गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 175 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 175

जीवन सूत्र 546 विचार सरिता ईश्वर हर कहीं हैं, बस उन्हें महसूस करने की भावना और दृष्टि चाहिए


गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:-

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।

सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।(13/15)।

इसका अर्थ है -परमात्मा चराचर सब भूतों के बाहर भीतर परिपूर्ण है और अचर-अचर भी वही है। वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है तथा अति समीप में और दूर में भी स्थित वही है।

गीता में अविज्ञेय शब्द का अर्थ स्पष्ट किया गया है। जैसे सूर्य की किरणों में स्थित हुआ जल सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है।


जीवन सूत्र 547 ईश्वर का विशिष्ट शुरू होने से एकाएक दिखाई नहीं देते, उन्हें देखने के लिए साधना आवश्यक


वैसे ही यह सर्वव्यापी परमात्मा भी सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है।परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण है और सबका आत्मा होने से अत्यंत समीप है। वही परमात्मा श्रद्धारहित और अज्ञानी पुरुषों के लिए न जानने के स्वभाव के कारण बहुत दूर है।

सचमुच परमात्मा के बारे में सदैव से विचार-विमर्श होता आया है। जब नरेंद्र, रामकृष्ण परमहंस जी से पूछते हैं कि क्या आपने ईश्वर को देखा है?इस पर रामकृष्ण परमहंस उत्तर देते हैं कि हां मैंने ईश्वर को देखा है।ठीक उसी तरह, जिस तरह मैं तुम्हें देख रहा हूं। आगे चलकर उन्हीं नरेंद्र का श्रेष्ठ विवेकानंद में रूपांतरण होता है।

ईश्वर के सर्वव्यापी होने, कण कण में होने और प्रत्येक आत्मा में स्थित होने के बाद भी आखिर वह क्या कारण है कि मनुष्य की तकलीफ और पीड़ा का अंत नहीं होता है।दुनिया में अनेक हिस्सों में हम भूख,गरीबी,तनाव,अत्याचार,हिंसा,

भेदभाव देखते हैं। ऐसा क्यों होता है कि एक व्यक्ति सुबह से शाम तक कड़ी मेहनत करने के बाद मुश्किल से अपने लिए दो रोटी जुटा पाता है और एक व्यक्ति कभी-कभी बिना कुछ किए ही सुखपूर्वक अपनी ज़िंदगी जीता है। इसके उत्तर का एक संकेत तो इस इस श्लोक में ही है कि परमात्मा बिना भेद के हर कहीं उपस्थित है और हम उन्हें जान नहीं पाते हैं और परमात्मा तत्व का सहारा हम केवल किसी चमत्कार की उम्मीद में ही लेना चाहते हैं।वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति की सोच को स्वयं में उदार, सहिष्णु और परोपकारी रखने की जरूरत है।ईश्वर कण-कण में हैं।ईश्वर सामूहिक चेतना व जीवन मूल्यों का भी नाम है, जिससे समाज सापेक्ष कल्याणकारी कार्यों का संचालन हो सकता है और लोगों की पीड़ा,कष्ट और भूख को दूर करने के लिए उपाय किए जा सकते हैं।आखिर इस परमात्मा तत्व को सक्रिय और चैतन्य रूप में हम मनुष्यों को ही आत्मसात करना है और कृपा प्राप्त करना है।यह थोड़ा कठिन अवश्य है लेकिन असंभव बिल्कुल नहीं।


(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय