भाग 28: जीवन
सूत्र 30:खुद पर रखें भरोसा, ईश्वर होंगे साथ खड़े
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:-
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।(2/45)।
इसका अर्थ है,वेद तीनों गुणों के कार्य रूप का ही वर्णन करनेवाले
हैं; हे अर्जुन! तू तीनों गुणों से अर्थात इनसे संबंधित विषयों और उनकी प्राप्ति के
साधनों में आसक्ति से रहित हो जा, निर्द्वन्द्व हो जा, परमात्मा में स्थित हो जा, योग(अप्राप्ति
की प्राप्ति)क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा) की इच्छा भी मत रख और आत्मा से युक्त हो
जाओ।
वेद का लक्ष्य
परमात्म तत्व से मेल कराने वाले हैं, लेकिन इसके विषय संसार और इसके विभिन्न प्राणियों
के कल्याण से संबंधित हैं।भगवान श्री कृष्ण वेदों के विभिन्न वर्ण्य विषयों से भी और
ऊपर उठकर इसके लक्ष्य परमात्मा तत्व में ध्यान केंद्रित करने के लिए कहते हैं। इसके
लिए आत्मबल चाहिए।आत्मविश्वास चाहिए। इसके लिए साधना जरूरी है क्योंकि केवल सोचने से
कुछ नहीं होगा। साधना का पथ प्रारंभ में कठिन होता है और फिर धीरे-धीरे अभ्यास से आसान
हो जाता है। अभिधम्म पिटक में कहा गया है कि मेधावी साधक अपनी आत्मा के दोष को उसी
प्रकार थोड़ा-थोड़ा क्षण- क्षण में साफ करते रहें, जिस प्रकार सुनार चांदी के मैल को
साफ करता है।
वास्तव में आत्मा स्वयं
तो शुद्ध और पवित्र है। लेकिन मनुष्य है कि अपने कार्यों से स्वयं की बनाई हुई कलुषता
और दोषों की परत चढ़ा बैठता है। अब यह जाएगा तो अभ्यास से। वह भी धीरे-धीरे। लगातार
साधना से। जब एक बार किसी कार्य को करने का आत्मबल प्राप्त हो गया तो फिर उस कार्य
को पूरा करने में कोई संदेह नहीं रह जाता।वहीं आत्मबल कमजोर हो जाने पर मनुष्य एक कदम
भी आगे बढ़ने के पूर्व घबराने लगता है।
आत्म बल पर महात्मा
गांधी ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है।वे कहते हैं, आत्मविश्वास रावण का सा नहीं
होना चाहिए, जो समझता था कि मेरी बराबरी का कोई है ही नहीं।आत्म विश्वास होना चाहिए
विभीषण जैसा, प्रहलाद जैसा, उनके मन में यह भाव था कि हम निर्बल हैं मगर ईश्वर हमारे
साथ हैं और इस कारण हमारी शक्ति अनंत है।
वास्तव में अपनी शक्तियों
में विश्वास जाग्रत करने और उसके जाग्रत हो जाने के बाद धारण करने में सर्वप्रथम सहायक
है,ईश्वर पर आस्था या उस तत्व पर आस्था, जिसे मनुष्य अपनी अपनी श्रद्धा और मान्यता
के अनुसार अलग-अलग नामों से जानता है। यह आत्मविश्वास सद्कार्यों के लिए है, और मनुष्य
ने अपने कर्म पथ पर यात्रा शुरू कर दी है, तो वह भरोसा रखे।उसकी आस्था;उसका विश्वास
उसके लिए समय-समय पर सभी साधन जुटाती जाएगी,बस वह आलस्य,प्रमाद और लापरवाही के कारण
अपने पथ से विचलित न हो।
(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत
के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन
पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ
में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध
अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक
वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण
की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख
उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम
है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने
का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
डॉ. योगेंद्र
कुमार पांडेय