जीवन सूत्र 251 सब में ईश्वर को देखें
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा है:-
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।4/35।।
इसका अर्थ है,
इस (तत्त्वज्ञान)का अनुभव करनेके बाद तू फिर इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा,और हे अर्जुन!इससे तू सम्पूर्ण प्राणियोंको निःशेषभाव से पहले स्वयं में और उसके बाद मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में देखेगा।
जीव तब तक मोह, माया और आसक्ति से बंधा रहता है,जब तक वह चीजों पर अपना अधिकार भाव समझता है।वह यह मानता है कि यह चीज उसकी है और उसके पास होनी चाहिए और अगर वह संतुष्ट हो गया, तब भले दूसरों को प्राप्त हो सकती है।प्राप्त चीजों को लेकर तो उसके भीतर मोह की स्थिति बनती ही है,अप्राप्त चीजों को लेकर भी वह मोह माया वाला रहता है।उसकी सारी चेष्टाएं आत्म तत्व को जानने के बदले भौतिक सुख साधनों की उपलब्धि तक केंद्रित हो जाती है।
जीवन सूत्र 252 ईश्वर को जानने के बाद अन्य चीजों के प्रति आकर्षण समाप्त
इस सृष्टि के प्रारंभ में युगों पूर्व उस परमसत्ता की इच्छा और चेष्टा से ही स्पंदन हुआ और प्राणों का संचार हुआ। यह पूरी दुनिया उसी परम तत्व की अभिव्यक्ति और विस्तार है।भगवान कृष्ण कहते हैं कि(पूर्व श्लोकों में वर्णित) उस परम तत्व और परम ज्ञान को प्राप्त कर लेने के बाद सांसारिक चीजों से मोह और आकर्षण समाप्त हो जाता है। यह साधना की विशेष स्थिति है और यहां आकर मनुष्य को समस्त प्राणियों,संसार के कण-कण को स्वयं में देखने और फिर ईश्वर में देखने की अंतः दृष्टि प्राप्त हो जाती है।
जीवन सूत्र 253 सभी सृष्टि और कण कण परमात्मा का अंश
इस अवस्था में यह ज्ञात होता है कि सभी जीव और सृष्टि का कण-कण परमात्मा का ही अंश है।वह स्वयं भी इसके एक अंश के रूप में अभिन्नता का अनुभव करता है और अंततः यह पूरी सृष्टि के कण-कण को एक विराट अटूट धागे से बांध देता है।
आज की ज्ञान चर्चा में आचार्य सत्यव्रत द्वारा इस श्लोक पर प्रकाश डालने के बाद विवेक ने प्रश्न किया।
जीवन सूत्र 254 सभी लोगों को अपना मानना इतना कठिन भी नहीं
विवेक: गुरुदेव संसार में तरह- तरह के लोग हैं। सज्जनों की बात अलग है।अब दुष्ट लोगों को स्वयं में महसूस करना और उन्हें भी ईश्वर का अंश मानना,मेरे मन को तो स्वीकार्य नहीं हो रहा है।
आचार्य सत्यव्रत: शुरू में व्यावहारिक दृष्टि से ऐसा सचमुच कठिन जान पड़ता है विवेक।यहां बुरे लोगों से कोई नाता जोड़ने की बात नहीं हो रही है।न उनके बुरे कर्म को कोई स्वीकृति दी जा रही है।
जीवन सूत्र 255 अन्य लोगों में सुधारवृत्ति लाने का प्रयास उचित
बस अगर यह भाव मन में ला सकोगे कि अच्छे और बुरे सब परमात्मा के अंश हैं और वे सब धीरे-धीरे सुधारवृत्ति की ओर ही बढ़ेंगे तो तुम्हारे भीतर ऐसे लोगों के प्रति घृणा समाप्त हो जाएगी,जिनकी चेष्टाएं स्वयं तुम्हारा ध्यान विचलित कर देती होंगी।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय