जीवन सूत्र 331 कर्म का उद्देश्य आत्म शुद्धि
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है: -
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये।।5/11।।
इसका अर्थ है, हे अर्जुन!कर्मयोगी शरीर,मन, बुद्धि और इंद्रियों के द्वारा आसक्ति को त्याग कर आत्मशुद्धि (चित्त की निर्मलता) के लिए कर्म करते हैं।
मनुष्य प्रातः नींद से जागने के बाद से रात्रि में दोबारा निद्रा के अधीन होने तक निरंतर कर्मरत रहता है।वह एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता है।उसका श्वास लेना भी कर्म है। चलना कर्म है। उठना कर्म है। बैठना कर्म है और विश्राम करना भी कर्म है।कर्मों का तात्पर्य केवल शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से कोई कार्य संपन्न करना ही नहीं है। मनुष्य अगर अपने मन में प्रभु के जाप में लीन है तो यह भी कर्म है।
जीवन सूत्र 332 अवकाश भी है एक कर्म
जहां मनुष्य कर्मों से अवकाश और विराम की बात करता है तो इसका यह अर्थ है कि वह अपने कर्तव्यों से अवकाश और विराम(अर्थात पलायन) की बात कर रहा है।
जीवन सूत्र 333 लाभ न होने पर भी करने होते हैं कई काम
हम जीवन में ऐसे अनेक कार्य करते हैं जिनसे हमें कोई सीधा लाभ होता हुआ नहीं दिखाई देता,लेकिन उन कार्यों को करने से अंतःकरण में प्रसन्नता का अनुभव होता है।प्रातः काल सूर्योदय के समय के दृश्य को देख कर आनंदित होना।
जीवन सूत्र 334 कार्य में खोजें आनंद
अपनी रुचि (हॉबी) के कार्य को करते समय आनंद का अनुभव करना अर्थात ऐसे कार्य जिनके करने से मन को प्रसन्नता का अनुभव होता है। गायन,लेखन,चित्रकारी,योग,समाज सेवा के कार्य,किसी अवसर विशेष पर नेतृत्व के लिए आगे आने की क्षमता, कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिन्हें करते समय हृदय आनंद का अनुभव करता है।कोई बहुत सुरीला गीत सुनकर या किसी चलचित्र में कोई भावपूर्ण दृश्य देखकर हम उसी भावसाम्य की अनुभूति अपने हृदय में करते हैं और प्रसन्न हो उठते हैं।जब यह कुछ समय का आनंद हमें धीरे-धीरे और अन्य कार्यों को करने में भी मिलने लगता है;तब धीरे-धीरे हमारा चित्त निर्मल और शुद्ध होने लगता है।हमारे हृदय को मिलने वाली प्रसन्नता के कार्य को करने में हमसे कोई छल कपट हो ही नहीं सकता है।
जीवन सूत्र 335 अभ्यास से बनेंगे कार्य सहज
धीरे-धीरे हम यह पाते हैं कि वे कार्य जो हमारे लिए असुविधा और अड़चन लेकर आते हैं, वे भी हमें आनंद देने लगे हैं। तब हम आलस्य और प्रमाद के कारण अपनी क्षमता के होते हुए भी उन कार्यों से बचना छोड़ देते हैं।यह मार्ग आत्म शुद्धि की ओर जाता है।यह आनंद कार्य करने का आनंद है।हम और कुछ करने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं तो उस विराट सत्ता के ध्यान में डूबने का आनंद और अपनी-अपनी श्रद्धा और उपासना पद्धति के अनुसार अपने-अपने आराध्य का स्मरण भी एक सहज स्वाभाविक आनंद का कार्य है।श्री कृष्ण का संकेत है कि चित्त की शुद्धि के लिए संसार रूपी विराट कर्मक्षेत्र में उतरना ही होता है,लेकिन आसक्ति की भावना का क्रमशः विसर्जन करते हुए।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय