भाग 29 :जीवन सूत्र 31:ज्ञान से परं तत्व
की ओर
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-
यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।(2/46)।
इसका अर्थ है :-सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर,छोटे
जलाशयमें मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है,उतना ही प्रयोजन ब्रह्म को तत्त्व से जानने
वाले ब्राह्मण का, समस्त वेदों में रह जाता है।
वास्तव में मनुष्य
के जीवन में ज्ञान की खोज निरंतर चलते रहती है। सत्य को जानने की बेचैनी मनुष्य के
अंदर तब से ही बढ़ जाती है जब वह होश संभालता है और चीजों को समझने लगता है। सत्य को
जानने की कोशिश की पहली सीढ़ी है ज्ञान के मार्ग को अपनाने की।इसके माध्यम से ईश्वर
या परं सत्ता या प्रकृति के उस नियंता की शक्तियों को, विशेषताओं को जानने-पहचानने
की कोशिश शुरू होती है। वास्तव में ईश्वर ज्ञान से भी मिलते हैं।भक्ति से भी मिलते
हैं।कर्म से भी मिलते हैं। ध्यान की अनंत साधना से भी मिलते हैं और कभी-कभी ईश्वर अनायास
भी मिल जाते हैं। कभी-कभी समाज की सेवा कर रहे ईश्वर तुल्य व्यक्तित्वों से हमारा साक्षात्कार
होता है;जिन्होंने मानवता की सेवा में अपना सब कुछ समर्पित कर रखा है।वे हमें उस ईश्वरत्व
की अनुभूति करा देते हैं।
ऐश्वर्यपूर्ण राजमहलों
को त्यागने के बाद मानवता की सेवा और जनकल्याण के प्रश्नों का उत्तर ढूंढने के लिए
श्री महावीर और श्री सिद्धार्थ कठोर साधना के दुर्गम पथ पर निकल पड़ते हैं। अनेक पड़ावों
को कुशलतापूर्वक पार करने के बाद वे क्रमशः भगवान महावीर स्वामी और भगवान गौतम बुद्ध
के रूप में पूरी दुनिया को सत्य,अहिंसा, शांति और मानव सेवा की राह दिखाते हैं।
मानव इतिहास के क्रम
में अनेक महापुरुषों ने अपनी पद्धति से आगे बढ़ते हुए सत्य का साक्षात्कार किया और
फिर उस परं तत्व को पा लेने के बाद आनंद की अनुभूति के उस अनंत महासागर से संयुक्त
हो गए।तब सांसारिक ज्ञान का कोई विशेष महत्व नहीं रहा जाता है। इसीलिए तार्किक नरेंद्र
जब रामकृष्ण परमहंस से प्रश्न करते हैं, "क्या आपने ईश्वर को देखा है?" तो
इसका उत्तर प्राप्त करने के क्रम में स्वामी विवेकानंद के रूप में एक युगपुरुष का निर्माण
होता है,जिन्होंने कहा मानवता की सेवा में ही ईश्वर को प्राप्त कर लेना होता है।
दुनिया के इन महापुरुषों
की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने उस सत्य का साक्षात्कार कर लेने के बाद उसे
केवल अपने तक सीमित नहीं रखा।उन्होंने उस प्रकाश को जन-जन तक पहुंचाने का रास्ता बताया।अपने
परिश्रम से दो वक्त की रोटी प्राप्त करते-करते भी हम उस प्रकाश को स्वयं में महसूस
कर सकते हैं।यह ऐसा प्रकाश है,जिसके लिए किसी उपासना की विशेष रीति या पद्धति की भी
अनिवार्य आवश्यकता नहीं है।यह ऐसा प्रकाश है जिसमें सारे प्राणी उसके एक कण को अनुभूत
कर ही अपना जीवन सफल बना सकते हैं।
(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत
के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन
पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ
में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध
अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक
वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण
की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख
उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम
है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने
का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
डॉ. योगेंद्र
कुमार पांडेय