गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 151 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 151


जीवन सूत्र 441 योग विश्व को भारत की देन

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।

यत्र चैवात्मनाऽऽत्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।(6.20)।

इसका अर्थ है:-योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है।

भगवान कृष्ण की इस दिव्य वाणी से हम योग के अभ्यास इन शब्दों को एक सूत्र के रूप में लेते हैं।


जीवन सूत्र 442 चंचल मन को वश में करने योग आवश्यक


वास्तव में चंचल मन को वश में करना बड़ा मुश्किल होता है और इसके लिए योग का सहारा लेना पड़ता है।योग के चार पथ या मार्ग हैं।राज योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा ज्ञान योग। योग का अर्थ ही है योग करना या जोड़ना और योग की सभी विधियां हमें आत्मा को परमात्मा से जोड़ने में सहायक हैं।राज योग यानी राजसी योग को अष्टांग योग भी कहा जाता है।


जीवन सूत्र 443 योग के सभी आठ चरण हैं महत्वपूर्ण

इसके आठ चरण हैं। इनमें यम (संकल्प), नियम (आचरण), आसन (मुद्राएं), प्राणायाम (श्वास नियंत्रण), प्रत्याहार (इंद्रियों का नियंत्रण),धारणा (एकाग्रता), ध्यान (मेडिटेशन) और समाधि (परम आनंद प्राप्त की अवस्था) शामिल हैं। कर्म योग हमारे कार्यों और दायित्वों से संबंधित है। भक्ति योग ईश्वर की भावपूर्ण भक्ति का मार्ग है और ज्ञान मार्ग अध्ययन के द्वारा उनके स्वरूप को जानना है।


जीवन सूत्र 444 योग विधियां स्वस्थ जीवन जीने में सहायक

वास्तव में सच्चा आनंद बाहरी सुखों और उपलब्धियों की खोज में नहीं है, बल्कि अंतर्मन की गहराइयों में उतर कर अपने चित्त को एकाग्रकर उस परम सत्ता से जुड़ने की साधना में है। वास्तव में योग के चारों मार्ग एक दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि एक दूसरे के सहायक हैं और हम अपने जीवन में इन चारों मार्गों का परिस्थिति के अनुसार अनुसरण करते ही हैं।


जीवन सूत्र 445 ईश्वर भक्ति में भी है योग और प्राणायाम


कभी हम ईश्वर की भक्ति में डूबते हैं। कभी यौगिक क्रियाओं और प्राणायाम का सहारा लेते हैं और कर्म तो हम करते ही हैं, और जब कभी हमारा मन उलझता है तो दार्शनिक चिंतन के माध्यम से हम ज्ञानयोग का भी सहारा लेते हैं।



(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय