प्रेम गली अति साँकरी - 9 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 9

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ज़िंदगी हर पल इम्तिहान ही तो लेती है, सबका लेती है | गरीब-अमीर, शिक्षित-अशिक्षित—कोई भी क्यों न हो ! कोई कितना भी छिपाने का प्रयत्न करे, छिपा भी ले, बाहरी तौर पर लेकिन खुद से कभी कोई कुछ छिपा सका है ? किसी न किसी क्षण उसे उस पीड़ा के सामने ऐसे खड़ा होना पड़ता है जैसे कोई मुजरिम ! कई बार लगता है कि मनुष्य सच में मुजरिम होता है क्या ? उसे खुद भी लगता है कि आखिर उसे किस जुर्म की सज़ा मिल रही है | जीवन की भूल-भुलैया उसे उसमें से बाहर आने ही नहीं देती, उसमें घूमता रह जाता है, भटकता रहता है मन !रतनी की प्यारी सी सूरत, उसका सरल सा व्यवहार, उसका मेहनतकश स्वभाव देखकर हम सबको लगता कि आखिर वह किस चीज़ की सज़ा भुगत रही है ? लेकिन हम सब जानते हैं कि हमारे हाथ में कुछ होता नहीं है सिवाय इसके कि हम बेकार ही अपने उन पलों को कोसते रहें जिनके बारे में हम कुछ जानते ही नहीं हैं !

दादी इतनी बार कहा करती थीं कि जगन के लायक है ही नहीं ये प्यारी सी रतनी, बेकार ही भुगत रही है उसकी बदतमीज़ियों को | मज़े की बात थी कि जब शीला दीदी खुद को कोसती थीं कि उनकी वजह से रतनी मुसीबत में थीं तब दादी हमेशा उन्हें समझाती थीं कि ये सब भाग्य के खेल हैं, तुम्हारा कोई कसूर नहीं है| मनुष्य का स्वभाव और मन अजीब ही होता है जो पल में माशा, पल में रत्ती होता रहता है | मन किसी क्षण कुछ तो किसी क्षण कुछ सोचने लगता है | 

शीला दीदी का प्रेमी खासा भला इंसान था | चाहता था कि शीला के भाई–भाभी से जाकर उसका हाथ मांग ले लेकिन शीला दीदी ने उसे ऐसा करने से मना किया था | अगर जगन को पता लग जाता कि उसकी बहन किसी के प्रेम में है तो आफ़त ही मचा देता | उसके लिए प्रेम व्रेम होता क्या है ? एक बेकार सा अक्षर ही तो, आखिर क्या मतलब है इसका ? उसके विचार में तो लंपट लोग ही इस प्रेम-व्रेम का स्तेमाल करते हैं | रतनी को शीला ब्याहकर लाई थी क्योंकि उसे लगता था कि वह लड़की उसके बदतमीज़, बेहूदा, निकम्मे भाई को सही रास्ते पर ज़रूर ले आएगी | इसी जल्दबाज़ी में उसने एक बड़ी गलती कर डाली थी | रतनी के माता-पिता नहीं थे और भाइयों का हाल जगन जैसा ही था | साथ में कहीं-पीने-पिलाने में उनकी पहचान हुई थी | शीला ने एक बार अपने भाई जगन को उनके सहारे घर में आते देखा था | पता चला जिस अड्डे पर वे सब पीने बैठते थे वहाँ जगन अक्सर होश गँवा देता था और उस दिन तो ऐसा हो गया कि जगन वहीं ढेर हो गया था और वे कुछ लोग उसे ढोकर घर तक पहुँचाने आए थे | 

शीला दीदी ने उन लोगों को धन्यवाद दिया जो उसके गिरे-पड़े भाई को उठाकर सही सलामत घर छोड़ गए थे | उसे क्या मालूम था कि कुछ ही दिनों में ये ही लोग अपनी बहन का रिश्ता लेकर उसके पास आ जाएंगे | ये रतनी के भाई थे जो अपनी बहन की शादी उस शराबी आदमी से करना चाहते थे जिसे वे लुढ़कते हुए देख चुके थे बल्कि उस पीए हुए को टाँगकर लाए थे | उनके लिए रतनी, उनकी बहन एक बोझ ही थी जो मुफ़्त में खाना डकारती थी | 

वे अपने माँ-बाप को भी गाली देते जिन्होंने अपने बेटों के साथ बेटी को भी अपनी जायदाद में हिस्सा बाँटा था | रतनी बेचारी घर भर का काम करती, भाभियों की गालियाँ सुनती, उनकी सेवा करती और उन्हें महारानियों की तरह रखती | रतनी के रहते उन्हें अपने हाथ-पैर हिलाने की ज़रूरत ही नहीं थी | उनकी इच्छा नहीं थी कि रतनी का ब्याह हो, उसकी शादी के बाद उनका सारा काम और रौब-दाब ठप्प हो जाना था उसके बिना लेकिन उनके पतियों को रतनी के हिस्से की जायदाद हड़पनी थी | इसलिए वे सोचते कि कोई ऐसा लड़का मिल जाए और वे उस बला से छुट्टी पा लें | बस, दिखाई दे गया उन्हें जगन, जिसको कुछ लेने-देने की ज़रूरत भी नहीं थी और पहुँच गए शीला के पास !रतनी जानती थी कि उसके माता-पिता उसके लिए भी ज़मीन का खासा बड़ा  टुकड़ा छोड़कर गए हैं लेकिन उस बेचारी की हिम्मत कहाँ थी कि वह अपने कसाई भाइयों के सामने मुँह खोल सकती !

शीला ने उनसे बहुत स्पष्ट रूप से बताया भी कि वे जानते हैं कि जगन कैसा है फिर भी अपनी बहन का रिश्ता लेकर आए हैं ? लेकिन उन्हें कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं था| उन्हें तो अपनी बहन से पीछा छुड़ाना था| उसकी पढ़ाई तो बहुत पहले ही छुड़वा दी गई थी अब तो उससे घर छुड़वाना था, ज़मीन-जायदाद हड़पनी थी| सो---मिल गया उन्हें ऐसा बंदा जिसको लड़की के अलावा कुछ भी न देना पड़ता| शीला दीदी रतनी की प्यारी सूरत और सरलता देखते ही फ़िदा हो गईं थीं | बस, उन्होंने कर भी दिया पट मंगनी, चट ब्याह ! रतनी से कौन कुछ पूछने वाला था कि उसकी मर्ज़ी है क्या? उसकी इच्छा क्या है ? यानि वह एक चीज़ ही तो थी जिसको इधर से उधर उठाकर कहीं भी फेंक दो, क्या फ़र्क पड़ता है ? और जगन ---उसके लिए तो वह एक देह की हांडी भर थी जिसे स्तेमाल करने का लाइसेंस उसे मिल गया था और वह बहुत खुश था| कहीं इधर-उधर मुँह मारता फिरता, इससे तो घर में ही उसकी बहन ने उसे हांडी में मलाई भरी खीर परोसकर दे दी थी | अब जब कभी उसे खाना हो खाए नहीं तो हांडी तो घर में है ही, कभी भी पका लो अपने मन माफ़िक और पटक दो उसे एक कोने में, कहाँ जाने वाली है भला ? अब तो पट्टा बंध गया है रतनी के गले में समाज के रस्मोरिवाज़ का जिसे तोड़ना भारतीय नारी के लिए कहाँ आसान था, वह भी रतनी जैसी के लिए!!

जैसे-जैसे रतनी का शरीर रौंदा जाता वैसे-वैसे शीला दीदी की आँखों की नींद गायब होती जाती | जब रतनी माँ बन गई तब उसकी इज़्ज़त होने की जगह उसको और भी प्रताड़ित किया जाने लगा और शीला दीदी का स्वर विद्रोही बनने लगा लेकिन उनके विद्रोह की भी भला क्या औकात थी ? और जैसे-जैसे दिव्य बड़ा होने लगा उसकी मीठी आवाज़ कहर ढाने लगी | माँ शारदा उसके कंठ में विराजमान उसे जैसे उकसाती रहतीं और वह पिता के पूछे बिना यदि कुछ करता तो उसकी तो ठीक रतनी को लात-घूँसे खाने पड़ते| अलसाई हुई आँखों से शीला दीदी सब कुछ देखती रहतीं, वे बोल सकती थीं लेकिन घर में युद्ध होने से भयभीत रहतीं | मुहल्ले के लोग तो तैयार ही रहते तमाशा देखने के लिए| 

इस पॉश सोसाइटी और उस सामने वाले मुहल्ले में न जाने कितनी कहानियाँ जन्म लेतीं | पॉश लोगों की कहानियाँ भारी पर्दों के पीछे रहतीं लेकिन मज़े की बात तो यह थी कि पॉश घरों में काम करने वाले सामने के मुहल्ले में ही तो रहते थे | कोई ड्राइवर, कोई महाराज, कोई पूरे दिन का सहायक –सभी तो सड़क क्रॉस करके इस ओर आ जाते थे और पर्दों में ढकी बातें बाहर हवा में तैरते हुए सामने वाले मुहल्ले के मन में सनसनाहट पैदा करने लगतीं थीं | 

मैं उस मुहल्ले का टार्गेट थी| इतनी बड़ी लड़की हो गई है लेकिन घरवाले कुछ कहते ही नहीं हैं, न ही सोचते हैं ! वैसे भला उनको इस सबसे क्या मतलब होना चाहिए था लेकिन खाली लोगों को बुनने के लिए किसी कहानी की ज़रूरत तो होती ही न ! पोस्ट-ग्रेजुएशन पूरी हो चुकी थी लेकिन दादी के न रहने से मुझे लगने लगा था कि अम्मा के साथ संस्थान में खड़े रहना मेरे लिए जरूरी था | अम्मा का मॉरल सपोर्ट पहले दादी थीं, अब मुझे बनना होगा | मैं संस्थान का अंग बन चुकी थी और शीला दीदी के करीब होती जा रही थी| शीला दीदी मेरे साथ अब दादी की तरह खुल गईं थीं और अपनी कितनी ही बातें मुझसे शेयर करने लगीं थीं | 

उन्हीं दिनों में उन्होंने मुझे अपने प्रेमी के बारे में बताया था और अपनी भाभी रतनी के प्रेमी के बारे में भी जो रतनी के दिल्ली से जुड़े हुए गाँव में ही कंस्ट्रक्शन के बिज़नेस में था | मुझे आश्चर्य हुआ कि जगन की बहन होते हुए वह अपनी भाभी के प्रेमी के बारे में बिंदास बातें कैसे कर सकती थी ? शीला दीदी कहतीं कि उनका मन करता है कि जो कुछ भी हो चुका लेकिन अब अगर उसका बस चल जाए तो वह रतनी को जगन के चंगुल से छुड़वाकर उसके प्रेमी के साथ उसे भगा दे | 

“आप क्यों नहीं ऐसा कर लेतीं ? आप भी तो यहाँ –इस घुटन में ---” मैं उनसे पूछती | 

“मैं चली गई तो इन सबका क्या होगा, एक मेरे से ही तो थोड़ा–बहुत डरता है जगन—“ वे कहतीं और मुझे लगता कि वे ठीक ही तो कह रही हैं | उनमें एक स्त्री के गुण थे और वे एक स्त्री की संवेदना को महसूस कर सकती थीं | यह बहुत बड़ी बात थी और मुझे बार-बार लगता था कि जितनी जल्दी इनका फ़्लैट बन जाए, ये उसमें शिफ़्ट कर सकें लेकिन जगन इसमें बहुत बड़ी बाधा था| 

‘ये प्रेम की गली इतनी साँकरी’क्यों होती हैं? ’क्यों इतनी तकलीफ़ें होती हैं प्रेम के रास्ते में ? क्यों बाधाएँ आती हैं ? किसी न किसी प्रकार की बाधा----जो भटकन देती है !!मन ठीक न रहने से मन और तन दोनों ही अस्वस्थ हो जाते हैं |