्राप्त हो गया है,बल्कि इस ज्ञान के प्राप्त होने के बाद उनके जीवन में जिस आनंद और प्रकाश का प्रतिबिंबन दिखाई देता है,उससे यह अनुमान लगाना सहज है कि वह महाआनंद किस कोटि का है।
जीवन सूत्र 308 आत्म साक्षात्कार साधारण लोगों के लिए भी संभव
आज की ज्ञान चर्चा में इस श्लोक की व्याख्या के बाद विवेक ने आचार्य सत्यव्रत से चर्चा की:-
विवेक:अष्टांग योग में जिस समाधि की अवस्था को योग के अंतिम चरण के रूप में दर्शाया गया है,वह मानव जीवन की इसी तरह की मुक्तावस्था है।अब अगर इतनी उच्चतर अवस्था या साधना की उच्चतम अवस्था में ही अगर ईश्वर प्राप्ति संभव है तो फिर साधारण लोगों के लिए तो यह असंभव ही है।
आचार्य सत्यव्रत: आपने अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न किया है विवेक।वास्तव में आत्म साक्षात्कार की अवस्था या ईश्वर को प्राप्त करने के उस महा आनंद की अनुभूति की अवस्था ज्ञानमार्ग में निरंतर साधना से प्राप्त होती है। लेकिन यही एकमात्र मार्ग नहीं है।कर्म करते हुए भी इस अवस्था तक पहुंचा जा सकता है।शर्त यह है कि कर्म उस कोटि के हों। निरभिमान,अकर्त्ताभाव और आसक्ति के बिना हों।
विवेक: गुरुदेव यह भी तो उतनी ही कठिन साधना हुई। साधारण मनुष्य कोई कार्य करते समय बार-बार इस बात की कैसे जांच करेगा कि उसका कार्य आसक्ति से रहित होना चाहिए और कर्तापन नहीं होना चाहिए।
जीवन सूत्र 309 कार्य करते-करते ईश्वर का करते रहें स्मरण
आचार्य सत्यव्रत: इस बात को जांचने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है।सहज कर्म करते जाना है और उस ध्येय का ध्यान रखना है, जिसके आसपास हमें अपने हर कर्म में ईश्वर की उपस्थिति को अनुभूत करना है।
जीवन सूत्र 310 कार्य ईश्वर को समर्पित करें ,
फल का भार भी उन्हीं पर
अगर हम फल की चिंता करना छोड़ देंगे तो कर्म करते समय जिस दबाव और अतिरिक्त सावधानी का अनुभव तुम कर रहे हो,वह दूर हो जाएगा।
(क्रमशः)
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय