जीवन सूत्र 436 चित्त की स्थिरता योगी की पहचान
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।(6/18)।
इसका अर्थ है अत्यंत वश में (अभ्यास द्वारा) किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही पूरी तरह स्थित हो जाता है,उस काल में संपूर्ण भोगों से स्पृहा रहित पुरुष योगयुक्त है,ऐसा कहा जाता है।
वास्तव में योग का अर्थ केवल कुछ आसनों के अभ्यास और प्राणायाम की यौगिक क्रियाओं को संपन्न कर लेने से नहीं है।
जीवन सूत्र 437 योग का अर्थ परमात्मा से जोड़ना
इसका अंततः उद्देश्य तो परम पिता परमेश्वर से आत्मा को जोड़ने से है। इससे पूर्व के श्लोकों में ध्यान लगाने की विधियां बताई गई हैं और भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिल्कुल न खाने वाले का,न बहुत सोने वाले का और न सदा जागते रहने वाले का ही सिद्ध होता है।
जीवन सूत्र 438 संयम और संतुलन का अभ्यास
इन श्लोकों में अतिवाद की निंदा की गई है और योगी के जीवन में संयम और संतुलन के महत्व को स्पष्ट किया गया है।एक आम व्यक्ति के लिए भी योग देखने में कठिन प्रतीत होने पर भी लगातार अभ्यास से सहज ही प्राप्त हो सकता है।योग और योगी की उच्चतर अवस्था जहां परमात्मा के ध्यान में चित्त का पूरी तरह स्थिर हो जाना है। एक आम व्यक्ति भी अपने स्तर पर इन दार्शनिक बातों का अनुकरण अवश्य कर सकता है ।
सूत्र 439 कर्तव्य कर्मों में अस्थिरता और अनिर्णय का करें त्याग
मनुष्य कम से कम अपने कर्तव्य कर्मों में तो अस्थिरता और अनिर्णय को त्याग कर चित्त को स्थिर कर सकता है।व्यवहार में ऐसा होता है कि मनुष्य जो कार्य करते रहता है,उस पर भी उसे संदेह होता है।अनेक बार वह मन मार कर मजबूरी में कार्य करता है या फिर वह कार्य इसलिए करता है कि उसके पास और कोई विकल्प नहीं है।
जीवन सूत्र 440 कर्मों को हाथ में लेने के बाद संदेह त्याग दें
अपना कर्म करते-करते भी उसे इसके पूरा होने में संदेह रहता है और वह इस बात को लेकर डरता रहता है कि यह कार्य पूरा होगा भी कि नहीं।बार-बार साधनों में कमी का भी हवाला देता है और 'नाच न जाने आंगन टेढ़ा' की तर्ज पर दूसरों को दोष देता रहता है।
भगवान के मुख से निकला यह श्लोक हमारे लिए मार्गदर्शक है कि हम जिस कार्य को हाथ में लें या निकट भविष्य में लेना चाहें तो उसके लिए सबसे पहले आलस्य का त्याग करें। संकल्प को मजबूत करें और अगर हमने शुरुआत कर दी है तो ढीले ढाले ढंग से न करते हुए उस कार्य को पूरे मनोयोग,स्फूर्ति और प्रसन्नता से संपन्न करने की कोशिश करें।साथ ही मार्ग में आने वाली बाधाओं से विचलित न हों और न व्यर्थ के आकर्षणों और मायाजाल की तरफ मुड़कर हम अपनी रेल को पटरी से उतरने ही दें।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय