गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 22 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 22

 

 

भाग 20 :जीवन सूत्र 22:चुनौतियों में जन सेवा धर्मयुद्ध के समान

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-

 

अथ चैत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।

ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।(2/33)।

इसका अर्थ है:- भगवान कृष्ण कहते हैं, "हे अर्जुन!यदि तुम इस धर्मयुद्ध को स्वीकार नहीं करोगे,तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त करोगे।"

सदियों पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में मोह और संशय से ग्रस्त अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए भगवान कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया था।महाभारत युग के कुछ चुने हुए श्रेष्ठ योद्धाओं में से एक होने के बाद भी अर्जुन के मन में अपने परिजनों और कुटुंबियों के भावी विनाश को लेकर मोह और संदेह पैदा हो गया था।अर्जुन की तरह मनुष्यों के जीवन में प्रतिदिन इस तरह के मोह,भ्रम,संशय और किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति का सामना होता है।यह संशय कभी-कभी "आज कौन से वस्त्र पहनूँ", "आज यह काम करूं", "पहले यह करूं या वह करूं" से लेकर "कल क्या होगा" जैसे विचारणीय प्रश्नों की स्थितियों तक हो सकता है। वास्तव में हमारे लिए दैनिक जीवन के नियत कर्म भी धर्मयुक्त युद्ध की ही तरह महत्वपूर्ण होते हैं,अगर हम इस भावना से लें।हम आलस्य के कारण अनिर्णय का शिकार हों और उचित निर्णय लेने के लिए अगर हम पहल न करें,तो बात दूसरी है। अन्यथा हमारी अंतरात्मा एक गुरु की तरह ठीक-ठीक हमारा मार्गदर्शन करने की स्थिति में होती है कि अब अगर इस दिशा में आगे बढ़ना है, तो बढ़ना है।यह कार्य पहले संपन्न करना है,तो करना है।यह मेरे या मुझसे संबंधित व्यक्तियों के लिए आवश्यक है, तो यह कार्य करना है।अगर हम जीवन को उस परम सत्ता, जिसे हम अपनी-अपनी आस्था के अनुसार अलग-अलग नामों से भी जानते हैं,की दी हुई अमूल्य भेंट समझें तो फिर कोई संशय नहीं रहता।रोजमर्रा का हर कार्य भी आपके लिए महत्वपूर्ण हो जाता है।आप हर कार्य को उसी कुशलता से करने की कोशिश करते हैं,जैसा सार्वजनिक जीवन में किसी मंच पर आपको कोई वक्तव्य देना हो और जहां अधिक भूल-चूक की गुंजाइश नहीं होती है।अगर ईश्वर के हाथ में हमने अपने जीवन की डोर सौंप दी है और हम रंगमंच पर एक अभिनय करते कलाकार की तरह अपनी भूमिका निभा रहे हैं,तो हमें हर क्षण को बड़ी ही संजीदगी के साथ जीना होगा,लेकिन आनंद पूर्वक……. बुझे मन और उदास भाव से नहीं, प्रसन्नता पूर्वक कि जैसे यह कार्य बहुत छोटा प्रतीत हो रहा है,वह अत्यंत महत्वपूर्ण है और यह भी मेरे लिए धर्मयुक्त है…..इस भाव से।

भगवान कृष्ण के इस प्रेरक श्लोक से हम धर्म रूपी युद्ध को एक सूत्र के रूप में लेते हैं।वास्तव में युद्ध केवल वह नहीं है जो युद्ध के मैदान में लड़ा जाए।एक मनोवैज्ञानिक युद्ध तो हम अपने मन में उस प्रत्येक कठिनाई या परेशानी या संकट के समय लड़ते हैं जो जीवन पथ पर हमारे सम्मुख उपस्थित होती हैं और हम उनका कोई समाधान एकाएक नहीं ढूँढ़ पाते हैं।आने वाली वह प्रत्येक समस्या भी हमारे लिए एक धर्मयुद्ध की तरह ही होती है,जिसे हमें बड़े धैर्यपूर्वक सुलझाना होता है। जीवन कर्म की निरंतरता का दूसरा नाम है और जहां सतत कर्म है वहां सतत संघर्ष ही है।अब यह हम पर निर्भर है कि हम इसे आनंद पूर्वक लें या बोझिल भाव से लें।

 

डॉ.योगेंद्र कुमार पांडेय