गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 120 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 120


जीवन सूत्र 296 राग द्वेष से परे रहना आवश्यक



गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है: -

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।5/3।।

इसका अर्थ है,हे महाबाहो !जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा,वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है; क्योंकि, द्वन्द्वों से रहित व्यक्ति सहज ही सुखपूर्वक संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

भारतीय ज्ञान और दर्शन परंपरा में संन्यास को एक अत्यंत कठिन साधना माना जाता है। मनुष्य इस साधना पथ का अनुसरण करने के लिए गृह त्याग करता है। गुरु के पास जाता है और संन्यास धर्म में दीक्षित होने के बाद गुरु के सानिध्य में अपने आध्यात्मिक जागरण की नई यात्रा शुरू करता है। यह मार्ग कठिन इसलिए है क्योंकि मनुष्य को अपने सारे रिश्ते-नातों को छोड़ना पड़ता है और इसीलिए संन्यास को दूसरा जन्म भी माना जाता है।



जीवन सूत्र 297 संन्यास उच्च कोटि की साधना



संन्यास अपनी आंतरिक प्रेरणा और अनुभूति के कारण लिया जाए तब तो ठीक है अन्यथा यह जीवन की समस्याओं से पलायन का दूसरा नाम बन कर रह जाता है। कभी-कभी विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाती है।


जीवन सूत्र 298 संन्यास पथ पर कठोर नियंत्रित आहार-विहार जरूरी


संन्यास मार्ग पर चलने के इच्छुक व्यक्ति को योग्य गुरु नहीं मिलते हैं और ऐसी स्थिति में वह भटकता रहता है कभी-कभी तो गुरु भी आध्यात्मिक मार्ग पर डूब जाते हैं और शिष्य को भी डुबा देते हैं।संन्यास के मार्ग में अनेक आचार व्यवहार का कठोरता और संयम से पालन करना होता है।


जीवन सूत्र 299 गृहस्थ जीवन में भी वैरागी दृष्टिकोण संभव



इस कठिन मार्ग पर चलना संभव न हो तो मनुष्य अपने सांसारिक जीवन के कर्तव्य को पूरा करते हुए भी संन्यास के फल को प्राप्त करने में एक बड़ी सीमा तक सक्षम हो जाता है। श्री कृष्ण ने इस श्लोक में द्वेष के त्याग और सभी तरह की कामनाओं से रहित होने का निर्देश दिया है।


जीवन सूत्र 300 जहां चाह नहीं वहां सुखों की थाह नहीं


यह द्वेष की भावना ही समाज में बड़े स्तर पर प्रतिस्पर्धा को जन्म देती है और मेरे पास यह चीज नहीं है, उसके पास वह चीज है,की अवधारणा को सत्य मानने के कारण मनुष्य को सांसारिक चीजों की उपलब्धि के लिए प्रवृत्त कर देती है। जहां चाह नहीं रह जाएगी वहां सुखों की भी कोई थाह नहीं रहेगी। एक प्रसिद्ध दोहे में कहा भी गया है: -

चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।

जिनको कछु न चाहिए,वे साहन के साह॥




(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय