गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 131 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 131


जीवन सूत्र 346 मनुष्य के स्वभाव पर निर्भर हैं कर्मों की प्रकृति




गीता में भगवान श्री कृष्ण ने वीर अर्जुन से कहा है: -

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।5/14।।

इसका अर्थ है,ईश्वर मनुष्यों के न कर्तापनकी,न कर्मोंकी और न कर्मफल के संयोग की रचना करते हैं; किन्तु मनुष्य द्वारा स्वभाव(प्रकृति)से ही आचरण किया जा रहा है।

इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण उन कारणों पर प्रकाश डाल रहे हैं,जिनके वशीभूत होकर मनुष्य अपने कार्यों को करता है।ईश्वर स्वयं शक्ति संपन्न और समर्थ होने के बाद भी संसार संचालन की प्राकृतिक व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते हैं।भगवान अपने आदेश से मनुष्य को बाध्य नहीं करते हैं कि वह विनिर्दिष्ट कार्य करे या कुछ कार्यों को मत करे। गीता में कर्तापन के त्याग और सांसारिकता तथा कर्मों के फलों में आसक्ति को त्यागने की बार-बार चर्चा होती है।


जीवन सूत्र 347 काम बिगड़ने पर दोष न दें ईश्वर को

अगर हम कार्यों के कर्ता नहीं हैं तो यह भी सच नहीं है कि ईश्वर उन कार्यों के कर्ता हैं और हम केवल माध्यम हैं। ऐसा तर्क लगाकर तो मनुष्य अपने हर अच्छे- बुरे कार्य के लिए भगवान को श्रेय दे सकते हैं या दोषी ठहरा सकते हैं।ईश्वर तत्व को हम सदप्रेरणा और सूझ के लिए उत्तरदाई मान सकते हैं।हम किसी कार्य को उनका प्रतिनिधि समझकर अर्थात अकर्तापन छोड़कर संपादित कर सकते हैं,लेकिन हम इन अच्छे बुरे- कार्यों के परिणाम के लिए ईश्वर को कारण के रूप में नहीं थोप सकते हैं।


जीवन सूत्र 348 विवेक का प्रयोग कर प्रकृति का अनुकूलन करें


उत्तरदायित्व मनुष्य का है कि वह विवेक से अच्छे कार्यों को संपन्न करे।उसके सामने जो परिस्थितियां बन रही हैं,उनका मनुष्य के द्वारा अपने स्वभाव और प्रकृतिजन्य संस्कारों के माध्यम से ही सामना होता है।


जीवन सूत्र 349 एक हद तक बदले जा सकते हैं प्रारब्ध भी

अपने पराक्रम और दृढ़ संकल्प शक्ति के द्वारा सतत अच्छे कार्य करते हुए मनुष्य अपने प्रारब्ध(पूर्व निश्चित भाग्य) को एक बड़ी सीमा तक काटने की भी क्षमता रखता है।


जीवन सूत्र 350 यह दुर्लभ मानव देह मुक्ति में सहायक



वर्तमान मानव जन्म मनुष्य के अच्छे कार्यों का ही परिणाम है और इस दुर्लभ मानव देह में मनुष्य को हमेशा अच्छे कार्य करते हुए उस परमसत्ता के अभिमुख दृष्टिकोण लेकर चलना चाहिए।इनसे हमारा स्वत: ही वह संस्कार भी होता जाएगा जो अब हमारे आने वाले कार्यों के लिए हमारी मानसिकता तैयार करते हैं।भाग्य पर निर्भर न रहते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ने का यही प्रबल कर्मवाद है।



(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय