प्रेम गली अति साँकरी - उपन्यास
Pranava Bharti
द्वारा
हिंदी प्रेम कथाएँ
बादलों से टपकता पानी, धूप -छाँव की आँख मिचौली और जीवन की आँख मिचौली कभी-कभी एक सी ही तो लगती है | जब जी चाहा धूप-छाँह और जब मन किया मन के आसमान से बौछारों का सिलसिला कुछ ऐसा ही हो जाता है जैसे मन के आँगन के कोने में सिमटे कुछ ख़्वाबों के टैंट जो कभी लगा लो, कभी उखाड़ लो, उखाड़ दो क्या, जीवन की धूप-आँधियों में वे अपने आप ही बदरंगे हो जाते हैं और उखड़ जाते हैं, पता भी नहीं चलता | आख़िर आदमी कहाँ ले जाए अपने सपनों को, उनसे जुड़ी हुई संवेदनाओं को, धड़कनों को, प्रेम के उन अहसासों को जो पल-पल रंग बदलते रहते हैं वैसे वे गिरगिट नहीं होते, साँप की केंचुली भी नहीं लेकिन फिर भी कभी भी रंग बदल लेते हैं, मन को उदास कर जाते हैं | अकेला मन इस धूप-छाँव सा ही होता रहता है | मैं एक पब्लिक-फ़िगर, हर प्रकार के लोग मुझसे मिलते, उनकी समस्याएँ भी कचौटतीं लेकिन उस अहसास का क्या जो मेरे मन के समुद्र में उछालें मारती रहतीं थीं |
प्रेम गली अति साँकरी ------------- दो शब्द ---बस अधिक नहीं --- मेरे स्नेहिल साथियों ! मेरा सभी को स्नेहपूर्ण नमस्कार शब्दों की इस दुनिया में मातृभारती से मुझे भरपूर स्नेह मिला है जिसने मुझे सोचने के लिए ...और पढ़ेकर दिया कि बेशक कितनी पुस्तकें प्रकाशित हों अथवा न हों, मेरे इस पटल के पाठक मेरे साथ स्नेहपूर्वक जुड़े रहेंगे यह मेरी कोरी कल्पना ही नहीं अटूट विश्वास है आपका स्नेह पाने के लिए मेरा रविवारीय कॉलम ‘उजाले की ओर’और एक उपन्यास तो लगातार चलता ही रहता है व्यस्तताओं और उम्र के चलते मैं कहानियाँ, लघु कथाएँ, दानी
2 --- मेरी माँ अपने बालपन में केरल में रहती थीं हाँ, मैं यह बताना तो भूल ही गई कि माँ दक्षिण भारतीय थीं और पापा उत्तर प्रदेश से जब पापा बैंगलौर इंजीनियरिंग की पढ़ाई ...और पढ़ेगए, वहीं माँ-पापा की मित्रता हुई थी उन दिनों अपने बच्चों को बाहर भेजकर पढ़ाना एक वर्ग विशेष का प्रदर्शन व आत्मसंतोष हुआ करता था मेरी माँ, पापा की दोनों की किशोरावस्था थी, कुछ दिन--- शायद दो वर्ष दोनों मिलते रहे पापा के कॉलेज के पास ही माँ का नृत्य संस्थान था वह रोज़ ही वहाँ जातीं और पापा से
3 --- इस अजीब सी ज़िंदगी के कितने कोण हो सकते हैं भला ? कैसे होंगे ? जब कहा जाता है कि दुनिया गोल है फिर भी हम खुद को कभी किसी कोने में तो कभी किसी ...और पढ़ेमें सिमटा हुआ महसूस करते हैं कोनों में से तरह -तरह की आवाज़ें आती हैं, महसूस होता है, हम न जाने कितने छद्म वेषों में भटकते रहते हैं पापा अपने प्यार को कभी भी भूलने वाले तो थे नहीं न जाने उन्हें कौन सी अदृश्य शक्ति भीतर से ढाढ़स बँधाती रहती कि वे माँ के प्रति अपने प्रेम
4-- क्या यही प्यार था ? वेदान्त की हालत उस बच्चे की तरह हो रही थी जिसके हाथ में किसी ने गैस के गुब्बारों का गुच्छा पकड़ा दिया हो और वह उसके हाथ से छूटकर उड़ गया हो ...और पढ़ेवह उत्सुकता और उत्साह से उसे फिर से पकड़ने के प्रयास में अनमना हो कि अचानक वह गुब्बारे फिर उसके सामने लहराने लगे हों, कि लो पकड़ लो हमें ! यूँ तो दिल के धड़कने के लिए कालिंदी की यादें, उसका नाम ही काफ़ी था किन्तु उस पर समय का आवरण चढ़ चुका था, आज अचानक आवरण में से उसका
5 -- वेदान्त और श्यामल दोनों की जैसे लॉटरी लग गई थी डॉ मुद्गल के पास सूचना भेज दी गई और उन्होंने सपत्नीक दिल्ली आने का कार्यक्रम बना लिया था वेदान्त की माँ ने कालिंदी को ...और पढ़ेऔर उनकी आँखें आँसुओं से भीग उठीं इतने वर्षों के बाद उनके बेटे के जीवन का सूनापन दूर होने वाला था कालिंदी के चमकते, साँवले रूप पर वे कितनी लट्टू हो चुकी थीं कि उसके आते ही अपने गले से खासी मोटी चेन उतारकर उन्होंने उसे पहन दी थी अरे ! मेरा बेटा तो मेरी काली ले आया--- उन्होंने कालिंदी
6- ---- सगाई का दिन आ गया और यूनिवर्सिटी कैंपस के खूबसूरत स्थल पर गिने-चुने महत्वपूर्ण लोगों के साथ सगाई का कार्यक्रम सम्पन्न किया गया दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर, कई डिपार्टमेंट्स के हैड्स, दोनों परिवारों के करीबी ...और पढ़ेऔर मित्र आदि सभी उपस्थित थे दोनों परिवार पहले से ही परिचित थे, दोनों सासें खुशी के मारे फूली न समाईं सुंदर, सुशील, सम्मानित परिवार की बेटियाँ उनके घर में लक्ष्मी के रूप में प्रवेश कर रही थीं चौधरी साहब के परिवार में तो दो और बेटे भी थे लेकिन वेदान्त की माँ के पास एक वही था
घर में सन्नाटा पसर गया दादी का जाना जैसे एक वट-वृक्ष का जड़ से कट जाना ! पहले तो उ.प्रदेश से काफ़ी रिश्तेदारों की गहमा-गहमी रही कालिंदी के व्यवहार से तो पहले ही रिश्तेदार चकित ...और पढ़ेकरते थे अब सास के लिए इतना दुखी होते हुए देखकर बहुत से रिश्तेदार तो आश्चर्य ही कर रहे थे कि उनके परिवार की कोई भी बहुएँ ऐसी प्यार, सम्मान देने वाली और सुगढ़ न थीं जैसी ये मद्रासन निकली थी पापा बताया करते थे कि उनकी शादी में उनके रिश्तेदारों ने कितने मुँह बनाए थे उन्हें पापा गोरे लगते
खासा लंबा समय लगा उन काँटों की चुभन को छुड़ा पाने में समय के काँटे सबके दिलों में चिपक गए थे लेकिन ज़िंदगी जब तक होती है, उसका मोह कहाँ छूटता है? उसके कर्तव्य कहाँ छूटते हैं ...और पढ़ेउसकी रोजाना की तकलीफ़ें कहाँ छूटती हैं ? वे तो चंदन वृक्ष पर सर्प सी लिपटी रहती हैं सर्प अपना काम करते हैं, चंदन अपनी महक फैलाने का ! दिव्य बार-बार अपने पिता जगन से पूछता कि वह पढ़ाई के साथ अगर संगीत की शिक्षा भी ले लेता तो उसका भविष्य सुधर जाता मुझे भी हमेशा ऐसा ही लगा
9 ज़िंदगी हर पल इम्तिहान ही तो लेती है, सबका लेती है गरीब-अमीर, शिक्षित-अशिक्षित—कोई भी क्यों न हो ! कोई कितना ...और पढ़ेछिपाने का प्रयत्न करे, छिपा भी ले, बाहरी तौर पर लेकिन खुद से कभी कोई कुछ छिपा सका है ? किसी न किसी क्षण उसे उस पीड़ा के सामने ऐसे खड़ा होना पड़ता है जैसे कोई मुजरिम ! कई बार लगता है कि मनुष्य सच में मुजरिम होता है क्या ? उसे खुद भी लगता है कि आखिर उसे किस जुर्म की सज़ा मिल रही है जीवन की भूल-भुलैया उसे उसमें से बाहर आने ही
10 रतनी को जिस स्थिति में ब्याहकर लाया गया था, वह कितनी भयावह रही होगी उसके लिए जिसके प्यार को छीनकर उसको एक शराबी के पल्ले बाँध दिया ...और पढ़ेथा लेकिन उसमें शीला दीदी की भी इतनी गलती नहीं थी क्योंकि उन्हें पता ही नहीं था रतनी की ज़िंदगी के बारे में, केवल इसके कि वह अपने माता-पिता के बाद भाइयों के रहम पर पल रही थी उसके भाई ही तो अपनी बहन का रिश्ता लेकर आए थे और शीला ने उन्हें अपने भाई की हरकतों के बारे में स्पष्ट रूप से बताया था “बहन जी, हमें तो आपके
11 दिव्य हड़बड़ा उठा, पिता को देखकर वह अचंभित भी हुआ और भयभीत भी अपने समझदार होने के बाद ...और पढ़ेकभी भी अपने कसाई पिता को इस समय घर पर देखा ही नहीं था उसने क्या, शायद किसी ने भी नहीं देखा होगा जगन के घर में न रहने से सब खुलकर साँस ले पाते थे रतनी को अच्छे घरों के कपड़े सिलने के लिए मिलने लगे थे, वह कहती थी कि वह सब पहले दादी के और अब मेरे कारण हो रहा था लेकिन ऐसा कुछ नहीं था यदि उसमें इतनी होशियारी और काम
12 – न जाने क्या होता था, मैं क्यों अपने कमरे की बड़ी सी खिड़की के सामने उस सड़क की तरफ़ अक्सर खड़ी हो जाती थी जिधर रतनी का घर ...और पढ़े सड़क के ठीक सामने के पीछे के भाग में मेरे कमरे की खिड़की पड़ती थी जहाँ से केवल सड़क पार करके रतनी और शीला दीदी का घर पूरा ऐसे दिखाई देता था जैसे वह मेरे लिए ही बनाया गया हो उस तरफ़ के रास्ते बंद करवाकर पीछे की चौड़ी सड़क पर भव्य सिंहद्वार ‘गेट’बरसों पहले बनवा दिया गया था कारण, वही था कि इस रास्ते
13— बरसों ऐसे ही निकलते जा रहे थे जैसे पवन के झौंके !पापा का व्यापार और अम्मा का संस्थान बुलंदियाँ छू रहा था और कभी-कभी यह प्रश्न भी उठता ही था कि आखिर ...और पढ़ेचलाएगा उन व्यवसायों को बाद में? समय के साथ-साथ मन की साँकल कुछ प्रश्नों की खटखटाहट करने ही लगती है पापा-अम्मा, दोनों का स्टाफ़ बहुत अच्छा था कितने लोग जुड़े हुए थे उनसे और काम था कि बढ़ता ही जा रहा था वे कभी काम कम करने के बारे में सोचते या चर्चा भी करते तो न जाने क्यों निष्कर्ष हर बार
14— उस दिन रतनी का चेहरा देखकर मैं बहुत असहज हो गई थी शायद यह सच है कि खराब बातों का असर बहुत जल्दी मनोमस्तिष्क पर ...और पढ़ेहै और गहरा भी मेरे सामने अच्छे दृष्टांत भी तो थे जिनका असर बड़ा प्यारा और सकारात्मक था लेकिन इस परिवार का असर तो इतना नकारात्मक था कि कभी-कभी मुझसे सहन ही नहीं होता था देखा जाए तो मुझे क्यों उस सबसे इतना प्रभावित होने की ज़रूरत थी?क्या मालूम दुनिया में और कितने लोग इनके जैसे थे जिनका हमें पता भी नहीं चलता था लेकिन यही तो है न,
15 – दिव्य कितना अच्छा गाने लगा था जगन को पता चल गया था कि वह संस्थान में रियाज़ कर रहा है आखिर कितनी ...और पढ़ेबात छिप सकती है ? लेकिन उसने अब कुछ भी कहना बंद कर दिया था, न जाने क्यों? लेकिन बीच में जैसे वह घर पर जल्दी आने लगा था, अब उसने फिर से पहले की तरह बाहर रहना शुरू कर दिया था “एक दिन मैंने इनसे कहा कि कभी तो बैठकर बात करो, बच्चे बड़े हो रहे हैं उनके बारे में कुछ सोचना होगा तो इन्होंने मुझे धक्का दे दिया
16— ========= सड़क के उस पार से भयंकर शोर की आवाज़ आ रही थी | होगा कुछ पागलपन, किसी न किसीका झगड़ा या फिर जगन का ही कुछ होगा जो तूफ़ान बरपा हो रहा था वातावरण में ! ’हद ...और पढ़ेमें सोचा मैंने | ‘इतना दूर हो जाने यानि पीछे का पूरा आना-जाना बंद कर देने पर भी उस ओर के लोगों को देखना हो ही जाता था | वैसे मेरी ही तो गलती थी न!क्या ज़रूरत थी मुझे उधर की ओर की खिड़की खोलकर झाँकने की? लेकिन मन था न शैतान का ---!’मैंने अपने आपको ही दुतकारा | फिर
17 – =========== अपने कमरे के दरवाज़े पर नॉक सुनकर मैंने कहा –“आ जाइए | ” मुझे मालूम था महाराज होंगे मेरी कॉफी और अखबार के साथ ! “गुड मॉर्निंग दीदी ---” महाराज ने कमरे में आकर ट्रे मेरी ...और पढ़ेके पास की मेज़ पर रख दी| “क्या हुआ दीदी?आपकी तबीयत तो ठीक है न ?” महाराज ने अपनत्व से पूछा तब मेरा ध्यान गया कि वह महाराज नहीं उनका बेटा रमेश था | “गुड मॉर्निंग ---हाँ, बिलकुल –क्यों?” मैंने उसके चिंतित चेहरे पर दृष्टि डाली| “वो, आपके कमरे की लाइट बहुत देर से खुली हुई थी ---” धीरे से
18 --- =========== काफ़ी देर हो गई थी आज, अम्मा कब की तैयार होकर कला-केंद्र यानि संस्थान चली गईं थीं| उन्होंने मुझे उठाया भी नहीं था | अब तक काफ़ी उजाला हो चुका था, अम्मा ने मुझसे कहा था ...और पढ़ेसंस्थान में चर्चा के लिए यू.के की कोई टीम आने वाली थी, मैं वहाँ की तैयारियाँ देख लूँ लेकिन कमाल था, मेरी भयंकर नींद ने मुझे न जाने कब दूसरी दुनिया में पहुँच दिया था | जिस प्रकार मैं हड़बड़ा कर उठी थी अम्मा या कोई और मुझे देखता तो ज़रूर परेशान हो जाता | मैं खुद भी चौंक उठी
19 --- ================ अम्मा के साथ शीला दीदी और स्टाफ़ के लोग व कुछ विजिटिंग फ़ैकल्टी थी | सब लोग कॉन्फ्रेंस-रूम में थे | अम्मा के यू.के के वो स्टूडेंट्स जो वहाँ नृत्य की कक्षाएँ चला रहे थे और ...और पढ़ेसाथ वहाँ के दो ब्रिटिश स्पॉन्सरर्स भी आए हुए थे | वे वहाँ के केंद्र को एक बड़े संस्थान के रूप में परिवर्तित करना चाहते थे | अभी तक अम्मा के स्टूडेंट्स निजी तौर पर नृत्य-केंद्र संभाल रहे थे | उन लोगों की इच्छा थी कि यहाँ की तरह वहाँ भी विभिन्न भारतीय शास्त्रीय कलाओं का समावेश किया जा सके
20 --- =============== सब कुछ बहुत अच्छी तरह हो गया जैसे अम्मा-पापा की आदत थी किसी ने मुझसे कुछ नहीं पूछा | मैं गलत थी इसीलिए अंदर से गिल्ट महसूस कर रही थी | सबसे बड़ी बात जो परेशान ...और पढ़ेरही थी, वह यह थी कि वह अभी तक रतनी से बात नहीं कर पाई थी कि आखिर सुबह-सुबह उनके घर में शोर कैसा था? कुछ दिनों से शांति थी तो अच्छा लग रहा था | वैसे वह क्या सब ही जानते थे कि सड़क के पार वाले घर में शांति हो ऐसा तो लगभग असंभव ही सा था लेकिन
21 --- ========= रतनी की आँखों के आँसू मुझे सदा बेचैन करते थे | जीवन है या कचराखाना? शायद जगन के लिए मयखाना और परिवार के बाकी सदस्यों के लिए कचराखाना, कबाड़खाना---झुंझलाहट के मारे कई बार तो मेरा काम ...और पढ़ेमन लगता ही नहीं था| दिव्य कितना प्यारा निकल आया था और डॉली एक भरी हुई गोलमटोल युवा सीढ़ियों पर जाने को तत्पर गुड़िया सी लगने लगी थी लेकिन उनके चेहरों पर वह स्वाभाविक मुस्कान नहीं थी जो इस उम्र के बच्चों के चेहरों पर झलकती है| एक बेफिक्र और अल्हड़ मुस्कान ! मुझे लगता कि उन दोनों को वहाँ
22 ---- ========= कितने लोगों का काफ़िला तैयार हो रहा था | पहले तो कई बार अम्मा-पापा के बीच चर्चा हुई कि भविष्य में कार्यक्रम न लिए जाएं या लिए भी जाएं तो बहुत कम और महत्वपूर्ण कार्यक्रम ही ...और पढ़ेजाएं लेकिन ऐसा हो कहाँ पाता है ? अधिकतर महत्वपूर्ण स्थानों से महत्वपूर्ण लोगों के द्वारा ही निवेदन किया जाता था| स्थिति कुछ ऐसी बन गई थी कि सिर ओखली में था और अम्मा उसमें से निकलने की कोशिश करें तो भी कठिन था कि उसमें से निकल सकें क्योंकि जब निकलने की कोशिश करते कि एक नया प्रहार हो
23 -- प्यार के बारे में बात करना जितना आसान है उतना ही उसे महसूस करके उस राह पर चलना कठिन! प्यार बाँधता नहीं, खोलता ...और पढ़ेमुक्ति देता है प्यार भौतिक से आध्यात्म की यात्रा है इसीलिए जब प्यार शरीर पर आकर ठहर जाता है तब आपस में बैर-भाव, अहं ---अपने साथी को समझने की जगह उस पर दोषारोपण बड़ी आसानी से होने लगता है दरसल, बिना किसी समझदारी के हमबिस्तर होना प्यार नहीं हाँ, उसे शारीरिक ज़रूरत कहा जा सकता है मेरे सामने शरीर की ज़रूरत के कई उदाहरण थे और मेरे मन में जो
24---- ============ व्यस्तता के बावज़ूद हम सब ही कोशिश करते कि खाने की मेज़ पर तो साथ-साथ बैठें | और कुछ नहीं तो थोड़ी देर के लिए ही सही सबके चेहरे आमने-सामने तो रहेंगे| उत्पल इधर अम्मा-पापा के भी ...और पढ़ेकरीब आता जा रहा था इसलिए कभी-कभी जब वह चाय या खाने के समय वहाँ होता, अम्मा उसे अपने साथ टेबल पर बैठने का आग्रह करतीं | धीरे-धीरे वह इतना खुल गया कि चर्चा में भी सम्मिलित हो जाता और अम्मा को न जाने एक तसल्ली सी होने लगती | वह उस पर भाई यानि अपने बेटे जैसा प्यार लुटाने
25— ============ अम्मा का यू.के जाने का समय पास आता जा रहा था| सारी तैयारियाँ ज़बरदस्त चल रही थीं | उत्पल ने अम्मा का काम बड़ी खूबसूरती से किया था| अम्मा बहुत खुश थीं और उत्पल से बार-बार कहती ...और पढ़ेकि अम्मा-पापा के यू.के जाने के बाद उसकी ज़िम्मेदरी बढ़ने वाली है | वह मुस्कुराकर अम्मा को आश्वासन देता| दिव्य की बूआ और माँ से बात करके चुपचाप दिव्य का पासपोर्ट बनवा दिया गया था | लड़के की ज़िंदगी संवर जाएगी| जगन तो कभी उसे किसी भी बात की इजाज़त देने वाला नहीं था| क्या फिर वह ज़िंदगी भर यूँ
26--- ============ उत्पल वाकई बहुत श्रद्धा व लगन से काम कर रहा था | उसका एनीमेशन का काम छूट गया था लेकिन उसने इस प्रकार की वीडियोज़ बनाने में इतना हुनर हासिल कर लिया था कि सच में उसकी ...और पढ़ेकी दाद देनी पड़ती | कर्मठ तो था ही वह ! कैसी कैसी टेक्नीक्स प्रयोग में लाता था वह कि दर्शक देखते ही रह जाएं | जब से वह संस्थान में जुड़ा था तब से ही यह काम शुरू हुआ था | नृत्य सीखने वाली छात्राओं के अभिभावक अपनी बच्चियों की वीडियोज़ लेना चाहते थे | उन्हें अपनी बेटियों के
27 =============== उत्पल वाकई बहुत अच्छा, सभ्य लड़का था और मेरा मन बार-बार उसकी ओर झुक रहा था | वैसे मैं उसे अपने से दूर रखने का प्रयास करती लेकिन मन कभी कोई बात सुनता है क्या? जितना मैं ...और पढ़ेदूर रहने का प्रयास करती, उतना ही मेरी आँखों के सामने उसकी तस्वीर बार-बार आ जाती | वह और दिव्य दोनों मेरी दोनों आँखों में झिलमिलाते रोशनी से चमक पैदा करते रहते | मैं समझ नहीं पा रही थी इतनी उद्विग्न क्यों रहती हूँ? हाँ, एक महत्वपूर्ण बात थी, कला-संस्थान का काम मेरे साथ मिलकर सब ही लोगों ने संभाल
28 आज आचार्य प्रमेश बर्मन की क्लास थी, मुझे नहीं मालूम था | मैंने उन्हें दूर से देखा, वे अपनी सितार की कक्षा लेने में तल्लीन थे| 4/5 छात्र उनके सामने थे जिन्हें वे कुछ समझा रहे थे| मेरी ...और पढ़ेदूर से प्रमेश के ऊपर पड़ी, वे अपने छात्रों के साथ कार्य में निमग्न थे | मेरे मन में अम्मा-पापा की बात घूम रही थी | अधेड़ावस्था के प्रमेश का पूरा व्यक्तित्व मुझे कुछ ऐसा नहीं लगा कि वे कहीं से मेरे साथ फिट बैठेंगे | मैं भी तो उम्र की उस ड्योढ़ी पर आ खड़ी हुई थी जहाँ अम्मा-पापा
29 =============== “बैठो न ! कुछ काम है क्या? ” शीला दीदी ने सामने मेज़ पर रखे हुए ग्लास में से बची पानी की घूँट भरने का प्रयत्न करते हुए मुझसे कहा | “हाँ, है भी और नहीं भी----उत्पल ...और पढ़ेवाला है। उसी के साथ स्टूडियो में बिज़ी होना है लेकिन अभी उसे आने में कुछ देर है ----” कहते हुए मैंने अपने आपको कुर्सी में से निकाला और मेज़ पर पानी से भरे जग को उठाकर उनके खाली ग्लास में पानी भर दिया| “थैंक--यू---” उन्होंने धीरे से कहा और ग्लास उठाकर दो/तीन लंबे घूँट पानी के मुँह में भर
30 ============= मन उद्विग्न हो उठा, मन में कहीं था कि शीला दीदी से प्रमेश के बारे में बात करूंगी | हम अधिकतर सभी बातें साझा कर लेते थे लेकिन इतनी बड़ी बात सुनकर मैं सकते में आ गई ...और पढ़े| उस पार के शोर-शराबे, लड़ाई-झगड़े तो एक नॉर्मल बात थी लेकिन एक तो अभी तक दिव्य पिता के सामने बोला नहीं था जो मुझे भीतर से परेशान करता रहता था | पिता था तो क्या उसने अपने बच्चों के लिए अपनी कोई ड्यूटी की थी? वह तो उसने जो भी किया, जिस प्रकार भी किया अपने खुद के शारीरिक
========= बीहड़ झंझावात से घिरी हुई मैं बिलकुल भी सहज नहीं हो पा रही थी | कोई न कोई ऐसी बात सामने आकर ऐसे खड़ी हो जाती जिसमें मैं घूमती ही रह जाती | कभी लगता जीवन इतना सहज ...और पढ़ेहै ---फिर लगता क्या मेरा ही ? और सब नहीं हैं इस जीवन से जुड़े ? जीवन तो सबके सामने परीक्षा लेकर आता है | मैं दिव्य के लिए बड़ी चिंतित होती जा रही थी | मन उसकी माँ के लिए सोचता रह जाता | क्या इतना बड़ा अपराध किया था रतनी ने जो उसको हर दिन कोई न कोई
================= क्षण भर बाद ही मुझे स्वयं पर अफ़सोस भी हुआ| सचमुच मैं पगला गई हूँ? अम्मा के बारे में कितनी नेगेटिव होती जा रही हूँ मैं? आखिर उन्होंने किया क्या है? यही न कि वे मेरी चिंता करती ...और पढ़े| सबको एक साथी की ज़रूरत होती है | एकाकीपन को ओढ़ना-बिछाना किसे अच्छा लगता है भला ? अम्मा-पापा जिस उम्र में आ पहुँचे थे और मैं जिस यौवनावस्था को पार कर चुकी थी, उसमें उनका मेरे लिए चिंतित होना बड़ी सहज सी बात थी| पता नहीं प्रमेश को देखकर मेरे मन में उपद्रव सा क्यों होने लगा था ?
================ उस दिन संस्थान में ही रतनी दिव्य का सामान उठा लाई | शीला दीदी ने ऑफ़िस के लॉकर में उसका पासपोर्ट संभालकर रख दिया था और यह बात और भी पक्की हो गई थी कि किसी न किसी ...और पढ़ेदिव्य को वहाँ से निकलना है | डॉली भी स्कूल से संस्थान आ गई थी और दिव्य ने फ़्लैट झड़वा-पुंछवाकर फिलहाल सोने योग्य बना लिया था | उस दिन रात को वह वहीं सोया | शायद बहुत दिनों बाद उसे चैन की नींद आई होगी | वैसे उस परिवार के भाग्य में चैन की नींद थी क्या? अगले दिन डॉली
======== वह खुद तो शानदार व्यक्तित्व का था ही, उसका बात करने का अंदाज़ भी प्रभावित करने वाला था| बातें करते-करते मैं उसे उस बड़े से संस्थान के बारे में बताती जा रही थी | वह बड़ी सहजता से ...और पढ़ेबात करता रहा और मैं भी सहज रही | उसके काले बालों में चाँदी चमक रही थी और कानों के ऊपर कलमों से भी खिचड़ी बाल झांक रहे थे जो उसके ऊपर बहुत सूट कर रहे थे | उसकी स्मार्ट चाल पर भी मेरा ध्यान गया और उसके साथ चलते-चलते मैं सोचने लगी कि इतना सुदर्शन व पद पर प्रतिष्ठित
35--- =============== उस रात कितने ही चित्र मेरी आँखों के सामने गड्डमड्ड होते रहे | कभी-कभी मुझे लगता कि मैं किसी खोज में चलती ही जा रही हूँ, चलती ही जा रही हूँ लेकिन कहाँ? धूल भरे रास्तों की ...और पढ़ेनदी-पर्वत को पार करते हुए, किसी की निगाह को पहचानने की कोशिश में----पता नहीं कहाँ ? धुंध भरे रास्ते और किन्ही सँकरी गलियों में से निकलने को आतुर मन ! लेकिन कुछ भी स्पष्ट नहीं होता था | सच कहूँ तो मुझे बड़ी शिद्दत से लगने लगा था, मुझे किसी मनोवैज्ञानिक इलाज़ की सख्त ज़रूरत थी जो मेरे मन के
36---- =============== कुछ देर बाद अम्मा-पापा मेरे कमरे की ओर आए और उन्होंने मुझे बताया कि वे दोनों सड़क पार ‘मुहल्ले’ में जा रहे हैं, उनके पास महाराज का फ़ोन आ गया था | मेरी आँखों में प्रश्न देखकर ...और पढ़ेने मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा कि वे देख लेंगे, वहाँ जिस चीज़ की ज़रूरत होगी, मुझे चिंता नहीं करनी चाहिए | उन्होंने ड्राइवर को फ़ोन कर दिया था और वह बड़े गेट पर गाड़ी ले आया था | जितना वह स्थान पीछे से पास दिखाई देता था उतना ही घूमकर जाने पर लगभग आधा कि.मीटर जाना पड़ता था
37— ================== इतने लंबे-चौड़े परिसर में सन्नाटा पसरा हुआ था, संस्थान में छुट्टी घोषित कर दी गई थी | अजीब प्रकार का वातावरण था, उदासी से भरा ! मैं तो मन में हमेशा जगन के बारे में यही सोचती ...और पढ़ेथी, इसका मतलब मैं यही चाहती थी फिर इस घटना से क्यों इतनी अधिक उदास व उद्विग्न थी? “मे आई कम इन ----? ”मैं नहाकर निकली ही थी कि बाहर से आवाज़ आई | “आओ उत्पल ----” मैंने अपने बालों को तौलिए में लपेट रखा था | यहाँ से जाते हुए अम्मा-पापा कह गए थे कि वे फ़्रेश होने जा
38--- ================= हम दोनों संस्थान के परिसर से बाहर निकल आए | संस्थान में आने वालों के लिए परिसर से जुड़े एक जमीन के टुकड़े पर गाडियाँ रखने के लिए शेड बना हुआ था | हम दोनों बिना कुछ ...और पढ़ेहुए वहाँ तक पहुँचे | गाड़ी खोलकर उत्पल ने मेरे बैठने के लिए दरवाज़ा खोल दिया और मुझे बैठने का इशारा करके खुद ड्राइवर-सीट पर जाने लगा | “इतनी दूर तो हम पैदल भी जा सकते थे---”बैठकर दरवाज़ा बंद करते हुए मैं यूँ ही बुदबुदाई | अगर मुझे पैदल जाना होता तो उत्पल से पहले न कहती? मैं मन में
39--- =============== शांति दीदी के घर से निकलकर मैं उत्पल के साथ बाहर आ गई | चार कदम पर तो सड़क थी, हम दोनों चलते हुए सड़क पर आ गए जहाँ उत्पल ने गाड़ी खड़ी की थी | एक ...और पढ़ेऔर बेचैनी भरी शाम थी यह! कई दिन बाद संस्थान से बाहर निकली थी लेकिन मन में उदासी की परत दर परत चढ़ती चली जा रही थीं | मैं और उत्पल हम दोनों ही चुप थे, जैसे बात करने के लिए शब्दों का अकाल हो, क्या बात करते ? यूँ ही गुमसुम से हम गाड़ी में आ बैठे | “दीदी
40-- ================ उस दिन फिर से एक सुहानी सी पुरवाई चली जैसे मन के भीतर ! अंदर का भाग इतना खूबसूरत था कि मुझे वाकई अफ़सोस हुआ कि भई मैं ज़िंदा भी हूँ कि नहीं? क्यों मैं इतनी अलग-थलग ...और पढ़ेहम मित्रों के साथ पर्यटन पर नहीं गए हों अथवा एन्जॉय न किया हो, ऐसा तो नहीं था लेकिन मेरी इस सबकी जैसे कुछ सीमाएँ रहीं | क्यों? मालूम नहीं, घर से तो हम दोनों भाई-बहनों को एक सी आज़ादी, एक सा वातावरण, एक सा प्यार-दुलार और हर बात में एक साथ ही खड़ा किया गया था | वह बात
41-- =============== खासी रात हो गई थी उस दिन, मैं उत्पल को प्रमेश और श्रेष्ठ के बारे में बताना चाहती थी | उसके मन में अपने प्रति कोमल भाव जानकर भी मैं एक मित्र होने के नाते उससे सलाह ...और पढ़ेचाहती थी | कुछ तो बोलेगा, क्या बोलेगा? देखना चाहती थी लेकिन नहीं कह पाई | रास्ते भर फिर से हम दोनों लगभग चुप्पी ही साधे रहे | मैं जानती थी, उसके मन में उथल-पुथल चल रही होगी | किसी से कोई बात कहना शुरू करो और फिर बीच में चुप्पी साध लो---स्वाभाविक है मन में तरह-तरह के विचार उठना
42-- ================ अम्मा–पापा अभी आकर बैठे ही थे कि मैं पहुँच गई | कमरे से बाहर निकलकर मैंने देखा कल के शांत, अचेत से वातावरण में आज कुछ चेतना सी दिखाई दे रही थी | इसका कारण था कि ...और पढ़ेसंस्थान में छुट्टी की घोषणा हो गई थी अत: किसी विषय के भी गुरु अथवा छात्र नहीं आए थे कल के मुकाबले में आज कुछ चहल -पहल सी दिखाई दे रही थी क्योंकि 10 बज गए थे और साफ़-सफ़ाई का अभियान समाप्त हो चुका था और लोगों का आना-जाना शुरू हो चुका था | “कल काफ़ी देर हो गई थी?
43--- =============== ‘जगन था तो एक मुसीबत थी और अब नहीं रहा तब भी मुसीबत लग रहा है’यह मेरे मन में हलचल मचा रहा था | इससे हमारे परिवार का तो काफ़ी नुकसान हुआ ही था न ! मैं ...और पढ़ेक्यों नहीं समझ पा रही थी कि परिस्थितियों व घटनाओं पर हमारा अधिकार नहीं होता है, वे तो बस घट जाती हैं | हमें उन्हें घटते हुए देखना होता है और उनके साथ चलना होता है | मेरा उपद्रवी मन यह मानने के लिए तैयार ही नहीं था कि हम चाहें भी तो भी कुछ नहीं कर सकते | मैं
44— =============== शीला दीदी अम्मा से और मेरे से भी फ़ोन पर बात करती रहतीं | बड़ी दुविधा में थीं, क्या करें ? क्या न करें? एक तरफ़ उनकी व उनके परिवार की छत्रछाया हमारा परिवार था तो दूसरी ...और पढ़ेउन बिना बुलाए रिश्तेदारों की आँखों में वो दोनों बच्चे भी खटक रहे थे | दीदी ने रोते हुए अम्मा को बताया था कि उन रिश्तेदारों की इच्छा है कि उनके बाप के बाद उन्हें गाँव ले जाएँ और उन्हें वैसा ही पालतू बना लें जैसा उनकी माँ रतनी को बनाकर रखा हुआ था | माँ-बाप दोनों के रिश्तेदारों में
45— =========== संस्थान के काम में दिक्कत तो आ रही थी, मैं भी आजकल गंभीरता से काम संभालने लगी थी | उत्पल तो पहले से ही मुझसे अधिक सिन्सियर था | अम्मा-पापा ने किसी तरह मैनेज करके, एम्बेसी से ...और पढ़ेस्थिति स्पष्ट बताकर एक छोटे ग्रुप को नृत्य के दो गुरुओं के साथ यू.के के लिए रवाना कर दिया था | भाई अमोल और एमिली से भी सब बातें हो गईं और उन्होंने आश्वासन दिया कि वह और वे वहाँ की व्यवस्था देख लेंगे, जहाँ तक होगा भई छुट्टी लेकर यहाँ से जाने वाले लोगों के साथ रहेगा | कई
46---- ============ कुछ होना थोड़े ही था, कुछ नहीं हुआ लेकिन उन रिश्तेदारों के दिलों की धड़कनें बढ़ानी थीं, उन्हें भयभीत करना था, पापा ने वही किया लेकिन धूर्त लोग थे, ऐसे नहीं और कुछ सही | उन्होंने शीला ...और पढ़ेरतनी के चरित्र के बारे में बातें उड़ानी शुरु कर दीं | एक तरफ़ जगन की आत्मिक शांति के लिए पूजा करवा रहे हैं और दूसरी ओर उनके अपनों के ऊपर उलटी-सीधी बातें बनाकर उनके ही चरित्र से खेलने की कोशिश कर रहे हैं | कैसी है ये दुनिया ? मैं वैसे ही असहज थी और अब तो और भी
47----- ========== सच में, जीवन कैसा मज़ाक करता है ! कभी मैं अपनी आयु को गिनती, कभी कभी शीशे के आगे खड़े होकर अपने उस चेहरे को देखती जो कभी मुस्कुराता रहता था, आज दुविधा में दिखाई देता है ...और पढ़ेऐसा होना नहीं चाहिए था लेकिन हुआ और इसका प्रभाव न केवल मुझ पर वरन अम्मा-पापा पर बहुत अधिक पड़ रहा था | मुझे इस बात से बहुत पीड़ा होती कि मेरे कारण पूरे परिवार को एक अजीब सी स्थिति में से गुजरना पड़ रहा था लेकिन मैं क्या कर सकती थी ? सच में मेरे हाथ में कुछ भी
48---- ================ मन में कुछ ऊटपटाँग चल रहा था और मैं झुँझलाते हुए सोच रही थी कि इस सूनेपन को कैसे खत्म किया जाए?सोचा, आज बहुत दिनों बाद अपनी पसंद के कपड़े पहनूँ | मैं आज कुछ ठीक से ...और पढ़ेहोने अपने वॉशरूम से लगे ड्रेसिंग रूम में चली गई जिसमें दीवार के दोनों ओर कई लंबी-चौड़ी अलमारियाँ लगी हुईं थीं जिनके काँच के दरवाज़ों से ड्राईक्लीन की हुई साड़ियाँ कितने करीने से लगी हुई मुस्कुरा रहीं थीं, उसी में ऊपर के खाने में न जाने कितनी रंग-बिरंगी स्टार्च लगी, रोल प्रैस की गईं साड़ियाँ हैंगर्स में टँगी हुई थीं|
49---- =============== मैं गाड़ी में बैठ ही रही थी कि मुझे रुक जाना पड़ा | उत्पल ड्राइविंग-सीट पर बैठ चुका था और बैल्ट लगा रहा था | वैसे उसकी आदत थी कि जब वह कहीं भी मुझे अपने साथ ...और पढ़ेजाता, पहले मेरी ओर का दरवाज़ा खोलकर बड़े आदब से जैसे मुझे बैठने का संकेत करता लेकिन आज उसने ऐसा नहीं किया था, मुझसे नाराज़ जो था | मेरे भीतर उसका बचपना हँस रहा था लेकिन अचानक ही----आवाज़ सुनाई दी और शिष्टाचार के लिहाज़ से पूछना पड़ा| “ओह ! आप ?कैसे हैं ?"उसकी गाड़ी हमारे समीप ही आकर रुकी थी
50--- =========== उस दिन वाकई बड़ा मज़ा आया | पहले तो जितने भी दोस्त आए थे वे मुझ पर चिढ़ गए, मैं होस्ट थी और मैं ही लेट पहुंची थी फिर जो मस्ती की है कि लोगों को लगा ...और पढ़ेकिन्ही पागलों का ग्रुप है | मुझे लग रहा था ज़िंदगी में कभी पागल बनना भी बहुत जरूरी है | एक बच्चे जैसा मासूम और मस्त रहने में ही आम जीवन की बकवासबाज़ी को एक कोने में सरका सकते हैं ! उधर शीला दीदी और रतनी की मुसीबत चल ही रही थी | हाँ, एक बात थी----जब से पुलिस ने
============ शीला दीदी के साथ एक अजनबी को देखकर हम सबकी समझ में कुछ आ तो रहा था लेकिन जब तक परिचय न हो जाए कैसे स्पष्टता हो ?“ पापा-अम्मा ने उनको सिटिंग-रूम में बड़ी इज़्ज़त और आदर से ...और पढ़ेऔर महाराज को नाश्ता बनाने का इशारा कर दिया | कोई स्पेशल तो था, अब शीला दीदी बताएं तब न!सबके मन में उत्सुकता के घोड़े दौड़ने लगे | खैर, उस समय हम तीनों ही तो थे और शीला दीदी जो उन मेहमान को लेकर आईं थीं, वो थे| “सर ! इनको मिलाना था आपसे ---” उन्होंने बड़ी झिझक से कहा
============== जय के निकम्मे चाचा ने अपने बड़े भाई की मानसिकता का लाभ उठाकर उनसे घर के कागज़ात पर हस्ताक्षर करवा लिए| इस प्रकार की घटनाएं न नई होती हैं, न ही आश्चर्य में डालने वाली ! इतिहास से ...और पढ़ेचलता है कि मनुष्य गरीब है या अमीर सदा एक-दूसरे का दुश्मन रहा है| हमेशा से ही इस प्रकार की चालाकियाँ चलती आ रही हैं| यह बड़ी आम सी बात है लेकिन जिसके ऊपर बीतती है, उसे पता चलती है न जीवन की सच्चाई !कितना भी मजबूत इंसान क्यों न हो जब मन की दीवारें चटखने लगती हैं तब शरीर
============= उत्पल का संस्थान में आना-जाना वैसे ही ज़ारी था, उसकी आँखों, चाल-ढाल यानि पूरी बॉडी लैंग्वेज न जाने क्या-क्या कहती| जगन की उस दुर्घटना के बाद सब लोग आ चुके थे, सबने अपना-अपना काम संभाल लिया था और ...और पढ़ेका भार व चिंता कम हो रही थी लेकिन मेरी चिंता से उनकी आँखें कभी खाली दिखाई नहीं देतीं| मुझसे कुछ कहती भी नहीं लेकिन उनके मन में उठते हुए सवाल मेरे मन में बिना कुछ कहे हुए भी कचोटते| दूसरों को सलाह देने वाले अम्मा-पापा की अधेड़ उम्र की बेटी उनके सामने बिना साथी के घूम रही थी |
========== आज वह बिलकुल मूड में नहीं था मेरी 'न' सुनने के | जैसे उसने बताया था कि अम्मा-पापा से मुझे बाहर ले जाने की बात करके आया था | अम्मा-पापा तो चाहते ही थे कि मैं किसी की ...और पढ़ेतो बढ़ूँ, किसी में तो रुचि दिखाऊँ| चाहे वह प्रमेश हो, जिनकी बहन न जाने क्यों मुझे इतना चाहने लगी थीं कि जब भी आतीं कोई न कोई मंहगे उपहार लेकर आ जातीं| “अम्मा ! क्या है ये ?कोई मतलब है क्या ?आखिर किस रिश्ते से उनके उपहार ले लूँ ?”मैं चिढ़ती | “बेटा! मैं मना भी कैसे करूँ ?मेरी
========== आज तो श्रेष्ठ के साथ आना ही पड़ा था | अम्मा की लिस्ट में वह पहले नं पर था और उसके बाद प्रमेश! डॉ.पाठक से भी अम्मा की बात होती रहतीं और वे उनसे यही कहतीं कि डिसीज़न ...और पढ़ेअमी को ही लेना है | पिछले दिनों इतना कुछ घटित हो गया था कि कोई भी चैन से नहीं रह पाया था | आजकल भी अम्मा-पापा का ध्यान संस्थान और मेरे अलावा शीला दीदी के परिवार के सदस्यों पर भी केंद्रित था | जीवन की धूप में मैं भी जल रही थी और छाँह का नामोनिशान दिखाई नहीं दे
========== थोड़ी देर में झुँझलाते हुए श्रेष्ठ ने रेस्टोरेंट में प्रवेश किया | उनके चेहरे पर कुछ अनमनाहट सी पसरी हुई थी लेकिन मेरे चेहरे पर मुस्कान व सुकून तथा आँखों में खुशी की चमक देखकर शायद उन्हें थोड़ी ...और पढ़ेहुई और वह उस मेज़ की ओर आए जहाँ मैं बैठी थी | अंदर सब अच्छा ही था लेकिन उनके मन में तो फ़ाइव स्टार से नीचे की बात गले से उतर ही नहीं रही थी फिर से थोड़ा सा मूड ऐसा ही लगा मुझे श्रेष्ठ का! “आखिर इसमें ऐसा क्या है ?” उसने मेरे सामने बैठते हुए पूछा |
=========== घर पर शीला दीदी, रतनी, जेम्स और एक नया आदमी जिसे मैंने तो कभी नहीं देखा था, सिटिंग-रूम में बैठे हुए थे | आश्चर्य हुआ, अभी तक?मुझे तो लगा था अब तक सब डिस्पर्स हो चुके होंगे | ...और पढ़ेएवरीबड़ी---” मैंने सिटिंग रूम में घुसते ही सबको विश किया | “हो गया लंच---?” अम्मा की आँखों से उत्सुकता झाँक रही थी | “आज लंच नहीं, लस्सी पीकर आई हूँ ---” मैंने मुस्कुराते हुए कहा और पूछा; “आप लोगों का हुआ ?” “हम्म, बहुत बढ़िया---महाराज और रमेश ने बहुत बढ़िया खाना खिलाया | ” अरे वाह! अच्छा लगा सुनकर रमेश
========= वह रात मेरे लिए फिर करवटें बदलने की रात थी | मालूम नहीं क्या हो जाता था ?क्यों इतनी हलचल रहती थी?क्यों मन अक्सर उदास, अनमना सा हो जाता था | ऐसी चुप्पी क्यों लगी है ज़िंदगी के ...और पढ़ेक्यों अँधेरों में छिपी है ज़िंदगी के बावज़ूद | मुझे बार-बार लगता कि ज़िंदगी मेरे लिए ही क्यों इतनी गुमसुम सी है?यह जानते हुए भी कि कमी मेरी ही है, निर्णय न लेने का साहस क्यों नहीं कर पाती मैं?हम जिन्हें सड़क पार के मुहल्ले का कहते हैं, देखा जाए तो कितने ही परिवार वहाँ ऐसे थे जिन्होंने किसी की
59-- शादी में महाराज का, ड्राइवर का पूरा परिवार आया था | संस्थान में काम करने वाले कोई दो-चार तो थे नहीं एक लंबी पंक्ति थी | सबको बड़े प्रेम व आदर से निमंत्रण दिए गए थे | पापा, ...और पढ़ेने शीला दीदी-प्रमोद, रतनी-जय, दोनों बच्चे दिव्य और डॉली, इनके अलावा प्रमोद की माता जी सबके लिए कपड़े मँगवाए थे | कितने गिफ्ट्स मँगवाकर शीला दीदी और रतनी को दिए गए कि सब भौंचक रह गए | लोगों के पास पैसा होता है लेकिन इतने बड़े दिल कहाँ होते हैं जो अपने परिवार की तरह खुलकर खर्च करें | अभी
60--- ======= कितने लंबे समय के बाद एक सुकून सा महसूस हुआ था सबको | जगन की कहानी एक बीता हुआ दुखद स्वप्न था | जिसको जितनी जल्दी दिलोदिमाग से खुरचकर फेंक दिया जाए, उतना ही अच्छा था | ...और पढ़ेएक ऐसी भीगी हुई पीड़ा थी जैसे कोई किसी भीगे कपड़े को निचोड़कर कोड़े मारता हो | कितना सहा था इस पूरे परिवार ने केवल एक आदमी के कारण लेकिन होता है, ऐसे ही होता है जीवन में, एक मछली जैसे सारे तालाब को गंदा करती है ऐसा ही कुछ हुआ था शीला दीदी के परिवार में | मैं भी
61--- ===== आज श्रेष्ठ काफ़ी खुश था | व्यक्तित्व तो उसका शानदार था ही, आज ड्रेसअप भी कमाल का था | उस स्काई ब्लू और रॉयल ब्लू के कॉमबिनेशन ने उसके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा दिए थे, एक ...और पढ़ेही रंग में रंग दिया था उसे | ‘सच है, इंसान के लिबास का उस पर कितना फ़र्क पड़ता है, और अगर वह खूबसूरत हो तब तो बात ही क्या है!’मैं उसको देख रही थी और कहीं न कहीं दिल में खुश भी थी | क्या मैं उसके साथ फ़िट बैठ सकूँगी या वह मेरे ?एक ही बात है वैसे
62---- ======== हम किसी बड़े सुंदर हॉलनुमा कमरे में पहुँच चुके थे | हमारे साथ ही होटल का कर्मचारी था जिसने डोर ओपनिंग कार्ड से कमरे का दरवाज़ा खोलकर श्रेष्ठ को वह कार्ड पकड़ा दिया था और कुछ पीछे ...और पढ़ेओर हाथ बांधकर खड़ा हो गया था | “सर---”श्रेष्ठ को अपनी ओर देखते ही उसने धीरे से कहा | “यू कैन गो, आई विल ऑर्डर ऑन द फ़ोन ---थैंक यू --” “यस सर---थैंक यू----” उसने बड़ी तहज़ीब से कहा और मुड़कर चला गया | “आओ----” श्रेष्ठ ने कमरे में प्रवेश करते समय मेरा हाथ छोड़ दिया था और बहुत बड़े
63--- ====== हम कमरे के बाहर निकल चुके थे | वैसे घर से निकले हुए मुझे दो घंटे तो हो ही गए होंगे लेकिन अभी तक उसका कोई ऐसा प्रभाव मुझ पर नहीं पड़ सका था कि मैं उसकी ...और पढ़ेआकर्षित होती | वैसे उसके व्यक्तित्व से तो मैं पहले से ही प्रभावित थी | धीरे-धीरे मुझे पता लगने लगा था कि इस बंदे का ‘लिविंग स्टाइल’ ज़रा ज़्यादा ही मॉर्डन है | हमारे घर के डिनर से शायद उसने अंदाज़ा लगाया था कि हम बड़े हाई-फ़ाई लोग हैं लेकिन वह यह नहीं समझ पाया था कि हम काफ़ी समृद्ध
64- ============== रतनी और शीला दीदी की गृहस्थी शुरू हो गईं और जैसे एक तसल्ली भरा खुशनुमा माहौल संस्थान के कोने-कोने में मुस्कुराने लगा | रतनी के बच्चों को लगता, अब उन्हें पिता मिला है | जेम्स यानि जय ...और पढ़ेइंसान के रूप में इतना सही, गंभीर, विवेकी और प्रेमी व्यक्तित्व था कि उसने दिव्य और डॉली को अपने गले से ऐसे लगाया मानो वे उनके ही अपने बच्चे हों | इन्हें कम पढे-लिखे लोग कहते हैं ? तो अधिक पढे-लिखे कैसे होते हैं? लोग वही---- उनसे जुड़े प्रश्न वही, उत्तरों में बदलाव और उन उत्तरों से झाँकती खनखनाती हँसी
65 ========== एक असमंजस में झूल रही थी मैं, न जाने कब से | मन केवल और केवल उत्पल की ओर झुक रहा था और सामाजिक रूप से, खुद अपने मन में कहीं गिल्ट भी महसूस कर रहा था ...और पढ़ेप्रेम पर कैसे कंट्रोल किया जा सकता है? अगले दिन नाश्ते पर अम्मा-पापा की आँखों में न जाने कितने सवाल भरे हुए थे लेकिन मैं उनकी आँखों में भरे हुए सवालों को समझते हुए भी नहीं समझ रही थी | आखिर क्या बताती? ये सब बातें दोस्तों –वो भी किसी करीब के दोस्त से शेयर करने तक तो ठीक---पर अम्मा-पापा
66 ========= मैंने नहीं पूछा, हम कहाँ जा रहे थे | जहाँ भी जाएं क्या फ़र्क पड़ता है ? बातें करेंगे, खाएंगे-पीएंगे और थोड़ी सी शरारत भी ! कुछ क्वालिटी टाइम साथ में बिताएंगे | और हाँ, उसे कुछ ...और पढ़ेकरना है, वह भी सुन लूँगी, यही सब सोच रही थी मैं गाड़ी में बैठी | “आपने पूछा नहीं, हम कहाँ जा रहे हैं ? ”उत्पल ने अचानक शरारत से पूछा | उसने बहुत धीमी आवाज़ में मेंहदी हसन की गज़ल लगा रखी थी जो मुझे बहुत पसंद थी, शायद उसे भी | मैंने कितनी बार उसे उसके चैंबर में
================= जीवन की भागदौड़ में भी न जाने कितनी बातें ऊपर-नीचे होती रहती हैं, फिर भी इंसान अपनी इस भाग-दौड़ से पीछा कहाँ छुड़ा पाता है---और दरअसल भाग-दौड़ होती है उसके मस्तिष्क से! मस्तिष्क में उमड़ते झंझावात उसे चैन ...और पढ़ेरहने ही नहीं देते और फिर मस्तिष्क के साथ उसकी शारीरिक थकान भी शुरू हो जाती है | मेरा मस्तिष्क थकता था, कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था जीवन के चक्र में से कैसे निकलूँ या उसमें ही मकड़ी की तरह चक्कर मारती रहूँ? उलझनों के जाले में अटका हुआ इंसान कोई स्पष्ट राह नहीं तलाश कर पाता
=============== दिनोंदिन मन की आकांक्षा मुझे उत्पल की ओर खींचती रही और मैं असहज होती रही | बार-बार लग रहा था, अपना मन उसकी ओर से हटा लेना चाहिए लेकिन किसी दिन दिखाई न दे तो बेचैनी से मन ...और पढ़ेलगे | ये प्यार के अलावा और क्या हो सकता है जो विवश कर देता है | अम्मा-पापा कुछ कहें न कहें, उनकी कातर दृष्टि में मुझे जो असहाय और करुणा दिखाई देती कि लगता, जीवन की हर अमीरी, प्रसिद्धि, सुख-सुविधाएँ होने पर भी वे ताउम्र कितने बेचारा सा महसूस करते रहे हैं और मैं जैसे उनकी अपराधी थी |
======== “क्या रहा उस दिन---श्रेष्ठ जी से मीटिंग---” शीला दीदी ने कॉफ़ी का आखिरी सिप लेते हुए पूछा | क्या मुझे सब कुछ खुलकर बता देना चाहिए? मन में उथल-पुथल थी | एक तरफ़ सब कुछ शेयर करना ज़रूरी ...और पढ़ेरहा था तो दूसरी ओर न जाने एक प्रकार की झिझक सामने मुँह फाड़े खड़ी हो जाती थी | मैं खुद भी तो कब से सोच रही थी, बात करने की लेकिन न जाने कौन और क्या मुझे रोक देता? जैसे एक दीवार सी खड़ी थी मेरे सामने, उसको हटाना तो होगा ही किन्तु कैसे ? यही तो सबसे बड़ी
============== आखिर अम्मा को बताना ही पड़ा कि मैं श्रेष्ठ के साथ कंफ़रटेबल नहीं थी | दोपहर का समय था, इस समय लगभग शांति सी ही रहती थी संस्थान में ! सुबह की कक्षाएँ समाप्त हो जाती थीं और ...और पढ़ेतरह से सबका ही यह‘लेज़ी टाइम’ होता था फिर संध्या की कक्षाएँ शुरू होतीं जिसके लिए संध्याकाल पाँच बजे के करीब फिर से सब संस्थान में आने शुरु होते | दोपहर में सब लगभग रिलैक्स मूड में ही होते और अपने घरों को चले जाते या अपने चैंबर्स में संस्थान में ही रिलैक्स करते | एक उत्पल था जो अपने
=========== उत्पल कॉफ़ी मँगवाने के लिए कहता रह गया लेकिन उसने जब अपने एफ़ेयर्स के बारे में बात बताई, मैं उलझन में आ गई | मेरा दिल उसके लिए क्यों धड़कता था? उसके व्यवहार में जो शैतानी थी, अपनापन ...और पढ़ेमुझे लेकर जो एक उत्साह व चंचलता थी, उसके लिए मैं उसकी बातों में डूबी जा रही थी, अचानक ही जैसे एक झटका लगा था और उसके पास अधिक देर नहीं बैठ पाई थी | उस दिन बहुत अनमनी हो उठी मैं ! मुझे बड़ी शिद्दत से लगा कि मैं ही इतनी बेचारी क्यों हूँ जिसका अभी तक सही अर्थों
============ बार-बार दिल में आता कि मैं क्यों न अविवाहित रहने का व्रत ले लूँ लेकिन वह भी तो कह पाना या पचा पाना, कठोर निर्णय ले पाना इतना आसान नहीं था | जानती हूँ कि एक बार अम्मा-पापा ...और पढ़ेज़रूर होते लेकिन वे भी समझते तो थे ही कि बिना पसंदगी के शादी-विवाह जैसे मामले में आगे बढ़ना कैसे ठीक हो सकता है ? यह केवल तन का मिलन नहीं होता, जब तक मन न मिले तह तक कैसे? या तो यह होता कि मुझ पर साधुपने का बुखार चढ़ गया होता | जो बिलकुल भी नहीं था और
============ आज अम्मा-पापा से खुलकर सारी बातें कहने वाली थी | उनसे वायदा किया था कि लंच पर हम मिल रहे हैं | क्या, हो क्या गया था हमारे परिवार को ? दुख तो होता था मुझे, कहाँ वो ...और पढ़ेजो समय खास तौर पर शैतानी के लिए, हँसने के लिए, खिलखिलाने के लिए, एक –दूसरे की खिंचाई के लिए निकाला जाता था | डिनर पर तो हर दूसरे दिन कोई न कोई होता या हम कहीं न कहीं इन्वाइटेड होते | हँसी-ठहाकों में भी जैसे व्यंजनों की सुगंध पसरी रहती और अब जैसे चुप्पी पसरी रहती है | तब
74 =============== अम्मा-पापा से बात कुछ और करना चाहती थी लेकिन उत्पल को देखकर अपने डाँस को शुरू करने की बात फिर कई बार दोहराती रही| क्या इसका कोई खास कारण रहा होगा? कोई ऐसी वजह जिसके लिए मैं ...और पढ़ेको तकलीफ़ में देख पाने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी फिर भी स्वयं आहत होकर उसे भी आहत करना चाहती थी, क्यों ऐसा? एक ओर उसकी बात सुनकर भीतर से झुलसता दिल और दूसरी ओर उसकी बात से खुद कष्ट पाकर उसको भी शायद पीड़ा देना| दो विरोधी बातें ! क्या मैं उसकी बात जानकर उससे पीछा छुड़ाना
75 =============== मौन में बड़ी ताकत होती है लेकिन जो मैं ओढ़-बिछा रही थी वह मौन नहीं था, वह चुप्पी थी| ऐसी चुप्पी जिसमें आग नहीं थी, धुआँ इतना था कि मन के आसमान में कोई सितारा टिमटिमाता दिखाई ...और पढ़ेनहीं दे रहा था| अंधकार में भटकता मन अपनी गलियों को भुला रहा था, मार्ग अवरुद्ध थे और प्रकाश में जीने की ललक हृदय की धड़कन को जैसे ‘आर्टिफ़िशियल पंप’ के सहारे जिलाए हुए थी| नहीं कर पाई मैं कुछ भी, न ही मैडिटेशन और न ही नृत्य---कला की पुजारिन माँ की बेटी रजिस्टरों के बीच फँसी रह गई थी|
76---- ---------------------- इस बीमारी की कहर ने स्कूलों, कॉलेजों, संस्थानों में ताले लगवा ही दिए थे, काफ़ी दिनों बाद कुछ ‘ऑन-लाइन’ का चक्कर शुरू हुआ, निर्णय लिया गया था कि क्लासेज़ ऑन लाइन ली जानी चाहिए अन्यथा बिना रियाज़ ...और पढ़ेसब छात्र-छात्राएं सब कुछ भूल जाएंगे| स्कूलों में भी ऑन-लाइन क्लासेज़ शुरू की गईं थीं और कला-क्षेत्रों में भी काम का पुनरारंभ ऑन-लाइन हुआ | जो पहले स्वप्न की सी बात लगती थी अब जीवन की वास्तविकता लगने लगी|इतनी दूरी हुई कि आम आदमी उखड़ने लगा, टीन एज के बच्चों की मानसिकता पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ने लगा और सबको
77--- ----------------------- उद्विग्न, विचलित मन का नक्शा जिसमें न जाने कौन कौन से अनजाने शहर, गाँव, गलियों का बसेरा था | जिनमें बंद होते, खुलते दरवाज़े थे, जिनमें प्यार की कोमल संवेदनाएं थीं और कुछ ऐसी फुलझड़ियाँ जिन्हें ज़रा ...और पढ़ेआँच मिली नहीं कि फटने को बेकरार थीं लेकिन सब कुछ ऐसे हालत में तब्दील होता जा रहा था जो मूक दर्शक सा बन अपने आपको समर्पित कर रहा था विश्व के उस उलझाव में जिसे विधाता ने गडा था और जो शायद -----नहीं, शायद नहीं, सच ही अपनी ही बनाई कठपुतली यानि इंसान को एक ऐसा पाठ पढ़ाना चाहता
78— =========== महामारी की दूसरी लहर में बुरा हाल देखने को मिल रहा था और अम्मा ने रतनी से बचे हुए कपड़ों और पापा के द्वारा मँगवा दिए गए सॉफ़्ट कपड़े के थान में से ढेरों ढेर मास्क बनवाए ...और पढ़ेये मास्क ऐसे थे जिन्हें धोया जा सकता था | शीला दीदी ने कहा कि वे घर में ही सेनेटाइज़र बना सकती हैं | देखने में यह आ रहा था कि सेनेटाइजर्स की नई-नई ब्रांडस बाज़ार में धड़ल्ले से आ रही थीं | सभी कंपनियों ने सेनेटाइज़र बनाकर टी.वी पर उसका ‘एड’ देना शुरू कर दिया था | ऐसा लगता
79 ---- ============= हमारे संस्थान में दो बब्बर शेर थे जर्मन शेफर्ड़ जो बहुत खतरनाक था और एक लेबराडोर जो बहुत फ्रैंडली था लेकिन दोनों को ज़रा सी सूँघ भी आ जाए कि कोई आदमी खराब नीयत से संस्थान ...और पढ़ेघुसा है तो दोनों जब तक उसके चिपट न जाएं तब तक भौंकना बंद ही नहीं करते थे | अगर संस्थान के क्लासेज़ या फिर किसी के आने की सूचना मिलने पर उन्हें बंद न करते तो वे आने वाले नए लोगों को फाड़कर ही दम लेते | दोनों लंबे, बड़े, खूब ताकतवर ! जिनके नाम रखे गए थे विक्टर
80---- ============ इंसान हो अथवा साथ में रहने वाला कोई भी छोटा, बड़ा प्राणी क्यों न हो, यदि अचानक अनुपस्थित हो जाता है तो एक सूनापन छोड़ ही जाता है | विक्टर, कार्लोस के डॉक्टर की सलाह पर उन्हें ...और पढ़ेपशु चिकित्सा केंद्र में भेजने की बात हुई | इससे पहले तो उनके बचपन से ये ही वैटरनरी डॉक्टर डॉ. अशोक सब्बरवाल इन दोनों का इलाज कर रहे थे | ये ही दोनों को समय-समय पर इंजेक्शन और एलोपैथिक दवाइयाँ देते रहे थे | अब इन्होंने ही सलाह दी थी कि दोनों की इम्यूनिटी बहुत कमजोर हो गई थी इसलिए
81- ============= विक्टर, कार्लोस की स्थिति सुधर रही थी और पापा-अम्मा और संस्थान के सभी लोग जो उनकी तीमारदारी करते थे, विशेषकर उनको जैसे चैन की साँस आने लगी थी | कुछ ही दिनों में दोनों का स्वास्थ्य काफ़ी ...और पढ़ेहो गया था | फिर भी अभी उन्हें यहाँ संस्थान में वापिस लाने की कोई बात या विचार नहीं था | उन्हें पहले स्वस्थ होना था फिर कहीं यहाँ लाने की बात सोची जाती | संस्थान में एक बात बहुत ही कमाल की हुई कि कोविड के दो चरणों में कोई भी बीमार नहीं पड़ा | सब स्वस्थ रहे, वहाँ
82- ========= टीका लगवाने तो जाना ही था सो मैं उत्पल के साथ एक दिन टीका-सेंटर पर जाने के लिए निकली | पापा ने कहा कि ड्राइवर रामदीन को साथ ले जाएँ | वह ही सबको ले जाता था ...और पढ़ेबड़ी सावधानी से ले आता था | वैसे इन दिनों तो संस्थान के कई ड्राइवर्स खाली ही थे जो पीछे की ओर उनके लिए बनाए गए क्वार्टर्स में रहते थे | संस्थान क्या था एक पूरा सिटी बन चुका था जिसमें सिवा बाज़ार व स्कूलों के सब कुछ ही तो था | एक छोटी सी कुछ कमरों की कोठी इतने
83 ---- ============= अपनी बारी की प्रतीक्षा में चारों ओर का जायज़ा लेती मेरी आँखें वापिस लौटकर बार-बार उत्पल के चेहरे पर ठहर जातीं जिसका चेहरा क्या और सभी की तरह केवल आँखें खुली हुई थीं | उसकी उन ...और पढ़ेआँखों को हर बार मैंने अपने ऊपर टिका हुआ ही पाया | मुझे लगा मैं कितनी दोगली थी, मैं देखूँ तो क्षम्य और वह देखे तो अक्षम्य ! गुनाह ! ये भला क्या बात हुई मैं भी न ! वास्तव में मुझे अपने ऊपर अजीब सी कोफ़्त हो आई | ऐसा होना चाहिए क्या? एक ही बात के लिए अगर
84— ============= वैसे ठीक ही था सब, अचानक उत्पल ने कहा कि अगर सब कुछ ठीक होता तो इतने लंबे समय के बाद एक लॉंग ड्राइव तो बनती थी | लेकिन पापा-अम्मा की अवज्ञा हममें से कभी करने की ...और पढ़ेसोचता तक नहीं था, करने की बात तो दूर रही, हममें से कोई सोच भी नहीं सकता था कि उनकी कही हुई बात को काट दिया जाए | कभी-कभी पापा-अम्मा इस बात का जिक्र करते भी थे और वे ही क्या मौसी के परिवार में, मित्रों में, संस्थान से जुड़े सभी लोगों को यह बात बहुत अच्छी लगती थी और
85---- ================ आज के आदमी की परेशानी यह है कि वह दूसरे को देखकर यह नहीं सोच पाता कि सामने वाला किन कठिनाइयों, परेशानियों और अपने श्रम से आज की स्थिति पर पहुँचा होगा | जैसे पूरा जीवन लग ...और पढ़ेहै किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने में लेकिन सामने वाला केवल उसकी सफलता का परिणाम देखता है, उसका वर्षों का श्रम, रात-दिन का जागना, उसका जूझना नहीं देखता | उसे बस वह चमक दिखाई देती है जो उसके सामने चमक रही होती है | इसीलिए उसे रातों-रात उस स्थान पर पहुंचना होता है जिस पर वह सामने वाले को
86--- ================ मुझे उत्पल में कभी पापा की झलक दिखाई दे जाती जो मुझे प्रभावित करती | पापा का वह रोमांटिक मूड मुझे अक्सर याद आ जाता था जब वे अम्मा को छेड़ा करते थे | सपनों की तरह ...और पढ़ेहै ज़िंदगी, वे सपने जो मुझे तो कभी आते ही नहीं थे | अब मैं सपनों को खोजने लगी थी या फिर सपने मुझे, पता ही नहीं चलता | यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि बेटी पिता के व्यक्तित्व से प्रभावित होती है और अधिक लाड़ली रहती है तो बेटा माँ की ओर अधिक आकर्षित रहता है | यह मनोविज्ञान कहता
87---- ============ हद ही हो गई, सबके ही तो टीके लगे थे और सब बड़े मज़े में घर वापिस आए थे, मैं कोई अनोखी थी क्या? मेरी इस स्थिति से संस्थान का बड़े से लेकर छोटा बंदा तक मेरे ...और पढ़ेचिंतित हो गया था | क्या मैं सबको परेशान करने के लिए ही हूँ ---कारण कोई भी हो? यह सोचकर मुझे बहुत खराब लगा मैं सोच रही थी कि कमरे में ही कुछ हल्का-फुल्का मँगवा लेती हूँ लेकिन रतनी और शीला दीदी के सामने चलती होगी मेरी ! “शीला दीदी ! अगर अभी आराम कर लूँ तो कैसा रहेगा?” मैंने
88--- ================ इंसान की कैफ़ियत है। उसे जिससे दूर जाना होता है, उसके बारे में ही ज्यादा सोचता है | यानि सोचना कोई ऐसी क्रिया नहीं है जिसमें वह जान-बूझकर कूदे या फिर उसे करना या न करना चाहे ...और पढ़ेयह तो अपने आप ही साँस जैसे चलती रहती है, पिघलती रहती है, मचलती रहती है, ऐसी ही कोई प्रक्रिया है | कुछ करने से कुछ नहीं होता जैसे प्रेम करने की कोशिश से प्रेम नहीं होता | प्रेम जाने दिल की गलियों में से, साँसों की अनदेखी नसों, अनदेखी, अनपहचानी गलियों में अपने आप ऐसे समाने लगता है जैसे
89 ---- =============== अब वातावरण काफ़ी सामान्य हो चुका था | सरकार ने भी काफ़ी छूट दे दी थी, फ़्लाइट्स खुल गईं थीं लेकिन सरकार ने अभी सबको ध्यान रखने की सलाह दी थी | दूसरे दौर में जो ...और पढ़ेहुई थी उससे सब लोग घबरा गए थे लेकिन किसी भी स्थिति में हमेशा कुछ ऐसे लोग भी होते ही हैं जो अपने आपको पहलवान समझना नहीं छोड़ते | और तो और वे यह भी समझने की कोशिश नहीं करते कि उनके कारण और लोगों को परेशानी होगी | सामने सड़क के पार वाले मुहल्ले में ऐसे बहुत लोग थे
90--- =============== तय किया गया कि इस बार दिव्य टूर के साथ जाएगा, ग्रुप लीडर की तरह | मुझे मेरा गिल्ट परेशान करता मेरे कारण अम्मा पापा अटक जाते हैं कहीं भी जाने से | अब या तो मैं ...और पढ़ेकर लूँ या फिर पक्का निश्चय कर लूँ और अम्मा-पापा को बता ही दूँ कि मुझे शादी करनी ही नहीं है | यहीं तो मार खा रही थी मैं! शादी का लड्डू खाना भी था और---नहीं भी! दो नावों में पैर रखने की आयु थी क्या मेरी?बरसों से यही तो कर रही थी | दिव्य के साथ जाने वाले ग्रुप
91---- ================ सब लोगों का ध्यान पल भर में रमेश की पत्नी सुधा की ओर चला गया, स्वाभाविक था | उसकी गर्भावस्था के दिन पूरे होने को ही थे, सब जानते थे | उन दिनों अम्मा उसे अस्पताल न ...और पढ़ेसंस्थान में ही डॉक्टर को बुलवाकर चैक करवाती रही थीं | डर था अम्मा को कोविड का!अब तो सब काफ़ी रिलैक्स होने लगे थे | अम्मा ने डॉक्टर से बात की और उन्होंने आश्वासन दिया कि खतरे की कोई बात नहीं थी | उनका अस्पताल रोज़ सेनेटाइज़ करवाया जाता है, खासकर डिलीवरी वाला व बच्चों का वार्ड और ऑपरेशन थियेटर
92--- ================ संस्थान की पार्किंग में पापा की गाड़ी देखकर पता चल गया कि पापा आ गए थे, बिटिया के आने की खबर से वहाँ खुशी फैल गई थी | आखिर परिवार का एक सदस्य बढ़ गया था | ...और पढ़ेअपने कमरे के बाहर ही खड़े थे, उनके मुख पर भी मुस्कान खिली थी | “पधार गईं लक्ष्मी जी?कैसे हैं माँ बेटी। दोनों?” पापा ने मुस्काते हुए पूछा | “सब अच्छा है, बस सुधा का सीज़िरियन करना पड़ा | ”अम्मा ने बताया | “एक खुशखबरी मैं देता हूँ ---”पापा बोले | “अच्छा, क्या भला ?”अम्मा को उत्सुकता थी | उत्पल
93--- =============== अगले दिन मौसी का पूरा परिवार दोपहर में ही आ गया | माता-पिता की दुर्घटना यानि उनके न रहने से, स्वाभाविक था मौसी और मौसा जी कुछ अधिक ही उदास थे | हम सबको उनके कोविड-अटैक के ...और पढ़ेमें पता चल गया था लेकिन समय ऐसा कठिन था कि हममें से कोई भी उनको देखने नहीं जा पाया था | और तो और मौसा जी के दूसरे भाई भी माता-पिता को नहीं मिल पाए थे | यह सब उस हादसे में हुआ था जब उन्हें अस्पताल में बड़ी मुश्किल से जगह मिली थी लेकिन बहुत कम मरीज़ ही
94— =============== अल्बर्ट और आना को अच्छी हिन्दी बोलनी सिखा दी थी अंतरा ने | पहले बातें अँग्रेज़ी में होती रहीं फिर जब पापा ने देखा कि अल्बर्टन अच्छी खासी हिन्दी बोल लेते हैं, पापा अपनी प्यारी हिन्दी पर ...और पढ़ेआए | पापा ज़बरदस्त हिन्दी प्रेमी थे, उन्हें अल्बर्ट को हिन्दी बोलते देखकर बहुत अच्छा लगा था | फ़र्क था केवल उच्चारण का जो स्वाभाविक था | अल्बर्ट वाकई में बड़ा सरल, अच्छे स्वभाव का था | थोड़ी ही देर में वह सबमें ऐसे घुल-मिल गया जैसे न जाने कब से दोस्ती हो सबसे | पापा और मौसा जी भी
95--- ================ कुछ देर बात उत्पल भी पहुँच गया | मौसी और मौसा जी उसे देखकर प्रसन्न हो उठे | वह किसी से कोई कॉन्टेक्ट नहीं रखता था, इस बात की शिकायत की गई और वह मुस्काता बैठा रहा ...और पढ़ेवह कोई उत्तर देना नहीं चाहता था या दे नहीं सकता था,कुछ समझ नहीं आया|कुछ पर्सनल बातें मौसा जी ने उससे पूछने की कोशिश की फिर मुझे लगता है कि मौसी ने अपने पति को आँखों से इशारा कर दिया जिससे वे चुप हो गए यानि उत्पल से कुछ खास बात पूछने की उत्सुकता को दूर करने की कोशिश की
96--- =============== उस दिन वाकई गैदरिंग में बहुत मज़ा आया | Guten tag ---आते ही उसने मुस्काकर कहा था | हम सब उसका मुँह देखने लगे थे,हमारी समझ में कहाँ से आता बंदा क्या बोल रहा था लेकिन अम्मा ...और पढ़ेउसी तरह,उसी लहज़े में उसे जवाब दिया और खिलखिलाकर हँस पड़ीं थीं |बड़े दिनों बाद अम्मा को इतना खिलखिलाकर हँसते देखा था| “सीधा सा ‘हैलो’कह रहा है ये अपनी भाषा यानि जर्मन में वैसे इतना बुद्धू तो वहाँ कोई नहीं था कि अल्बर्ट क्या कह रहा थयह समझ न पाते लेकिन उन्ही शब्दों में उत्तर देना तो कठिन ही था
97--- ============ मैंने अपने आपको प्रमेश से बात करने के लिए तैयार तो कर लिया था लेकिन मन से अस्वस्थ महसूस कर रही थी | उत्पल मेरे दिमाग के आसमान पर टिमटिमा रहा था लेकिन जाने क्यों मुझे लगा ...और पढ़ेआसमान से टपकने वाली बरखा की बूंदें उसकी आँखों में सिमट आई हैं | मुझे मह्सूस हुआ कि मैं कहीं उन आँसुओं में सिमट तो नहीं जाऊँगी? मैं असहज थी, बहुत असहज---नहीं होना चाहिए था लेकिन थी और कारण था कि अंतरा ने जाने से पहले मुझे बताया था कि कोविड में जो कलकत्ता में गुज़र गईं थीं वो उत्पल