गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 40 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 40




जीवन सूत्र 45 क्रोध का कारण हैं अपेक्षाएं और इच्छाएं


जीवन सूत्र 46 क्रोध पर विजय प्राप्त करना आवश्यक

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-


ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।

सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2/62।।

इसका अर्थ है, हे अर्जुन!विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उसमें आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से इन विषयों को प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न होती है।इच्छापूर्ति में बाधा या कठिनाई उपस्थित होने पर क्रोध उत्पन्न होता है।

इंद्रियों के विषयों में गहरा आकर्षण और सम्मोहन होता है।ये आवश्यक न होने पर भी मृगमरीचिका की तरह दिखाई देते हैं और हम प्यास ना लगने पर भी प्यास का अनुभव करने लगते हैं।ये मृग मरीचिकाएं यथार्थ हैं भी नहीं।

जैसी रेगिस्तान में कहीं पर पानी नहीं होने पर भी सूर्य की किरणों के अपरदन के कारण पानी का भ्रम होता है और प्यासा उसे जल का स्रोत समझकर उसकी ओर भागता है,ठीक इसी तरह जिन वस्तुओं की हम कामना करते हैं,वे भी यथार्थ दिखाई देने पर हमारे लिए महत्वपूर्ण और उपयोगी नहीं होती हैं। हम उन्हें यथार्थ समझकर उनके पीछे दौड़ते रहते हैं।अगर उन अभीष्टों या वस्तुओं को प्राप्त कर भी लिया जाए,तो भी इनसे वास्तविक संतुष्टि नहीं मिलती है।

एक उदाहरण से इसे समझने की कोशिश करते हैं। भूख लगने पर भोजन आवश्यक है। स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से रोटी,भात,दाल,सब्जियां आदि सुपाच्य और पौष्टिक होने के कारण ग्रहण किए जाते हैं। अधिक मीठा खाना स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह है यह जानते हुए भी कोई मनुष्य बड़ी मात्रा में मीठा खाए, तो उसकी यह कामना किसी भी तरह से उचित नहीं है। कभी कभार एक थोड़ी मात्रा में मीठा ग्रहण कर लिया जाए तो ठीक है, प्रतिदिन इसे भोजन में शामिल करना और मनमाने ढंग से खाना हमारी कामना के भटकने की ओर संकेत है।अगर प्रतिदिन ढेरों रसगुल्ले की व्यवस्था कर भी ली जाए तो भी मनुष्य तृप्त नहीं होगा उसके मन में "और प्राप्त करूं", की इच्छा बनी रहेगी। अगर इस कामना को हमने स्वयं के लिए अनिवार्य बना रखा है और इसकी व्यवस्था में ही रात-दिन चिंतन हो रहा है, तो निश्चय है कि इस वस्तु की हमें पूर्ति नहीं होने पर क्रोध उत्पन्न होगा।इससे आगे विषमताएं उत्पन्न होती जाएंगी।

बेहतर है कि हम इंद्रियों को बनावटी रूप से ही तृप्त कर पाने वाले विषयों से अपना ध्यान हटाने का अभ्यास करें।ऐसा नहीं करने पर उसमें हमारी आसक्ति दृढ़ होती जाएगी और हम इंद्रियों के गुलाम बनते जाएंगे।

जीवन सूत्र 46 क्रोध पर विजय प्राप्त करना आवश्यक

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: -

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2/63।।

इसका अर्थ है, हे अर्जुन!क्रोध से मोह उत्पन्न होता है। मोह से स्मृति में भ्रम होता है। स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से मनुष्य नष्ट हो जाता है।

पूर्व श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने बताया कि आसक्तिवश और कामनाओं की आपूर्ति में विघ्न होने से क्रोध उत्पन्न होता है इस श्लोक में उन्होंने कहा है कि यह क्रोध अत्यंत भ्रम और मोह की स्थिति को निर्मित करता है।इससे मनुष्य की ज्ञान शक्ति खो जाती है। इस तरह बुद्धि सही रूप से कार्य नहीं करती और मनुष्य अपनी स्थिति से गिरने लगता है।

