विचार सरिता
सब कुछ अपने अनुसार नहीं होता
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।3/18।।
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।3/19।।
इसका अर्थ है,हे अर्जुन!उस (पूर्व श्लोक के आत्मा में ही रमण करने वाले) महापुरुष का इस संसार में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है,और न कर्म न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है।उसका सम्पूर्ण प्राणियों में किसी के साथ भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता है।अतः तू निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्म का अच्छी तरह आचरण कर,क्योंकि ऐसा मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
भगवान श्री कृष्ण ने एक विशिष्ट स्थिति की चर्चा की है- आसक्ति और मोह माया का इस तरह छूट जाना कि न तो मनुष्य किसी विशिष्ट कार्य को करने के लिए उत्सुक हो, और न उसके मन में यह भाव आए कि मैं यह कार्य ना करूं। वास्तव में हम अपनी पसंद-नापसंद के आधार पर कार्यों को करने में रुचि लेते हैं।कार्य अगर हमारे मनमाफिक है तो हम उसे उत्साह से करते हैं और कार्य अगर हमारी रुचि के अनुकूल नहीं है तो हम उसे अनिच्छा से बस किसी तरह पूरा कर देना चाहते हैं।इससे हमारे द्वारा अनिच्छा से किए जाने वाले उस कार्य की गुणवत्ता प्रभावित होगी। यह कार्य बिगड़ भी सकता है और अगर यह कार्य अनेक लोगों से संबंधित हुआ तो फिर यह अपने कर्तव्य से पलायन और लापरवाही ही है।
अगर आजीविका और लोक व्यवहार से जुड़े कर्मों की चर्चा करें तो यह संभव नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसकी रूचि के अनुसार कार्य मिल जाए।अपने श्रेष्ठतम प्रयास के बाद भी कभी-कभी तो प्रतिभा और परिश्रम के बाद भी मनुष्य को अपने वांछित कार्य वाली जगह को प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलता है,क्योंकि अनेक लोग उस पद के लिए प्रतिस्पर्धा में होते हैं।किसी पद या आजीविका के साधन प्राप्त करने के बाद भी ऐसे अनेक अवसर उपस्थित हो सकते हैं,जब व्यक्ति कार्य की प्रकृति से सहमत ना होते हुए भी उस कार्य को करने के लिए विवश हो।ऐसी स्थिति में निराशा और हताशा होती है।यहां पर हमें जो भी कार्य मिला है उसे अच्छी तरह करने और उसमें मन लगाकर उसे ही श्रेष्ठ बना देने का प्रयत्न करना ही उचित है। अगर यश या धन कमाना हमारे कार्य का लक्ष्य नहीं है तो फिर किसी विशिष्ट कार्य को करने के लिए हमारा आग्रह और किसी काम को करने में हमारी अरुचि,दोनों के द्वंद्व से हम बचे रह सकते हैं।आखिर आपके पास जो श्रेष्ठ संभव विकल्प है,वह अंततः ईश्वर की ओर से ही दिया गया दायित्व है।ऐसा दृष्टिकोण विकसित कर पाना प्रारंभ में कठिन अवश्य है, लेकिन धीरे-धीरे अभ्यास से इसका सहज हो जाना असंभव नहीं है।
(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय