प्रेम गली अति साँकरी - 41 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 41

41--

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खासी रात हो गई थी उस दिन, मैं उत्पल को प्रमेश और श्रेष्ठ के बारे में बताना चाहती थी | उसके मन में अपने प्रति कोमल भाव जानकर भी मैं एक मित्र होने के नाते उससे सलाह लेना चाहती थी | कुछ तो बोलेगा, क्या बोलेगा? देखना चाहती थी लेकिन नहीं कह पाई | रास्ते भर फिर से हम दोनों लगभग चुप्पी ही साधे रहे | मैं जानती थी, उसके मन में उथल-पुथल चल रही होगी | किसी से कोई बात कहना शुरू करो और फिर बीच में चुप्पी साध लो---स्वाभाविक है मन में तरह-तरह के विचार उठना | सामने वाला खीज भी सकता है लेकिन उत्पल ने मुझसे कुछ भी पूछने की कोशिश नहीं की | मैं होती तो ऐसे व्यवहार पर बिफर जाती---असभ्य तक बना देती उसको जो मेरे साथ ऐसा करता | 

काफ़ी घनी रात थी उस दिन ! लेकिन संस्थान की सारी बत्तियाँ ऐसे जल रही थीं जैसे किसी की प्रतीक्षा में रोशनी की गई हो | उत्पल गार्ड से गेट खुलवाकर मुझे छोड़कर निकल गया | गार्ड के गेट वाले कमरे के बाहर दो चारपाइयाँ बिछी थीं जिनमें उसके साथ वे नए दो छोटी उम्र के लड़के लेटे थे | गेट खुलने की आवाज़ सुनते ही वे दोनों जागकर खड़े हो गए | 

“अरे! सो जाओ न, कोई बात नहीं---”मैंने कहा लेकिन वे दोनों खड़े रहे | 

“दीदी ! आपको छोड़ आते हैं----”छोटू बोला | 

“कहाँ छोड़ने आओगे मुझे----? ” मैं हँस पड़ी | बरसों से जिस स्थान में रह रहे थे, वहाँ कैसा डर ? हमारे इतने बड़े स्थान में कहीं भी अँधेरे का नामोनिशान नहीं रहता था | सारे कैंपस में बिजली का इतना सुंदर अरेंजमेंट था कि किसी अजनबी को भी अंधेरे में डर न लगता | फिर मैं तो बचपन से यहाँ बड़ी हुई थी | हाँ, पहले यह इतना बड़ा नहीं था जितना पिछले 10/12 वर्षों में फैल गया था लेकिन हम परिवार के सभी लोग व यहाँ निवास करने वालों के लिए किसी भी कोने में जाना कहाँ कठिन था? आज तो वो बत्तियाँ भी जल रही थीं जो कभी-कभार ज़रूरत पड़ने पर जलाईं जातीं | 

मैं आगे सहन में बढ़ती गई और अपने कमरे में पहुंची | सच में, चारों ओर रोशनी खुली होने के बावज़ूद भी आज सहन बहुत सूना लग रहा था | मैं उत्सव के साथ घूमकर काफ़ी अपने भीतर काफ़ी ताज़गी भरकर लौटी थी लेकिन कमरे की बत्ती जलाते ही मेरी दृष्टि अपनी खिड़की के पार पहुँच गई | आज हमारी बाउंड्री के भीतर की पीछे की भी सारी बत्तियाँ जली हुई थीं और सड़क पार के मुहल्ले की गली की भी ! लेकिन जैसे सूनापन सब ओर भटक रहा था | खिड़की के पास पहुंचते ही मेरा मन फिर से उस दुर्घटना के पास पहुँच गया जिसे भुला देने के लिए मैं उत्सव के साथ भटककर आई थी | 

वॉशरूम में जाकर मैंने हाथ-मुँह धोया और रात के कपड़े पहनकर ताज़ा होने की कोशिश की | बहुत थक गई थी सो पलंग पर लेट गई लेकिन अधमुँदी आँखों के सामने फिर से वही चलचित्र चलने लगे जिन्हें मैंने इतनी देर तक बिलकुल भी याद नहीं किया था, और करवट बदलते हुए मेरी आँखें न जाने कब मुँद गईं | 

आज पता नहीं कैसी नींद सोई थी कि जहाँ ज़रा सी आवाज़ में, ज़रा से खटके में मेरी नींद खुल जाती थी। आज आठ बज गए थे और देह टूटी जा रही थी | आँखों में नींद नहीं थी, आलस्य इतना था कि बिस्तर से उठने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी | 

दरवाज़े पर नॉक हुई तो उठना पड़ा | जानती थी, महाराज होंगे ---

“गुड मॉर्निंग दीदी ! आज तो मैं दो बार आपकी कॉफ़ी लेकर आ चुका, नॉक भी किया | आप बहुत गहरी नींद में थीं | आपकी तबियत तो ठीक है? ”उन्होंने ट्रे जिसमें मेरा अखबार व कॉफ़ी थी मेरी साइड-टेबल पर रख दी और अपनी चिंता जाहिर की | वहाँ के सभी लोग हम सबकी चिंता करते थे | अपने सहायकों को अपने परिवार के सदस्य जैसी इज़्ज़त देना हम सबने दादी से सीखा था | कोई भी बात हो, दादी आज भी याद न आएँ, ऐसा हो ही नहीं सकता था | 

मुझे हमेशा यह अहसास हुआ है कि हम अपनी सोच, शिष्टाचार, संवेदना अनजाने में अपने परिवार से लेते  हैं, वो सब चीजें हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं, वे हमारी जड़ों से जुड़ी रहती हैं | दादी उस जमाने में भी कितने खुले विचारों की थीं, उन्होंने अम्मा-पापा के रिश्ते को कितने प्यार और सहजता से स्वीकार किया था और सदा उनके साथ आशीष बनकर खड़ी रही थीं | मैं तो समझती हूँ कि उन दोनों का रिश्ता सदा इसीलिए फलता-फूलता रहा | किसी के रिश्ते अथवा विवाह की बात सामने आने पर वे हमेशा कहतीं थीं कि दो लोग किसी भी भिन्न राज्य के हों, कोई भी भाषा क्यों न बोलते हों, एक बात का ध्यान ज़रूर रखना चाहिए कि उनकी जड़ें कहाँ हैं? उन दोनों के ही परिवार की पृष्ठभूमि यानि ‘बैकग्राउंड’ क्या है? उनकी दृष्टि में गरीबी-अमीरी की बात नहीं थी, शिक्षित-अशिक्षित की बात थी, तहज़ीब की बात थी, सही सोच की बात थी | उनके ही विचार हमारे पूरे परिवार की जड़ों में इतनी मजबूती से जमे हुए थे कि हमारी तीसरी पीढ़ी यानि मैं और भाई भी इस विचार से इत्तिफ़ाक रखते थे | 

“क्या लेंगी आप नाश्ते में ? ” उन्होंने पूछा | 

मुझे ध्यान ही नहीं रहा कि महाराज अभी तक वहीं खड़े थे | बेचारे मेरे नाश्ते के बारे में पूछने के लिए कई मिनट से खड़े थे और मैं पुराने पृष्ठ पलट रही थी | 

“कुछ भी---ज़्यादा कुछ नहीं ----”

“अम्मा-पापा तो उठ गए होंगे---? ”पल भर रुककर मैंने पूछा | 

“जी, आधा घंटा में उन्हें नाश्ता करना है, शायद कहीं बाहर जाना है –” शायद महाराज ने उनको बात करते हुए सुना हो या हो सकता है अम्मा ने ही उन्हें बताया हो जिससे वे समय पर नाश्ता तैयार कर सकें | 

“तो जो अम्मा-पापा ले रहे हैं, वही मैं भी ले लूँगी---आती हूँ वहीं ---”

“उन्होंने तो फल और ज्यूस के लिए कहा है---वैसे, आपको तो अभी टाइम लगेगा न दीदी ? ” सब जानते थे कि मैं अपनी पहली कॉफ़ी के बाद बाहर जाने में काफ़ी समय लेती थी | 

“नहीं, मैं जल्दी फ़्रेश होकर पहुँचती हूँ | ”कॉफ़ी की आखिरी सिप लेते हुए मैंने अपना मग ट्रे में रख `दिया | 

“शीला दीदी के घर के क्या हाल हैं ? ”

“जी, उनके कुछ रिश्तेदार सुबह-सुबह पहुँच गए हैं | सुबह शोर मच रहा था, जोर-ज़ोर से रो रहे थे वो लोग ! ”महाराज ने रिपोर्टिंग कर दी और अखबार मेज़ पर रखकर कॉफ़ी के खाली मग वाली ट्रे उठाकर कमरे से बाहर जाने के लिए दरवाज़े की ओर बढ़ने लगे | 

“उनके घर पर किसी चीज़ की कमी न रह जाए, देख लीजिएगा | ”

“जी, सर ने सब इंतज़ाम करवा दिया है | जैसे-जैसे ज़रूरत होगी, मैं भिजवाता रहूँगा | ”

“हाँ, ध्यान रखिएगा, आप बीच में चक्कर मार लेना---” मैंने कहा और वॉशरूम की ओर चल दी | 

महाराज मेरे कमरे का दरवाज़ा हर बार की तरह बंद कर गए थे | मैं वॉशरूम जाते-जाते रुक गई आगे बढ़कर कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद कर दिया और फिर आकर कमरे की उसी खिड़की पर पल भर के लिए खड़ी हो गई | सड़क पर रोज़ाना की तरह पूरी आवाजाही शुरू हो गई थी, मुहल्ले के लोगों में भी सरगर्मी दिखाई दे रही थी | लोग उधर से आते-जाते हुए शीला दीदी के घर की ओर देखते हुए निकल रहे थे जैसे कोई अजूबा हो गया हो | उनके बरामदे में भी कुछ लोग दिखाई दे रहे थे | शायद वे ही, उनके गाँव से आए होंगे | 

शायद मुश्किल से मैं दो मिनट वहाँ रुकी हूँगी फिर फ़्रेश होने चल दी | मुझे अम्मा-पापा के साथ नाश्ता करना था | नाश्ता क्या, उनके पास बैठना था |