अगर यह कहा जाए कि क्रोध हमें यथार्थ की दुनिया से काटकर ऐसी विवेक शून्यता की स्थिति की ओर ले जाता है जहां हम अच्छे और बुरे का निर्णय नहीं कर पाते तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।क्रोध के बहुत से कारण हो सकते हैं। पहला यह कि मनुष्य जिन कामों को नियमानुसार और उचित समझता है वह संबंधित लोगों द्वारा करता हुआ नहीं देने देखने पर और स्वयं के उन कार्यों को कराने वाला होने पर उसमें क्रोध और खीझ उत्पन्न होता है। जब सामने वाला व्यक्ति मूर्खता की हद तक गलतियां करने लगे तो यह क्रोध और बढ़ने लगता है। ऐसी स्थिति में क्रोध पर नियंत्रण करना कठिन होता है। तथापि क्रोध में कहे गए वचनों को अगर तेज आवाज में बोलने की आवश्यकता पड़े तो भी यह ध्यान रखने की जरूरत है कि वे कटुक्तियों के रूप में ना हो, ताकि सामने वाले व्यक्ति का हृदय आहत ना हो। क्रोध की अभिव्यक्ति के ढंग को नियंत्रित करना आवश्यक है। ऐसा नहीं होने पर सामने वाले व्यक्ति से जो कार्य कराना है, बहुत घबराहट में कार्य बिगाड़ भी सकता है। ऊपर से अतिरेक क्रोध का भागी होने के कारण गलतियां करने के बाद भी लोगों की सहानुभूति उसी व्यक्ति से जुड़ जाएगी।ऐसे में सही होने के बाद भी क्रोध कर रहे व्यक्ति को निरुत्तर हो जाना पड़ता है।

दूसरी स्थिति यह है कि जब प्रेम की भाषा में काम नहीं होता तो आवाज में थोड़ी तल्खी लानी होती है क्योंकि यह सामने वाले व्यक्ति के मस्तिष्क की जड़ता और अनियंत्रित दिशा को तोड़ देती है और उसे तुरंत कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।एक चार पांच साल का बच्चा अगर टेबल पर चढ़ जाए और कूदने की स्थिति में हो, और उसका नुकसान होता हुआ दिखाई देता हो , इस समय अगर वह मनुहार की भाषा को अनसुना करता हो तब तो उसे चिल्लाकर, रोककर संभावित नुकसान से बचाना ही अच्छा होता है।

तीसरी स्थिति यह है कि क्रोध की स्थिति आ गई और स्वयं पर नियंत्रण न रख पाने की स्थिति बने तो उस स्थान से किसी न किसी बहाने से हट जाना ही अच्छा है। वहां से थोड़ा दूर जाते समय बस वह इतना सोच ले कि दो घंटे बाद इस स्थिति का क्या होगा।

वास्तव में मनुष्य क्रोधवश इतना अधिक कह जाता है कि बाद में उसे पछतावा होने लगता है। ऐसे में उस व्यक्ति की सारी पूर्व की अच्छाइयां एक तरफ चली जाती हैं और सामने वाले व्यक्ति की नजर में वह एक क्षण में ही हमेशा के लिए खलनायक बन जाता है।

आदर्श स्थिति तो यही है कि हम क्रोध की स्थिति ना आने दें।भगवान कृष्ण ने तो कामनाओं और आसक्ति को क्रोध की जड़ बताकर हमें सचेत किया है। अतः क्रोध की स्वाभाविक स्थिति बनने पर भी स्वयं पर अधिकाधिक नियंत्रण रखने के लिए हमारा अंतर्मुखी होना और ध्यान के माध्यम से अपने विवेक पर अधिकार रखना बहुत आवश्यक है। दीर्घकालिक प्रयास से ऐसा नियंत्रण आने पर हम भविष्य की उन विपरीत स्थितियों से बचे रहेंगे जो हमारे विवेक को कुंद कर देती हैं।



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय