गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 31 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 31

भाग 30 जीवन सूत्र 32 फल मिले तो ठीक, न मिले तो सब कुछ नष्ट नहीं

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।

इसका अर्थ है:-तेरा अधिकार कर्म करनेमें ही है, इससे प्राप्त होने वाले फल में कभी नहीं। अतः तू कर्मफल का कारण भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो।

वास्तव में मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है। मनुष्य एक क्षण भी बिना कर्म के नहीं रह सकता। केवल शारीरिक उद्यम करना और कुछ न कुछ करते रहना ही कर्म नहीं है। मानसिक स्तर पर भी सद्विचार और चिंतन कर्म के अंतर्गत ही आता है।अगर मनुष्य को परिश्रम के बाद विश्राम की आवश्यकता है, तो यह भी उसका कर्म माना जाएगा।कर्म अवश्य उपयोगी व सार्थक होना चाहिए।इसका हमेशा महत्वपूर्ण होना आवश्यक नहीं है। इसलिए एक बच्चे के टूटे हुए खिलौने को उसके साथ जमीन पर बैठकर मरम्मत करने की कोशिश करना और इसमें सफल होने पर उस बच्चे के चेहरे पर आने वाली मुस्कान से बड़ा कर्म फल उस समय और कुछ नहीं हो सकता है।

वास्तव में हम कर्म करने के साथ-साथ फल की आशा करने लगते हैं। सच कहा जाए तो अनेक कर्म की शुरुआत ही फल को ध्यान में रखकर की जाती है।बिना प्रेरणा के तो कर्म असंभव है।ऐसे में पूरी दुनिया से पुरस्कार और सम्मान और प्रशंसा का महत्व खत्म हो जाएगा। भगवान कृष्ण ने कर्म करने के लिए कहा है।फल की चिंता को छोड़कर अर्थात फल जैसा मिले, जिस रूप में मिले,अगर वह न बदला जा सकता हो तो उसे उसी रूप में पूरे अंतर्मन से स्वीकार करें।

से बच निकलना है असंभव

संस्कृत का एक प्रसिद्ध श्लोक है:-

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं।

ना भुक्तं क्षीयते कर्म कल्प कोटि शतैरपि।।

इसका अर्थ है :-मनुष्य को अपने अच्छे और बुरे कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है।अनन्त काल बीत जाने पर भी कर्म,फल की उपलब्धि कराए बिना नाश को प्राप्त नहीं होते।

कर्म और इसके फल का सिद्धांत भी अत्यंत व्यावहारिक और प्रमाणिक है। भगवान कृष्ण ने भी गीता में कहा है "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।" अर्थात हे अर्जुन, तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने हैं। उसके फल में नहीं। प्रायः सांसारिक मनुष्य कर्म करने के बाद "इसका फल किसने देखा है?"यह सोच कर कर्मों की सही तरह से पूर्णता, इसकी शुद्धता और इसकी पवित्रता को लेकर लापरवाही बरतने लगता है।यह उस एक प्राचीन कहानी की तरह है जिसमें एक राजा ने अपने महल के सामने स्थित एक छोटे से खाली जल कुंड में दूध भरने के लिए अपनी प्रजा को आदेश दिया। राजा ने घोषणा करवाई कि प्रत्येक नागरिक रात्रि को एक गिलास दूध लाएगा और उस जलकुंड में डालेगा। शाम से ही राजमहल के बाहर दूध अर्पित करने वाले नागरिकों की कतार लग गई। नागरिक कुंड के पास आते गए और अपना गिलास उड़ेलते गए लेकिन जब सुबह हुई तो राजा ठगे से रह गए।कारण यह कि उस कुंड में केवल पानी ही पानी था। राजपुरोहित ने इस दृष्टांत का स्पष्टीकरण देते हुए कहा,"महाराज सबने यही सोचा कि सब लोग तो दूध ही डालेंगे।अगर मैं एक व्यक्ति पानी उड़ेल दूंगा तो क्या फर्क पड़ेगा?"

यह होती है कर्मों को लेकर मनुष्य द्वारा बरती जाने वाली कोताही।जबकि स्वयं भगवान कृष्ण ने गीता(अध्याय 9, श्लोक 22 में)कर्म पथ पर ईमानदारी से आचरण करने वाले मनुष्यों के सारे योग(परम सत्ता समेत सभी सात्विक प्राप्तियों)व क्षेम(प्राप्त अभीष्ट व साधनों की रक्षा)वहन करने का आश्वासन दिया है।

कर्म का सिद्धांत भी कुछ इसी तरह है।सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन अपने सुप्रसिद्ध समीकरण अर्थात द्रव्यमान-ऊर्जा समीकरण E = mc² में बताते हैं कि किसी पिंड के कुल द्रव्यमान को यदि प्रकाश की गति के वर्ग से गुणा किया जाए तो हम उस इकाई की कुल ऊर्जा ज्ञात कर सकते हैं।उनका कहना था कि ऊर्जा को द्रव्यमान में और द्रव्यमान को ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। केवल प्रकाश की गति की अवस्था में ही रूपांतरण नहीं बल्कि अपने दैनिक जीवन में भी हम छोटे स्तर पर द्रव्यमान का ऊर्जा में रूपांतरण होते हुए देखते हैं अर्थात जैसे लकड़ी का आग में जलने के पश्चात ताप और ऊष्मा के रूप में इसका परिवर्तन और कुछ अंशों में राख में भी बदलना। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार भी ऊर्जा को न तो बनाया जा सकता है,और न इसे नष्ट किया जा सकता है।इसे केवल एक रूप से दूसरे रूप में बदला जा सकता है।

हमारे कर्म और इसके फल भी अपने तीनों रूपों में किसी न किसी रूप में सक्रिय होकर फल के रूप में हमारे पास ही लौट कर आते हैं। पहला हमारे वर्तमान क्रियमाण कर्मों के तुरंत प्राप्त होने वाले फल। दूसरा हमारे कर्म के फल संचित होकर इस जन्म के आगे की यात्रा में साथ जाते हैं, संचित कर्म के रूप में। तीसरा है प्रारब्ध कर्म जो पूर्व जन्मों के असंतुलन को संतुलित करके हमें इस जन्म में भोगना पड़ता है। तो हम साधारण मानव अच्छाई और अच्छे कर्मों का प्रयास अवश्य करें। अपनी-अपनी आस्था और मान्यता के अनुसार अपने-अपने आराध्य को समर्पित करते हुए।

डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय