गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 15 और 16 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 15 और 16

जीवन सूत्र 15 और 16 :आपके पास ही है अक्षय शक्ति वाली आत्मा, आत्मशक्ति का लोकहित में हो विस्तार

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने जिज्ञासु अर्जुन से कहा है:-

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।(2/23)।

इसका अर्थ है, भगवान कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन,इस आत्माको शस्त्र काट नहीं सकते,आग जला नहीं सकती,जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकता।

दूसरे अध्याय के इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से आत्मा की प्रकृति को स्पष्ट किया है। सभी लोगों के भीतर प्रकाशित यह आत्मा अपनी प्रकृति में विलक्षण है।जल में रहकर भी कमल की तरह निर्लिप्त।उस स्वच्छ दर्पण की तरह जो मनुष्य को बिना किसी दुराव छुपाव के उसकी छवि दिखा दे।अब इतनी शुद्ध और पवित्र आत्मा पर कोई दोष या मैल की परत चढ़ेगी कैसे? यह तो मनुष्य है जो अपने आसपास अपने कर्मों की खुद की बनाई भाप और मटमैले धुएँ के कारण वास्तविकता को देख नहीं पाता है। ऐसे में वह दर्पण को दोष देने लगता है। इस आत्मा को किसी शस्त्र से नहीं काटा जा सकता है।आग जल और वायु भी क्रमशः इसे जलाने,डुबोने और सुखाने में असमर्थ हैं।

हमारे सभी कर्मों के लिए इस आत्मा के साक्षी होने के बाद भी हम सीधा सरल जीवन जीने के बदले इस आत्मा की मार्गदर्शक वाली स्थिति की अवहेलना करते हैं और अपने मन की मनमानी का शिकार हो जाते हैं।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा की शक्तियों की विवेचना करते हुए आगे कहा है:-

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।

इसका अर्थ है, भगवान कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, यह आत्मा अच्छेद्य( जिसे काटा न जा सके) है।यह आत्मा अदाह्य( जिसे जलाया न जा सके),अक्लेद्य( जो गीला न हो सके)और निःसंदेह अशोष्य( जिसे सुखाया न जा सके) है।यह आत्मा नित्य, सभी जगह जाने में समर्थ,अचल(जो हिले भी न),स्थिर(एक ही स्थान पर हो)और सनातन है।

वास्तव में अपार शक्तियों का स्वामी है यह आत्मा। गीता के अध्याय 2 के अनेक श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा की विशेषताएं बताई हैं।यह आत्मा मनुष्य के भीतर विराजमान है इसलिए स्वतःही मनुष्य में भी ये सारी शक्तियां न्यूनाधिक रूप में महसूस की जा सकती हैं। जहां हम कभी स्वयं को एकाग्र कर और पूर्ण मनोयोग से असाधारण कार्य कर पाने की स्थिति में होते हैं,तो वहां हम अपनी चैतन्य आत्मा द्वारा प्राप्त शक्ति को महसूस कर सकते हैं।हमारे जीवन की पूरी यात्रा बाहर की खोज है।हमारे दिन के मिनट घंटे सभी तय हैं कि इस समय पर यह कार्य होना है और कभी-कभी हम आलस्य भी कर जाएं तो आने वाले समय में हमें उस कार्य को संपन्न करने की ही चिंता होती है।

बाहर सुख-सुविधाओं,यश,सम्मान, सफलता और उपलब्धियों की खोज में कभी भीतर की यात्रा नहीं हो पाती है। यह सच है कि मन को निष्क्रिय अवस्था में रखना संभव नहीं है क्योंकि मस्तिष्क द्वारा भावी कार्यों की योजना बनाने में यह मन किसी भी सीमा तक जाकर किसी अभीष्ट कार्य के सभी संभावित परिणामों को भी देख आता है।वहीं अति चिंतन प्रक्रिया के भी खतरे हैं,इसलिए मन को कुलांचे भरते हुए यहां-वहां भटकने वाले हिरण की तरह भी नहीं छोड़ा जा सकता है।आत्मा को पहचानने और उसकी शक्तियों को जाग्रत करने की शुरुआत दिन के 24 घंटों में से कुछ मिनट शांत चुपचाप बैठने से हो सकती है।जब हम थोड़ी देर ही सही,पूरी तरह से निर्विकार और चिंतनशून्य होने की कोशिश करें।आगे का रास्ता यहीं से शुरू होता है।

डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय